यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ७१

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीपरकाल स्वामीजी का  मङ्गळाशासन्  करने के पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने वयलाळि मणवाळन् (तिरुवालित तिरुनगरी में भगवान) जो श्रीपरकाल स्वामीजी को प्रिय थे कि पूजा किये। वें फिर दयाकर तिरुमणङ्गोल्लै (वह स्थान जहां भगवान ने श्रीपरकाल स्वामीजी को तिरुमन्त्र का उपदेश दिया था) कि ओर गये और यह पाशुर कि रचना किये: 

इदुवो तिरुवरसु? इदुवो मणङ्गोल्लै?
इदुवो एऴिलालि एन्नुमूर्? इदोदान्
वेट्टुङ्कलियन वेलै वेट्टि नेडुमाल्
एट्टेऴुत्तुम प​ऱित्तविडम्

(क्या यह दिव्य पीपल का पेड़ हैं? क्या यह तिरुमणङ्गोल्लै हैं? क्या यह तिरुवालि समान सुन्दर प्रदेश हैं? यह वास्तव में वह स्थान हैं जहां लोगों को डरानेवाले श्रीपरकाल स्वामीजी ने अपना भाला दिखाया और तिरुमन्त्र को सर्वेश्वर से छीन लिया)। 

उन्होंने अपने दिव्य मन में यह निश्चय किया कि उन्हें तिरुक्कण्णपुरम् कि ओर प्रस्थान करना चाहिये जिसे श्रीपरकाल स्वामीजी ने अपने पेरिय तिरुमोऴि ” नीणिला मुट्रत्तु निन्ऱवळ् नोक्किनाळ् काणुमो कण्णपुरम् एन्रु काट्टिनाळ् ऐसे समझाया हैं (परकाल नायकी [श्रीपरकाल स्वामीजी स्त्री भाव में] छज्जे के ऊपर खड़ी होगयी और दूर से तिरुक्कण्णपुरम् के मन्दिर के दर्शन करी और अपनी सहेलियों को दिखाते हुए कहे कि यह वात्सव में तिरुक्कण्णपुरम् हैं)। तुरन्त हीं वें आग्रह के साथ चले गये और दयापूर्वक तिरुक्कण्णपुरम् पहुँचे। उन्होंने सौरीराजन् (तिरुक्कण्णपुरम् में उत्सव भगवान का नाम) कि पूजा किये जो सांवले पहाड़ समान दिखते थे और जिनकी हर अंग सुन्दर दिखता हैं। उन्होंने दयापूर्वक श्रीपरकाल स्वामीजी के विग्रह को वहाँ प्रतिष्टित किया जिनके लिये कण्णपुरत्तान् (तिरुक्कण्णपुरम् के भगवान) का दास होना हीं उनकी पहचान हैं। उन्होंने फिर दयापूर्वक तिरुनरैयूर् गये और नम्बी (तिरुनरैयूर् के भगवान जो सभी पहलू में सम्पूर्ण हैं) और नाच्चियार् कि पूजा किये। वें तिरुक्कुडन्दै (आज के समय का कुंबकोणम्) पहुँचे जहां लाल रंग के रत्न हैं। वें आरावमुदाऴ्वार् (वहाँ के भगवान) कि एरार् कोलत्तिरुवुरुवु के सुन्दर दिव्य रूप में पूजा किये। उस स्थान को छोड़कर वें तेन्तिरुप्पेरै पहुँचे जिसे तिरुमाल् सेन्ऱु सेर्विडम् (दिव्य स्थान जहां भगवान पहुँचे) ऐसे गाया जाता हैं और तिरुप्पेर् नगर् कि पूजा किये। इसके पश्चात जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं 

दिव्यानि तत्र नगराणि दिगन्तरालेर् देवेनयानि हरिणा विषयीकृतानि
सत्यं त्वदीक्षण समर्थ महोत्सवानि धन्यानि तानि जगतश शमयम्त्वकानि

(जिस भी दिव्य स्थान में भगवान विराजमान हैं उन दिव्य स्थानों में विशेष उत्सव होते हैं और वें दिव्य स्थान संसार के सभी पाप को मिटा देते हैं), वें कृपाकर अन्य दिव्य स्थानों में गये और मङ्गळाशासन्  किये। फिर उन्होंने कृपाकर श्रीरङ्गम् के लिये प्रस्थान किये जैसे कि कहा गया हैं “एष ब्रह्म प्रविष्ठोस्मि ग्रीश्मे शीतमिवह्रतम्” (मैं उन परब्रहम में डुब गया हूँ जैसे कोई गर्मी के मौसम में तालाब में डुब जाता हैं) 

अप्पाच्चियारण्णा को श्रीरङ्गनाथ​ भगवान के मन्दिर के लिये ठहराते हैं 

वें श्रीरङ्गम् में अपने निवास स्थान में पहुँचे और श्रीरङ्गनाथ​ भगवान कि पूजा किये। जैसे कि इस श्लोक में कहा गया हैं 

चित्राणि दीप्त्तर रत्नविभूषणानि छत्राणि चामरयुगं व्यजनासनानि
तन्नामलाञ्चनयुदानि तदौ तथैव रङ्गादिपाय दयिता सहितायतस्मै

(उन्होंने तुरन्त निम्नलिखित: उन अऴगिय मणवाळन् को प्रस्तुत किया जो अम्माजी के साथ थे अद्भुत, उज्जवल, रत्न जड़ित दिव्य आभूषण जो अऴगिय मणवाळन् के दिव्य नाम के साथ दिव्य शंख और चक्र के प्रतीक के साथ थे; दिव्य, सफेद, शाही छत्रीयाँ; सजावटी सिंहासन), उन्होंने अपने साथ जो वस्तु [जब वें दिव्य यात्रा पर थे तब उन्हें प्राप्त हुए थे] लेगये व सभी भगवान को अर्पण कर दिया – दिव्य आभूषण, दिव्य सफेद छत्री, दिव्य पङ्खा, दिव्य कपड़े का पंखा, माणिक से बना कालीन, दिव्य समर्थन, आदि। भगवान ने उन्हें श्रीतीर्थ, श्रीशठारी, आदि प्रदान किये और उत्तम नम्बी (प्रदान अर्चक) से कहे अन्य मन्दिर के कार्यकर्ता सहित श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के साथ जाये और उन्हें उनके मठ तक छोड़ कर आये। उन्होंने नम्बी को अष्टादश​वाध्यम् (अठाहरा भिन्न प्रकार के संगीत बाद्ययंत्र) लेकर और पालकी महोत्सव के जैसे जाने को कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने मठ में पहुँचने के पश्चात अप्पिळ्ळै, तिवाऴि आऴ्वार् पिळ्ळै और अन्य विशेष जनों पर और श्रीवैष्णव कैङ्कर्यपरर् (मठ कि सेवा करने वाले) पर अपनी कृपा बरसाये। उन्होंने सभी दिव्य स्थानों से लाये श्रीतीर्थ और श्रीप्रसाद सभी को कृपाकर प्रदान किये। 

उन्होंने फिर श्रीअप्पाचारियण्णा  को बुलाकर कहे जैसे पहिले भी उल्लेख हैं कि काञ्चीपुरम् में श्रीवरदराज भगवान के मन्दिर का कैङ्कर्य करना। श्रीअप्पाचारियण्णा व्यग्र हो गये और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से पूछे “क्या यह कैङ्कर्य और गोष्टी छोड़ना मुमकिन हैं?” श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें अपनी सन्निधी में ले गये और उन्हें ताम्बे का घड़ा प्रदान किया जिसे उन्होने रामानुसन नाम दिया था जो अब घिस गया हैं और जिसे श्रीवानमामलै जीयर् अपने डलिया में रखते थे क्योंकि यह पहिले श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपयोग करते थे। इस पर रामानुसन नाम और दिव्य शंख और चक्र चिन्ह जो अंकित हुए थे अब लंबे समय के कारण मिट गये हैं। उन्होंने श्रीअप्पाचारियण्णा से कहा “इसका प्रयोग करके आप दो विग्रह बनाये जो हम दोनों से मिलते जुलते हो। एक अपने आचार्य को देना और दूसरे स्वयं अपने पास रखना”। उन्होंने अण्णा को अपने मन्दिर (स्थान जहां तिरुवाराधन भगवान के विग्रह को रखी जाती हैं) से एन्नै तीमणम् केडुत्तार्  कि विग्रह भी दिये और उन्हें कहा “यह विग्रह पहिले श्रीआट्कोण्डविल्ली जीयर् स्वामीजी के तिरुवाराधन भगवान थे। क्योंकि आप कन्दाडैयाण्डान् के वंश से हैं आप पूर्णत: इन तिरुवाराधन भगवान कि सेवा करने में योग्य हैं”। उन्होंने फिर गोष्टी में गये और यह श्लोक को गाया 

श्रीतीर्थ देवराजार्य तनयाम्बेदि विश्रुता​।
तस्यास्तनूजो वरदः काञ्चीनगर भूषणः॥

(वरदाचार्य (श्रीअप्पाचारियण्णा) जो आच्चि (तिरुमञ्जनमप्पा कि पुत्री) के पुत्र हैं जो तिरुमञ्जनमप्पा कि पुत्री हैं उन्हें देवराजार्यर् कहकर बुलाते हैं और अम्बा काञ्चीपुरम् कि आभूषण हैं) बहुत स्नेह से दयापूर्वक उन्होंने कहा श्रीवरदराज भगवान आच्चि के पुत्र रूप में अवतार लिये हैं। उन्होंने अण्णा से “निरन्तर मन्दिर में कैङ्कर्य करते हुए निवास करिये”। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/27/yathindhra-pravana-prabhavam-71-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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