श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
तिरुमलैयोऴुगु मन्दिर में घटना और प्रथाओ पर तिरुमला मन्दिर द्वारा अनुरक्षण और अद्यतन किया गया एक ग्रन्थ हैं और इस नियुक्ति का विवरण दिया गया हैं [श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा चिऱिय केळ्वि जीयर् ]। श्रीरामानुज स्वामीजी के समय श्रीवेङ्कटेश भगवान के धन को रक्षा और प्रशासन करने हेतु श्रीरामानुज स्वामीजी ने जीयर् स्वामीजी को नियुक्त किया जिनका नाम श्रीसेनापती जीयर् हैं। यह श्रीअनंताचार्य द्वारा लिखित श्रीवेङ्कटाचल इतिहासमालै में उल्लेख हैं। फिर स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी ने उन योगी को सन्यासाश्रम प्रदान कर उन्हें एक दिव्य नाम दिया अप्पन तिरुवेङ्कट शठकोप जीयर् और उन्हें मन्दिर की व्यवस्था देखने को कहा। उन्होंने इतिहासमालै के अनुसार जीयर् के इस कैङ्कर्य में सहायता के लिये चार एकांगी को नियुक्त किया। इन जीयर् को कोयिल केळ्वि जीयर् नाम कि उपाधि भी दी गई थी। तत्पश्चात यह ज्ञात हुआ कि वहाँ दो जीयर थे पेरिय केळ्वि जीयर् (जेष्ठ जीयर्) और चिऱिय केळ्वि जीयर् (कनिष्ठ जीयर्) जहां कनिष्ठ जीयर् एक राजा के लिये युवराज के समान अभिनय करता हैं। यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् यह कहता हैं कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कुछ समय के लिये तिरुमला में निवास किये। वह समय सीमा एक से दो साल कि हो सकती हैं। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के समय के पश्चात रामानुजार्य दिव्याज्ञा के मार्गदर्शन में श्रीरङ्गम् , तिरुमला जैसे मंदिरों के प्रशासन का व्यवस्थित तरीका इन स्थानों पर विदेशी ताकतों के आक्रमण के कारण खो गया था। तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के समय रामानुजार्य दिव्याज्ञा का पुनः वरवरमुनि दिव्याज्ञा के रूप में स्थापित किया। मन्दिर के भीतर पत्थर के शिलालेख १४४५ ईसवी काल में “कोयिल केट्कुम् एम्पेरुमनार् जीयर्” (एम्पेरुमनार् जीयर् जिन्हें मन्दिर द्वारा सुना जाता हैं) का एक सन्दर्भ हैं। यह स्पष्ट हैं कि यह जीयर् स्वामीजी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा नियुक्त किये गये हैं जिनकी अवधी १३७१-१४४३ ईसवी काल हैं। क्योंकि वें श्रीपरकाल स्वामीजी के मन्दिर के अभिभावक थे, शिलालेख से यह अनुमान लगाया जा सकता हैं कि वें हीं स्वयं चिन्न जीयर् स्वामीजी (कनिष्ठ जीयर) थे। १९५३ में तिरुमलै तिरुप्पति देवस्थान द्वारा प्रकाशित तिरुमलैयोऴुगु को तिरुमलै तिरुप्पति ऐतिह्यमालै के नाम से भी जाना जाता हैं, यह कहा जाता हैं कि “३७९ शताब्दी, विकारी वर्ष, पौष मास में भगवद श्रीरामानुज स्वामीजी ने अप्पन् शठकोप जीयर् स्वामीजी को कोयिल केळ्वि जीयर् ऐसे ताज पहनाया” और उन्होंने यह मन्दिर का कैङ्कर्य ४५ वर्ष तक किया। तत्पश्चात जय वर्ष में अऴगियमणवाळ जीयर् को उनके सहायक के रूप में नियुक्त (प्रकाशन के पान नo:-१२५ में) किया गया था। उसी ग्रन्थ के पान नo:-१०४ में यह लिखा गया हैं कि “पहिले के दिनों में श्रीरामानुज दार्शनम प्रवर्थकर के श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपाकर तिरुप्पति पधारकर उस देश के राजा को मिलकर उसे आशिर्वाद दिया।” यह सोचते हुए कि श्रीवेङ्कटेश भगवान के मन्दिर को एक स्थलादीपति (स्थान के प्रमुख) के रूप में एक उत्तमाश्रमि (एक सन्यासी) कि आवश्यकता हैं जो अन्य धर्मों के बाधाओं को दूर करने में सक्षम होगा, जैसे उनके शिष्य श्रीरङ्गनारायण जीयर् श्रीरङ्गम् में भण्डार के प्रभारी का काम कर रहे हैं वैसे हीं उन्हें यहाँ एक जीयर् चाहिये जो भक्तों के अनुकूल हो और अन्य धार्मिक जनों के प्रतिकूल हो। उन्होंने उस स्थान के राजा कि अनुमती प्राप्त कर कोयिल केळ्वित् तिरुवेङ्गड जीयर् को अर्चक नियुक्त किया, सभी मन्दिर के कर्मचारी और स्थल निर्वागी (स्थान के नियंत्रक) आऴ्वार् गोविन्द जीयर्, एक एकांगी को अपने अधीन नियुक्त किया। वें उन सभी जनों के लिये शिक्षक, रक्षक थे जो उनके अधीन थे, तिरुमला के धन के लिये वर्तक थे और उस स्थान के राजा के लिये धर्मोपदेश्ठा (वह जो धर्म के मार्ग में नेतृत्व करता हैं) थे। उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी कि दिव्य छवि एक अंगूठी के रूप में बनाई जो जीयर् स्वामीजी के लिये आधिकारिक मुहर के रूप में दी और उन्हें इसे पहनाया। उन्होंने मन्दिर कि घण्टी, गायों और ध्वजों को जीयर् स्वामीजी के नियंत्रण में कर दिया। उन्होंने जीयर स्वामीजी को कैङ्कर्य के लिये किदर भी जाये तो घण्टी और ध्वज को साथ लेकर जाने को कहा। उन्होंने श्रीरामानुजपुरम में जीयर् स्वामीजी के लिये उनके उपयोग हेतु एक मठ का निर्माण किया। फिर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी दयाकर श्रीरङ्गम् के लिये लौट गये।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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