यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ६७

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सभी श्रीवैष्णव सहित तिरुमला के पहाड़ों की ओर प्रस्थान किये और वहाँ श्रीशठकोप स्वामीजी और अन्य आऴ्वारों की पूजा किये। उन्होंने तिरुवाय्मोऴि नूट्र्न्दादि ६० के पाशुरों से “उलगुय्य माल निन्ऱ…मगिऴमाऱन् ताळिणैये चरणाग नेञ्जमे उळ ” (हे हृदय! हर्षित श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरणों को अपनी शरण माने जिन्होंने संसार के उत्थान के लिये श्रीवेङ्कटेश​ भगवान के प्रति समर्पण किया जो वहाँ पहाडियों पर खड़े हैं) और तिरुवाय्मोऴि नूट्र्न्दादि २३ से “ओऴिविल्कालमेल्लाम्… मिक्क नलम् सेर माऱन् पूङ्ग​ऴलै नेञ्जे पुग​ऴ् ” (हे हृदय! श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य गुणों कि स्तुति करें जिन्होंने बिना किसी रुकावट के श्रीवेङ्कटेश भगवान कि सेवा किये) से गाया। उन्होंने वहाँ के जनों पर कृपा बरसाते हुए पूरी रात निवास किया। अगले दिन उन्होंने श्रीवेङ्कटेश भगवान कि पूजा किये जो “तिलदम् उलगुक्काय निन्ऱ” (संसार के लिये एक सजावटी स्थान के समान खड़े हैं) के समान हैं। जैसे कि श्रीसहस्रगीति के ३.३.१० में कहा गया हैं “मोय्त्त सोलै मोय पून्दडम् ताऴ्वरे” (ढलान वाले पहाड़ियाँ जीनमें घने उपवन और जल निकाय हैं), श्रीपेरियतिरुमोऴि के १.९.२ “तेने पोऴिल् सूऴ् तिरुवेङ्गडम् मामलै ” (तिरुमला की महान पहाड़ियाँ जो भृंगों से भरे फूलों के बागों से घिरी हुई हैं) और “अपराकृतमेयञ्च सर्वरत्न मयं गिरिं हिरण्यमय महाशृङ्गं पञ्चोपनिषदात्मकम्” (तिरुमलै जो पाँच उपनिषद से भरी हुई हैं, जो की अपराकृतम् (प्रार्थमिक पदार्थ के विपरीत) हैं, किसी भी माप से परे और शिखर वाले जो सुनहरे रंग के हैं और रत्नों से भरे हुए हैं); उन्होंने श्रीभक्तिसार आऴ्वार् के दिव्य, अद्भुत, स्वरूप कि पूजा किये (आऴ्वार् शब्द यहाँ पहाड़ियों के दिव्यता को संदर्भित करता हैं) और पहाड़ों पर चढ़े जो सीढ़ीयों के समान प्रतीत होता हैं जो परमपदधाम तक पहुँचने के लिये बनाये गये थे। पहाड़ पर ऊपर जाते समय उन्होंने काट्ट​ऴगिय चिङ्गर्  (श्रीनरसिङ्ग​ भगवान) कि पूजा किये, जल के प्रवाह का आनन्द लेते हुए, जो शहद के धारा के रूप में दिखाई देता हैं, तिरुमला कि ऊंची चोटीयां जो आकाश तक पहुँचती प्रतीत होती हैं, पहाड़ जो बिजली को विश्राम स्थल लगती हैं, शीतल बगीचों कि शोभा, कमल पुष्प के सरोवर जिसमे मधु कि धारा बहती प्रतीत होती हैं। उन्होंने वहाँ जंगलों और शहरों का आनन्द लिया जो श्रीवैकुंठ के समान दिखाई दिया और उस स्थान के निकट पहुंचे जो श्रिय:पति को बहुत पसंद हैं। जैसे कि नान्मुगन तिरुवन्दादि के ४७वें पाशुर नन्मणि वण्णन्  में कहा गया हैं (जिनका स्वरूप नीले रंग के रत्न के समान हैं), वहाँ कि दुर्लभ घटनाओं को देख उन्हें आश्चर्य हुआ। शहर के प्रवेश में उन्होंने पूजा किया। उस समय मंदिर के जीयर स्वामीजी और वैष्णवों जो तिरुमला में रहते हैं और साथ हीं अन्य जन उनका स्वागत करने हेतु पधारे और उन्हें साष्टांग दण्डवत किया। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उन्हें नित्यसूरि समझा और उनके संग उस शहर में प्रवेश किया। उन्होंने कई प्रवेश द्वार जैसे दिव्य वैकुंठ द्वार, दिव्य अवावऱच्चूऴ्न्दान् तिरुवासल , आदि को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। वे मन्दिर कि प्रदक्षीणा करते हुए गये, उस दिव्य वन कि पूजा किए जिसे श्रीअनन्दाऴ्वान् स्वामीजी ने बनाया और जिसे ईरामानुसन् नाम प्रदान किया। वें अपने दिव्य मन में बहुत प्रसन्न थे। तिरुक्कोनेरि के दिव्य पुष्करनी में उन्होंने दिव्य स्नान किया, द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किया और श्रीवराह भगवान कि पूजा किए जो क्षेत्रादीपति हैं। उन्होंने पेरुमाळ् तिरुमोऴि के ४वें दशक ऊनेऱु सेल्वत्तु  को गाया [जहाँ श्रीकुलशेखर आऴ्वार् यह इच्छा प्रगट करते हैं कि वें एक निर्जीव वस्तु जैसे एक स्तम्भ जैसे जन्म लेवे या मन्दिर कि ओर जानेवाली राह या मन्दिर के भीतर कि सीढ़ीयां या पक्षीयाँ, आदि ताकि वें निरन्तर तिरुमला में निवास कर सके]। उन्होंने उन निर्जीव वस्तुओं से प्रार्थना किये जिन्हें श्रीकुलशेखर स्वामीजी ने बताया साथ ही साथ कई पक्षी, स्तम्भ, आदि। उन्होंने मुख्य मन्दिर के समीप साष्टांग दण्डवत कर मन्दिर में प्रवेश किया और अऴगियमणवाळ​ मण्डप जो एक विशाल कक्ष हैं जहाँ श्रीरङ्गनाथ भगवान ने श्रीरङ्गम् में आक्रमण के समय निवास किया था कि पूजा किये। जैसे कि श्लोक में कहा गया हैं 

श्रीमतिमहद्वराधीर सिञ्चां काञ्चनमयञ्च बलिपीठम्।
स्थानमध्यामुनेयं चम्पकतरु सम्पतं प्रतीहारम्॥
विनतातनय महानस मणिमण्टपं कनकमय विमानवरम्।
पृतनापति यतिदुर्यौ नरहरिमतनमत जानकीजानिम्॥

(आप प्रवेश द्वार में सुनहरे बलीपीठ, फिर पुष्पक मण्टप जिसे यमुनैत्तुरैवर कहा जाता हैं, सेण्बागा पेड़ के समीप सेण्बगत्तिरुवासल, गरुडजी, दिव्य रसोई घर, तिरुमामणि मण्टप, सुनहरे आनन्द विमान, श्रीविश्वक्सेनजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, नरसिंह भगवान। फिर श्रीराम भगवान कि पूजा करे)। 

अथपुनरनक मणिद्युति कवचित कमलानिवास भुजमध्यम्।
कलयत कमल विलोचनम् अञ्जन गिरि निधिम् अनञ्जनं पुरुषम्॥

(फिर शायद आपको श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य दर्शन प्राप्त हो, जिनके पास दिव्य स्तन हैं जो निर्दोष रत्नों से निकलनेवाले तेज से व्याप्त हैं और जहां श्रीमहालक्ष्मीजी निरन्तर निवास करती हैं, जिनके दिव्य नेत्र लाल कमल पुष्प के समान हैं, जो सांवले पहाड़ों के खजाने हैं, जो सभी दोषों के विपरीत हैं और जो परमपुरुष हैं) 

शरणमयम् इत्यङ्ग्रिं निर्दिश्य दक्षिणपाणिना
    करकिसलयं सव्यं सव्योरुसीम्नि समर्पयन्।
मणिगणमहोमग्ने वक्षस्थले ततदिन्दिराम्
   भवतपिमत श्रीमानस्मागमस्तु परम्पदम्॥

(वह श्रीवेङ्कटेश भगवान, जो सबसे वांछित इकाई हैं, जो आपको अपने दिव्य दाहिने हाथ के माध्यम से दिखा रहे हैं कि ये दिव्य पैर आपके लिए मोक्ष का साधन हैं (श्रीवैकुंठ), जो अपने दिव्य बाएं हाथ को रखे हुए हैं जो एक कोमल पत्ते की तरह है बाईं ओर दिव्य जांघ क्षेत्र, जो रत्नों की चमक में डूबी दिव्य छाती पर श्रीमहालक्ष्मी को संभाले हुए है, प्राप्त करने के लिए हमारा सर्वोच्च स्थान है)। उन्होंने इस क्रम से पूजा किये अत्ताणिप्पुळि, श्रीबलीपीठ, दिव्य पुष्प कक्ष जिसे यमुनैत्तुऱैवर् का नाम दिया गया हैं, दिव्य प्रवेश सेण्बागा, गरुडजी, दिव्य रसोई घर, तिरुमामणि मण्टप, और दिव्य आनन्द विमान। फिर उन्होंने श्रीविश्वक्सेनजी कि पूजा किये। फिर उन्होंने इरामानुस नूट्रन्दादि के पाशुर निन्ऱवण् कीर्तियुम् नीळ्पुनलुम् निऱैवेङ्गडप्पोऱकुन्ऱमुम् (तिरुमला जहाँ चिरस्थायी महान प्रसिद्धि, प्रचुर जलस्रोत और सुन्दर दिव्य पहाड़ियाँ हैं), इरुप्पिडम् वैकुन्दम् वेङ्गडम् (भगवान के निवास स्थान जैसे श्रीवैकुंठ, तिरुमला, आदि), को गाया और भगवान कि भी पूजा किये। भगवान कि आज्ञा पाकर उन्होंने कृपाकर वहाँ से प्रस्थान किया, तूणाय् अदनूडु अरियाय्  पाशुर का अनुसन्धान किया और तिरुमला में नरसिंह भगवान कि पूजा किये, दयापूर्वक वेन्ऱु मालैयिट्टान् तिरुमण्टपम्  पहुँचे और ताये तन्दैये  प्रारम्भ कर नायेन् वन्दडैन्देन् नल्गियेन्नै आट्कोण्डरुळे तक पाशुर का अनुसन्धान किया। फिर उन्होंने गर्भगृह में प्रवेश कर भगवान श्रीराम के श्रीचरणों तक पहुँचे। वें फिर कुलशेखर (जिन्हें श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य चरणों में प्रवेश करने कि तीव्र इच्छा थी) पड़ी (श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य विग्रह के सामने कि सीढ़ी) तक पहुँच श्रीसहस्रगीति के पाशुर अडिकीऴ् अमर्न्दु पुगुन्दु  का अनुसन्धान किया। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/23/yathindhra-pravana-prabhavam-67-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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