यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ६८

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

<< भाग ६७

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने फिर इस पाशुर को रचा और अनुसन्धान किया 

तिरुमगळ् मरुवुम् इरुपदम् मलरुम् मुऴन्दाळ्कळुम् कुऱङ्गुम् ताङ्गु
चेक्कर् अम्मामुगिल् पोलत् तिरुवरैच् चेम्बोनम्बरमुम्
अरुमैसेर् सीरावुम् अयनैत् तन्ददोर् उन्दियुम् अमुदमार् उदरबन्दनमुम्
अलर्मेल् मङ्गै उऱै तिरुमार्वमुम् आरमुम् पदक्क नन्निरैयुम्

पेरुवरै अनैय बुयम् ओरु नाङ्गुम् पिऱङ्कडलाऴियुम् चङ्गुम्
पेऱु तिवम् एन्ऱु काट्टिय करमुम् पिडित्तदोर् मरुङ्गि निऱक अऱमुम्

ओरुमदि एनवे सोदि सेर् मुगमुम् उयर् तिरुवेङ्गडत्तु उऱैयुम्
ओप्पिला अप्पन् करुणै सेर् विऴियुम् एन्नुळेलाम् निऱैन्दु निन्ऱनवे

(दिव्य चरण जो पुष्प के समान कोमल हैं और जिनका श्रीमहालक्ष्मी द्वारा निरन्तर ध्यान किया जाता हैं; दिव्य घुटने; दिव्य जांघे; दिव्य कमर जो दिव्य सुनहरे रंग के वस्त्र (कमर के चारों ओर वस्त्र) का समर्थन करती हैं जो एक विशाल लाल रंग के बादल के समान हैं; दिव्य नाभी जहां ब्रह्माजी का जन्म हुआ; कमर पर दिव्य रेखाएँ (जब माता यशोदा ने भगवान श्रीकृष्ण को ओखली से बाँधा था) जो अमृत के समान हैं; दिव्य छाती जहाँ श्रीमहालक्ष्मीजी निरन्तर विराजमान होती हैं; दिव्य हार, पेंडेंट और अन्य आभूषण जो भगवान पहिने हुए हैं; चार कंधे जो विशाल पर्वत के समान हैं; चमकदार, विजयी दिव्य चक्र और शंख; दिव्य हस्त जो परमपदधाम कि ओर इशारा करता हैं जिसे प्राप्त करना हैं; दीप्तिमान दिव्य चेहरा जो चंद्रमा की समान हैं; तिरुमला मे निवास करनेवाले अतुलनीय भगवान के दिव्य नेत्र जो दया स्राव का करते हैं – यह सभी गुण इन्हें पूर्ण बनाने के लिये मेरे मन कि छबी में निवास किये हैं)। जैसे कि पाशुर में कहा गया हैं उन्होंने दिव्य श्रीचरणों से लेकर दिव्य श्रीमुकुट तक श्रीवेङ्कटेश​ भगवान के दिव्य स्वरूप का आनन्द प्राप्त किया। आगे उन्होंने श्रीवेङ्कटेश​ भगवान के दिव्य रूप का दिव्य श्रीचरणों से लेकर दिव्य श्रीमुख तक विभिन्न दिव्य प्रबन्धों के पाशुरों को स्मरण किया जैसे अलङ्गल् (तुलसी माला से सुशोभित दिव्य मुकुट), तिरुत्तिय कोरम्बैयुम्   (ललाट पर रखा आलंकारिक चिन्ह), सुट्रुम् ओळिवट्टम् सूऴ्न्दु सोदि परन्द कोळिऴैवाळ् मुगम् (चारों ओर दीप्ति के साथ दिव्य चेहरा), तन्मुगत्तुच् चुट्टि (ललाट पर एक सजावटी आभूषण) उस चेहरे पर, माथे पर धारण किया हुआ दिव्य ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक, कोल नीळ्कोडि मूक्कु (सुन्दर नाक जो लता के समान लम्बी होती हैं), तामरैक् कट्कनिवाय् (कमल समान मधुर मुख), वार्कादिले सात्तिन इलगु मकर कुण्डलम्  (दिव्य कानों कि बूंदे जो सुन्दर कानों में होती हैं, जो मछली के आकार कि होती हैं), दिव्य कण्ठ (गला) जिससे उन्होंने पूर्ण संसार को निगल लिया था जैसे कहा गया हैं उलगम् उण्ड पेरुवाया (ओ विशाल मुखवाले जिन्होंने पूर्ण संसार को निगल लिया था), उसे दिव्य गले में हार, वह दिव्य छाती जहां अम्माजी विराजमान होती हैं, पवळवाय्प् पूमगळुम् (भूदेवी) और पन्मणि पूणारमुम् (कई प्रकार के रत्नों से बने आभूषण) का मिलन, दिव्य यज्ञोपवित, दिव्य सुन्दर भुजाओं और तुलसी कि सुगंधीत माला, दिव्य हाथ में दिव्य शंख को दाहिनी ओर घूमा रहे हैं, दिव्य पेट (जठर), उय्य उलगु पडैत्तुण्ड मणिवयिऱु (दिव्य सुन्दर पेट जिसने संसार को उनकी रक्षा के लिये निगल लिया) के रूप मे उल्लेख किया गया हैं। पेट पर दिव्य निशान, तिरु उदर बन्धनम्  जहां माता यशोदा ने रस्सी से बांधा था, फिर कमर बंध, सुनहरी कमर बंध, चोटी घंटीयों का कमरबंद, पीला दिव्य कटीवस्त्र, पुष्प के समान कोमल चरण और उन पर पैंजनी कि घंटीया बजाना। श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य दर्शन श्रीमुख से लेकर श्रीचरणों का आनन्द प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने तिरुप्पल्लाण्डु को गाया और उनका मङ्गळाशासन् किया। क्योंकि उनके पास पर्याप्त नहीं था उन्होंने आगे इस श्लोक में गाया 

मङ्गळं मानुषेलोके वैकुण्ठम् अतितिष्ठते।
शेषशैल निवासाय श्रीनिवासाय मङ्गळम्॥

(श्रीवेङ्कटेश भगवान को यह मंगल होने दो जो कृपाकर तिरुमला जो इस मनुष्य लोक में श्रीवैकुण्ठ हैं में निवास कर रहे हैं)। उन्होंने श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य चरण सभी के लिये शरण हैं ऐसा बताया जैसे बताया गया हैं अडिकीऴ् अमर्न्दु पुगुन्दु अडियीर् वाऴ्मिन्  (भगवान के दिव्य चरणों के शरण होना) (तिरुवाय्मोऴि नूट्रन्दादि पाशुर ६०) जैसे कि आज भी अनुयायी द्वारा निम्म लिखित श्लोक का अनुसंधान किया जाता हैं: 

सौम्योपयन्तृमुनिना ममदर्शितौते 
श्रीवेङ्कटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये 

(मैं श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य चरणों के शरण होता हूँ जिन्हें कृपाकर हमारे आचार्य श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने शरण लिया हैं)। भगवान भी जैसे मलैमेल् तान् निन्ऱु एन् मनत्तुळिरुन्दान्’ में कहा गया हैं (पहाड़ के ऊपर खड़े होकर, वह मेरे  दिव्य मन में रहे) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को प्राप्त करने के पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य मन को अपना निवास स्थान बनाना चाहते थे जैसे कि “श्रीमत्सुन्दरजामातृ मुनिमानस वासिने” में कहा गया हैं (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य मन में निवास करने वाले)।  श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भगवान के वात्सल्य आदि अतुलनीय गुणों से हार गये और उन गुणों में तल्लीन हो गये। वें सम्पूर्ण कैङ्कर्य के लिये प्रार्थना कर रहे थे जैसे द्वय महामन्त्र के दूसरी पंक्ती में उल्लेख किया गया हैं। उन्हें श्रीतीर्थ, श्रीशठकोप प्रदान किया गया और वें बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने वहाँ कुछ समय के लिये निवास किया जैसे कहा गया हैं गतिचनदिवसानि धाम्नि तस्मिन् कमलविलोचनमेनम् ईक्षमाणाः (कमल नयन वाले भगवान कि पूजा कर वें उस स्थान में कुछ समय के लिये निवास किया)। उन्होंने वहाँ आये भक्तजनों पर कृपा बरसाये और कहा कि यह नित्यसूरियों का पहाड़ हैं। वें उस स्थान के सभी उत्सवों में उपस्थित थे और हर समय वहाँ पूजा किये। जब वें वहाँ से प्रस्थान कर रहे थे वहाँ मौजूद सभी जनों ने उन्हें कहा “जीयर् को किसी को नियुक्त करना चाहिये जो भगवान कि सेवा के प्रति समर्पित हो”। जीयर् ने रामानुज जीयर् को इस कार्य के लिये नियुक्त किया। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/24/yathindhra-pravana-prabhavam-68-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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