श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
तत्पश्चात श्रीअण्णा स्वामीजी दयाकर कन्दाडै अण्णा के दिव्य तिरुमाळिगै कि ओर प्रस्थान करते हैं। अण्णा स्वामीजी उनके स्वागत हेतु पधारते हैं और जैसे कि कहा गया हैं “वैष्णवो वैष्णवं धृत्वा दण्डवत् प्रणमेत् भुवि” (अगर दो श्रीवैष्णव एक दूसरे से मिलते हैं तो उन्हें एक दूसरे को देखकर धरती पर गिरकर लम्भी साष्टांग करना चाहिये), उन्होंने एक दूसरे को साष्टांग कर एक दूसरे के विषय में जाना और श्रीअण्णा स्वामीजी के दिव्य तिरुमाळिगै में पधारे। उन्होंने देखा कि श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी संयोग से वहाँ पधारे हैं। उन्होंने उन्हें साष्टांग कर कहा “क्या आप श्रीमान श्रेवैष्णव हैं जो दया से भरे हुए हैं!” श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी ने उन्हें प्रेम से आलिंगन किया। तीनों ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव को स्मरण किया जैसे यति पुनरवतारम् (श्रीरामानुज स्वामीजी का अपरावतार) और दया कर मठ में पहुँचे। श्रीप्रतिवादी भयङ्कर् स्वामीजी ने अपनी भेंट को अर्पण किया। उन्होंने अपनी पत्नी और तीन पुत्र एम्पेरुमानारप्पन्, अनन्तय्यनप्पै और तिरुवाय्मोऴिप्पेरुमाळ् को बुलाया और श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। उन्होंने जीयर् स्वामीजी का श्रीपादतीर्थ और भगवान के प्रसाद को स्वीकार किया। अण्णा स्वामीजी जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों के विश्वासपात्र के रूप में बन कर रहे। जैसे उनके विषय में कहा गया हैं “प्रसिद्धः परगोष्ठिषु प्रतिवादि भयङ्करः श्रीवैष्णवां गोष्ठिषु तत् दासः इति विश्रुतः” (विरोधी लोगों के गोष्ठी में दास प्रतिवादी भयङ्कर् नाम से जाना जाता हैं) वें जीयर स्वामीजी के दास बन कर रहे। जीयर् स्वामीजी ने उन्हें दास नाम प्रदान किया श्रीवैष्णव दास जो उन्होंने और किसी को भी नहीं दिया। उन्होंने अण्णा से कहा “प्रमाण सहित अन्य तत्त्वों को हटाओं और विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के तत्त्वों को स्थापित कर पोषण करों”।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर पुनः तिरुमला कि ओर प्रस्थान करते हैं; राह में काञ्ची पहुँचते हैं
तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने दिव्य मन में तिरुमला और अन्य दिव्य स्थानों में भगवान के दिव्य चरणों में पूजा करने का विचार कर जैसे कहा गया हैं “प्रतीतैरपि तध्भृत्यैः प्रतिवादि भयङ्करः” (प्रतिवादी भयङ्कर् अण्णा और उनके अनुयायी सहित) प्रतिवादी भयङ्कर् अण्णा और उनके अनुयायी सहित उत्तर कावेरी कि ओर प्रस्थान किया जैसे कहा गया हैं
अथविलोकनलोकतमेनुतं त्वतवलोकनतुङ्ग कुदूहलम्।
द्विरतशैलशिरोग्रहमेदिनं वरदम उत्तरवेदि विभूषणम्॥
फिर, जिसने अपनी दृष्टि से सांसारिक जनों के अज्ञान के अंधेरे को पूर्ण रूप से दूर कर दिया, जो श्रीमान पर अपनी दया बरसाने में प्रसन्न था, जिसने महान हस्तिगिरी पहाड़ों के उपर दयापूर्वक निवास किया, श्रीवरदराज भगवान जो अनुष्ठान के लिये सजावट की तरह हैं दिव्य हस्तिगिरी के उत्तरी टीले पर स्थित, वें श्रीवरदराज भगवान के दिव्य चरणों की पूजा करने के लिये सबसे पहिले पहुँचे, जो उन सभी की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं जो उनसे प्रार्थना करते हैं। उस स्थान पर निवास करनेवाले श्रीवैष्णवों बहु संख्या में वहाँ उनका स्वागत करने पधारे और उनके समक्ष साष्टांग दण्डवत किया। उन्होंने उनपर उनकी कृपा बरसाई और उनके साथ मन्दिर कि ओर प्रस्थान किया। उन्होंने दो श्लोक कि रचना किये जिसके क्रमानुसार पूजा करनी चाहिये:
श्रीमन् द्वारवरं महत्तिबलिपीठार्क्यं फणीन्द्रह्रतम्
गोपीनां रमणां वराहवपुषं श्रीभट्टनाथं तथा।
श्रीमन्तं शठवैरिणं कलिरिपुं श्रीभक्तिसारं मुनिम्
पूर्णं लक्ष्मण योगिनं मुनिवरानाद्यानत द्वारपौ॥
श्रीमन्मञ्जन मण्डपं सरसिजां हेतीश भोगीश्वरौ
रामं नीलमणिं महानसवरं तार्क्ष्यं नृसिह्मंप्रभुम्।
सेनान्यं करिभूतरं तदुपरि श्रीपुण्यकोटिं तथा
तन्मध्ये वरदं रमासहचरं वन्दे तदीयैर् वृतम्॥
(प्रवेश द्वार में दिव्य गोपुर जो नित्यश्री के साथ चमकता हैं; बलीपीठ (उठी हुई संरचना जहां विशिष्ट समय पर विशेष भोग अर्पण किया जाता हैं) के सामने अनंतसरस (दिव्य मन्दिर का जलाशय); वेणुगोपाल भगवान जो गोपीयोन के लिये प्रसन्नता हैं; वराह भगवान; श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी; श्रीशठकोप स्वामीजी जो श्रीमान हैं; श्रीपरकाल स्वामीजी जो कलियुग के शत्रु हैं; श्रीभक्तिसार स्वामीजी; श्रीमहापूर्ण स्वामीजी; श्रीरामानुज स्वामीजी; मुदल आऴ्वार् (पहिले तीन आऴ्वार् श्रीसरोयोगी स्वामीजी, श्रीभूतयोगी स्वामीजी, श्रीमहद्योगी स्वामीजी); द्वारपालक; दिव्य मण्टप जहाँ भगवान का दिव्य अभिषेक होता हैं; श्रीवरदवल्लभा अम्माजी जो कमल पुष्प पर विराजमान हैं; श्रीचक्रराज; आदिशेष; श्रीराम भगवान; करियमाणिक्क वरदर; तिरुमडप्पळ्ळि (दिव्य रसोई घर); श्रीगरुड़जी; नरसिंह भगवान; श्रीविश्वक्सेनजी; दिव्य हाथी का पहाड़; पुण्यकोटी विमान – इस क्रम से पूजा करना, मैं श्रीवरदराज भगवान कि पूजा करता हूँ जो श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी हैं और जो श्रीदेवी और भूदेवी से घिरे हैं)।
कमलनिवेशिताङ्ग्रिम् अमलं कमलाभरणम्
गनमणि भूषण द्युतिकटारित गात्ररुचिम्।
अभ्यगता सुदर्शन सरोरुह चारुकरम्
करिगिरि शेखरं किमपि चेतसि मे निधते॥
(मैं उन भगवान का ध्यान करता हूँ जिनके कमल सदृश दिव्य चरण कमल के आसन पर मजबूती से दबे हुए हैं, जो श्रीमहालक्ष्मीजी के दिव्य स्वामी हैं, जिनके दिव्य रूप में दिव्य आभूषणों की चमक से सुनहरा रंग हैं, जो अभय मुद्रा (“डरो मत”) में अपना दिव्य हाथ रखते हैं, जिनके पास शंख और चक्र ऐसे दिव्य अस्त्र हैं और जो हस्तगिरि के लिये सजावटी आभूषण के रूप में चमकते हैं, जो हाथ पकड़ते हैं उपर्युक्त हथियार और अवर्णनीय श्रीवरदराज भगवान कौन हैं)।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/20/yathindhra-pravana-prabhavam-64/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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