श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
काञ्ची में स्थायी रूप से रहने के लिये अप्पाच्चीयारण्णा को नियुक्त करना
उस स्थान के सभी प्रतिष्ठित जन एक साथ हो गये और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कहे “क्योंकि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी दयापूर्वक यहाँ निवास किये और मङ्गळाशासन् किया इसलिये भगवान ने दिव्य विशाखा महोत्सव एक विशिष्ट शैली से आयोजन किया”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उनका समर्थन करते थे और उनके कई निर्देश साझा करते थे. उन्होंने उन्हें उन गतिविधियों के विषय में बताया जिन्हें करना आवश्यक है, उन्हें एक दूसरे के प्रति स्नेहपूर्ण कैसे होना चाहिये और कैसे उन्हें दिव्यप्रबन्ध के साथ पूर्ण रूप से संलग्न होना चाहिये। सभी ने कहा “यह होने दो। उस उद्देश के लिये श्रीमान को किसी को यहाँ स्थायी रूप से रहने और हमें सुधारने के लिये नियुक्त करना चाहिये” जिसे सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी को बुलाकर अप्पाच्चियार् अण्णा को लाने को कहे। जब श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी ने अप्पाच्चियार् अण्णा को लाये तब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अप्पाच्चियार् अण्णा कि ओर बताते हुए कहा “इनके साथ भी ऐसा व्यवहार करें जैसे आप हमारे साथ सम्मानपूर्वक करते हैं” और उन्होंने अप्पाच्चियार् अण्णा से कहा “क्योंकि आप श्रीदाशरथी स्वामीजी के वंश में अवतरित हुए हैं इसलिये उस वंश के प्रतिष्ठित आचार्य जैसे श्रीदाशरथी स्वामीजी, श्रीतोऴप्पर् और अन्य को खुश करें, हमारे शब्दों का पालन करें, इन जनों के लिये जो भी अच्छा हैं वह इन्हें निर्देश करें और एक मङ्गळाशासनपरर् (श्रीवरदराज भगवान का मङ्गळाशासन् करनेवाला) बनकर स्थायी रूप से यहाँ निवास करें”। उन्होंने अप्पाच्चियार् अण्णा के लिये आशीर्वचन के रूप में यह श्लोक का निवेदन किया:
श्रेयस्मि करिशैलेन्द्रः करुणा वरुणालयः।
तोदुह्याद्वरदम्श श्रीमान् अर्थिनां निधिरव्ययः॥
(श्रीवरदराज भगवान जो उन जनों के लिये एक अविरल धन हैं, जो दया के सागर हैं, जो काञ्चीपुरम् के स्वामी हैं और जो श्रीमान हैं आप पर अपनी कृपा को बरसाये)
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर तिरुक्कडिगै और एऱुम्बि के रास्ते तिरुमलै कि ओर प्रस्थान किये
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एऱुम्बियप्पा के साथ तिरुक्कडीगै के लिये प्रस्थान किये जहां उन्होंने पुट्कुऴि पोरेऱु (तिरुपुट्कुऴि में भगवान का दिव्य नाम) भगवान कि पूजा किये। जैसे कि कहा गया हैं
गडिकाचल शेखरं ततो नरसिह्मं नयनेननिर्विशन्।
उदजीवयदर्शितैरजनैरवनीं दामपनीतपन्दनै॥
(तत्पश्चात उन्हें श्रीनरसिह्म भगवान के दिव्य दर्शन प्राप्त हुए जो विशाल कडीगै पहाड़ों के चोटी पर दिव्य आभूषण के समान हैं। कुछ लोगों के साथ जो वहाँ पधारे और उनके दिव्य चरणों के शरण हुए और जिन्होंने संसार से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया था, उन्होंने कृपाकर उस स्थान कि शोभा बढ़ाई), वे तक्कान् कुळम् पहुँचे जिसकी “वण्डु वळम् किळरुम् नीळ् सोलै वण्पूङ्कडिगै” (कडीगै के सुन्दर, मीठी, सुन्दर पहाडियों में विस्तृत बगीचे हैं जहाँ झींगुर के झुंड इक्कटे होते हैं) ऐसे कहकर प्रशंसा किये हैं, भगवान के दिव्य चरणों कि पूजा किये; जो अनुकूल बनकर पधारे उनपर कृपा बरसाये और उनके दिव्य चरणों के शरण हुए, जो आस पास के गाँवों से पधारे। तत्पश्चात उन्होंने कडीगै के विशाल पर्वत पर चढ़े जैसे कि इस पाशुर में कहा गया हैं “मिक्कार् वेदविमलर् विऴुङ्गुम् अक्कारक्कनि” (भगवान जिन्हें अक्कारक्कनि (एक ऐसे पौधे का फल जिसका बीज हीं चीनी हैं) कहकर बुलाते हैं बिना कोई दोष के महान जन जो वेदों के ज्ञानी हैं द्वारा पाया जाता हैं) और तिरुप्पल्लाण्डु के पाशुर “अन्दियम् पोदिल् अरि उरुवागि अरियै अऴित्तवनैप् पन्दनै तीरप् पल्लाण्डु पल्लायिरत्ताण्डेन्ऱु पाडुदुमे” (हम उस भगवान के बारे में गायेंगे जो सांझ के समय एक शेर के रूप में आया और शत्रुओं को नष्ट कर दिया, ताकि वह युगों तक जीवित रहे, ताकि वह हमारे बन्धन को तोड़ दे) का अनुसंधान कर मङ्गळाशासन् किया जाता हैं। फिर वें दयापूर्वक वहाँ से एऱुम्बि कि ओर प्रस्थान किये और वहाँ अपनी कृपा बरसाये। उन्होंने उस स्थान को एक दिव्य नाम प्रदान किया वडतिरुवरङ्गम् (दिव्य उत्तर श्रीरङ्गम्), उन्होंने वहाँ निवास करनेवाले लोगों को अऴगियमणवाळ दास (श्रीरङ्गम् के भगवान अऴगियमणवाळ दास का नाम) कहकर बुलाया। इस तरह उन्होंने तिरुक्कडीगै के समीप श्रीरङ्गम् गाँव का निर्माण किया। क्योंकि वण्पूङ्कडिगै और पण्डेल्लाम् वेङ्गडम् (मून्ऱाम् तिरुवन्दादि का ६१वां पाशुर) के मध्य में एक सम्बन्ध हैं, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उस रत्न का दर्शन करना चाहते थे जो एक सजावटी बिजली के जैसे हैं [यह संदर्भ श्रीवेङ्कटेश भगवान के लिये हैं]। जैसे कि “देवं दिव्यं शेषशैलेशन्तम तद्पादाब्जं वीक्षितुम्” में उल्लेख किया गया हैं कि भगवान कि पूजा करने हेतु जिन्होंने तिरुमला में निवास किया हैं प्रारम्भ में तिरुपति पहुँचे। वहाँ उनका स्वागत आचार्यपुरुषों ने किया जो उनकी पूजा करते थे। तिरुपति में गोविन्द भगवान के दिव्य चरणों कि पूजा करने हेतु उन्होंने पहिले श्रीरामानुज स्वामीजी कि पूजा किये। तत्पश्चात वें गोविन्द भगवान कि सन्निधी में गये जिनकी विग्रह को श्रीरामानुज स्वामीजी ने स्थापित किया और बड़े प्रेमसे पूजा करते थे। उन्होंने गोविन्द भगवान के गुणों कि प्रशंसा कर और मङ्गळाशासन् किया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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