श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
पहिले बताये दो श्लोकों को गाने के पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी पहाड़ पर चढ़कर श्रीवरदराज भगवान के दिव्य चरणों में मङ्गळाशासन् किये “मङ्गळं वेदसेवेदि मेदिनी गृहमेदिने वरदाय दयादाम्ने तीरोधाराय मङ्गळम्” (ब्रह्माजी के यागभूमि (वह स्थान जहाँ ब्रह्माजी अनुष्ठान करते हैं) से दयापूर्वक प्रगट हुआ, जो दया का सागर हैं, श्रीवरदराज भगवान के लिये जो उन लोगों की इच्छाओं को पूरा करते हैं जो उन्हें प्राप्त करते हैं)। अर्चक ने उन्हें श्रीतीर्थ, श्रीशठारी, प्रदान किये जिसे उन्होंने स्वीकार कर श्रीवरदराज भगवान को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। जो मन्दिर में थे उन्होंने उनसे मठ में रूकने को कहा। जैसे कि श्लोक में कहा गया हैं:
कदिचित्दिनानि करिशैलवासिनः कमलासकस्यनयनातिधिर्भवन्।
निजपाद पङ्कज रजोभिशेचनर निखिलाश्रितान् विमलायन्नु वाससः॥
(वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कुछ दिनों तक श्रीकाञ्चिपुरम् में निवास किये, श्रिःपति (श्रीमहालक्ष्मी के पति) श्रीवरदराज भगवान के दिव्य दृष्टि; अपने दिव्य चरण कमलों के माध्यम से सभी आश्रितों (जिन्होंने उन्हें प्राप्त किया) को शुद्धस्वभाव वाले बनाये) और वें कुछ दिनों तक वहाँ विराजमान रहे। तत्पश्चात मन्दिर में वैशाख मास के विशाखा नक्षत्र में श्रीवरदराज भगवान का ब्रहमोत्सव प्रारम्भ हो गया। उस उत्सव के तीसरे दिन उन्होंने यह श्लोक गाया
आरूढः पदकेन्द्रमस्य करयोङ्ग्रि त्वयीमर्पयन्
दिव्यैरम्परभूष्णैर्दिनकृतो दीप्तिम् दिवादीपयन्।
मुग्देन्दु स्मितरोचिशा मधुरयन् मुग्धातपत्रश्रियम्
विश्वं पश्यति चक्षुषा विगसतावीदीविहारीहरिः॥
(श्रीवरदराज भगवान अपने दिव्य चरणों को गरुडजी के हाथों पर रखकर कृपाकर पेरिय तिरुवडि (श्रीगरुड़जी) पर विराजमान हुए। उन्होंने स्वयं को दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषणों से सझाया जिससे सूर्य कि चमक भी फीकी हो गयी और दिव्य छत्री पर मोती साझे हुए थे उनके दिव्य मुस्कान से चमक रहे थे। अपनी दिव्य नेत्रों से सब पर कृपा बरसाते हुए गलीयों से गुजरती हुई वें सवारी के साथ गये) श्रीवरदराज भगवान को श्रीगरुड़जी पर विराजमान देखे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भगवान कि पूजा किये और गङ्गैकोण्डान् मण्टप (एक राजा के नाम पर मण्टप) में गये।
एऱुम्बियप्पा श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि पूजा किये
एऱुम्बियप्पा (श्रीदेवराज गुरु स्वामीजी) और कुछ श्रीवैष्णव भगवान की पूजा करने हेतु ब्रहमोत्सव में पधारे थे। आकस्मिक से एऱुम्बियप्पा ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को देख उन्हें साष्टांग दण्डवत किया। जैसे की कहा गया हैं
आरुह्यपदकवृषभमायान्तं वरदम् आदारत् द्रश्तुम्।
गत्वा तदग्रभूमिं नद्राक्षं तत्र देशिकं दृष्ट्वा॥
(एक नीर्धन को निधि मिल जानेसे जितनी प्रसन्नता हो सकती है उससे भी कही अधीक प्रसन्नता आचार्य के दर्शन से एऱुम्बियप्पा को हुयी। यहाँ तक कि वह गरुडारूढ़ श्रीवरदराज भगवान का भी दर्शन करना भूल गये और आचार्य के दिव्यमंगल विग्रह का दर्शन करने लगे), एऱुम्बियप्पा एक मुग्ध हृदय से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। जैसे कि श्रीरामायण में कहा गया हैं “चिरेण संज्ञानं प्रतिलभ्यचैव विचिन्त्यमासा विशालनेत्राः” (बहुत समय के पश्चात माता सीता को चेतना आयी और अपने दिव्य नेत्रों से देखी), वें ३ से ४ नाऴिगै (७२ से ९६ मिनिट) तक अचेतावस्था में थी। उन्हें चेतना आगया और यह महसूस हुआ कि यह ब्रहमोत्सव हैं और पुनः श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि पूजा किये जैसे श्रीसहस्रगीति के ६.५.२ पाशुर में कहा गया है “कुमऱुम् ओसै विऴवु ओलित् तोलैविल्लिमङ्गलम् कोण्डुपुक्कु” (श्रीपरांकुश नायिका (श्रीशठकोप स्वामीजी स्त्री दशा में) को तोलैविल्लिमङ्गलम् ले जा रहे हैं जो उत्सव के कारण एक बड़ी गर्जना कर रहा हैं) और श्रीसहस्रगीति के ६.५.५ पाशुर में “इऴै कोळ् चोदिच् चेन्दामरैक्कण्ण पिरान् इरुन्दमै काट्टिनीर्” (आप जनों ने मुझे वह राह दिखाया जहाँ भगवान, जो अपने दिव्य आभूषणों के कारण प्रसन्न हैं और जिनके कमल जैसे दिव्य नेत्र हैं, बैठे हैं)। तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भी भगवान कि पूजा किये जो श्रीगरुड़जी के साथ हैं जैसे कि इस श्लोक में देखा गया हैं
सुपर्णपृश्ट्रमारूढश्श्यामः पीताम्बरोहरिः।
काञ्चनस्य गिरेः श्रृङ्गे सतडित्तेतोय तोयता॥
(श्रीवरदराज भगवान जो कृपाकर श्रीगरुड़जी के पीछे बैठे हैं और जो नील मेघ के समान वर्ण वाले, पीले वस्त्र धारण करने वाले, सुनहरे पर्वत के शिखर पर बिजली के साथ मेघ के समान चमकने वाले हों)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने एक और पाशुर को गाया जहाँ भगवान श्रीगरुड़जी पर विराजमान हैं:
तरळमुत्तु मणि तवळ नऱपवळम् अरुणरत्न वगै सात्तिये
चङ्गु चक्करमुम् अङ्गैयिल तिगऴ मङ्गै पागन् अरन् एत्तवे
नररुम् ओत्तमरर तिरळुम् एत्तुम् नरवागनन् वरुणन् इन्दिरन्
कडुवु नान्मऱै कोळ् मुनिवर वानवर गुणालमिट्टु नडमाडवे
वरैगळिर पेरिय वडगिरिक्कुमिसै मरदगक्कुवडु पोलवे
वरदर कच्चिनगर वरु तनित् तेरुविल वडगलैक्कु अऴगु पोऴियवे
अरवुतित्त मणि मगुडम उट्र्वोरु अणि पिणक्कुडन् मिऴट्रवे
कनगम् ओत्तदु ओरु वदिवुम् ओत्तिवरु गरुडनिल भवनि वरुवरे
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीवरदराज भगवान जो श्रीगरुड़जी पर विराजमान हैं और काञ्चीपुरम् के दिव्य सड़कों से होकर जा रहे हैं के दिव्य आभूषणों और सुन्दरता का वर्णन किया। उन्होंने स्वयं को मोती और मूँगे कि जंजीरों से अलंकृत किया हैं और अपने दिव्य हाथों में दिव्य शंख और चक्र धारण किये हैं। उनकी प्रशंसा शिवजी कर रहे हैं जिनके आधे रूप में उनकी पत्नी हैं, वरुण, इन्द्र, आदि के साथ विशाल सभाओं इस संसार में लोगों द्वारा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं श्रीवरदराज भगवान ने स्वयं को इसलिये सजाया हैं ताकि संस्कृत के विशेषज्ञ उनकी सुन्दरता में खो जाये और भगवान कि पूजा करने लगे। [श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी अपने तिरुमालै प्रबन्ध में कहते हैं भगवान अपनी पीठ उत्तर कि ओर रखते हुए दक्षीण कि ओर देख रहे हैं]। जब श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै जो परमकारुणिक व्याख्याकार हैं इस पाशुर को समझाया, उन्होंने कहा उन्होंने उत्तरी लोगों को अपनी पीठ दिखा रहे थे जो संस्कृत में विशेषज्ञ हैं ताकि उन्हें आकर्षित किया जा सके क्योंकि उनकी पीठ कि सुन्दरता सामने कि सुन्दरता से श्रेष्ठ हैं)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जब तक उत्सव समाप्त हुआ तब तक कृपाकर वहीं विराजमान हो गये।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/21/yathindhra-pravana-prabhavam-65-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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