यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ७४

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीरङ्गनाथ भगवान श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को भगवद विषयम् पर कालक्षेप करने कि आज्ञा करते हैं 

श्लोक के अनुरूप 

ततः कदाचित् आहूय तमेनं मुनिपुङ्गवम्!
सत्कृतं साधुसत्कृत्य चरणाब्ज समर्पणात्
सन्नितौ मेनिषीतेति शशासमुरशासनः
महान्प्रसाद इत्यस्य शासनं शिरसावहन्
तदैवत्र व्याख्यातुं तत्क्षणात् उपचक्रमे
श्रीमति श्रीपतिस्स्वामि मण्टपे महतिस्वयम्
तद्वन्तस्य प्रबन्दस्य व्यक्तन्तेनैव दर्शिनम्
शठवैरिमुखैः श्रृण्वन् देशिकैर्दिव्यदर्शनैः
अथ दिव्यमुनेस्तस्य महिमानम् अमानुषम्
अनुभूयेममापाल गोपालम् अखिलो जनः
अमन्यत परम्धन्यम् आत्मानं तत्र निक्षिपन्

(कुछ समय पश्चात श्रीरङ्गनाथ  भगवान जो नित्यसूरियों के स्वामी हैं  श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को बुलाते हैं जो यतियों के स्वामी हैं और उन्हें श्रीशठारी से सम्मानीत कर उन्हें आज्ञा किये “आप हमारी सन्निधी में श्रीसहस्रगीति के कठिन अर्थ को जानने का कालक्षेप प्रारम्भ करें”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उस आज्ञा को महान अनुग्रह रूप में स्वीकार किया और उसे अपने सिर पर ले लिया। उन्होंने उसी क्षण कालक्षेप देना प्रारम्भ किया।) श्रीरङ्गनाथ  भगवान जो श्रिय:पति हैं कृपाकर पेरिया तिरुमण्टप में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के कालक्षेप को आचार्य गण जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी जो दिव्य ज्ञान से धन्य हैं और श्रीसहस्रगीति के अर्थों को आनंदपूर्वक सुने उनके साथ विराजमान हुए। साथ हीं सामान्य जन जैसे बच्चे, बड़े आदि ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अलौकिक महिमा को सुनकर आनंद प्राप्त किया और स्वयं को उनके आधीन कर दिया। परितापी (संस्कृत) वर्ष के तिरुप्पवित्रम् (परित्रोत्सव, एक परित्र दिन जब शुद्धिकरण के संस्कार संचालित किया जाता हैं) के दिव्य दिन उन्होंने स्वयं को परम सौभाग्यशाली माना जैसे कि इस श्लोक में हैं 

कृपया परया सरङ्गरात् महिमानं महतां प्रकाशयन्
गुरुचेस्वयमेव चेतसा वरयोगि प्रवरसस्य शिष्यताम्

(उन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के महानता को प्रदर्शित करने हेतु जो यतियों में श्रेष्ठ हैं, वें श्रीरङ्गनाथ  भगवान अपने उच्च कृपा के साथ अपने दिव्य मन में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य होना चाहे)। श्रीरङ्गनाथ  भगवान जो श्रीरङ्गम् के स्वामी हैं अपनी श्रेष्ठ कृपा से सभी प्रतिष्ठित जनों को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के महानता को उजागर करने के लिये उन विशिष्ट श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य होना चाहते थे। यह वैसे हीं हैं जब भगवान ने यह इच्छा प्रगट किये (जब उन्होंने श्रीराम का अवतार लिया) कि चक्रवर्ती राजा दशरथ उनके पिता हो जैसे कहा गया हैं “पितरं रोचयामास तथा दशरथं नृपम्”। जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं कि श्रीरङ्गनाथ  भगवान कृपा कर सभी के साथ गरुड मण्डप में गये 

श्रोतुं द्राविडवेदपूरि विवृतं सौम्योपयन्तृमुने
रुत्कटण्टास्तिममैन मानयतदस्तार्क्ष्याश्रयं मण्टपम्
अविश्यार्चकमुचि वानिधिमुता निश्शेषलोकान्विदितो
रङ्गीवत्सरमेकमेवम् अश्रुणोत् व्यक्तं यथोक्तं क्रमात्

(श्रीरङ्गनाथ  भगवान अर्चको के माध्यम से आज्ञा किये ‘हमें ईडु जो श्रीसहस्रगीति जो द्राविड वेद हैं पर व्याख्या हैं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से सुनना हैं। उन्हें गरुड मण्डप में लावों,’ फिर श्रीरङ्गनाथ  भगवान अन्यों के साथ कृपाकर एक वर्ष तक उस व्याख्या को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के श्रीमुख से मनन किये)। उपन्यास कैसे दिया गया? 

मङ्गळायतनेरङ्गे रम्यजामातृयोगिराठ्
युगद्द्राविडाम्नाय सर्व व्याख्यान कौतुकी

(श्रीरङ्गम् में जो सभी शुभताओं का भण्डार हैं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीसहस्रगीति के लिये उपन्यास सभी व्याख्यानों से एक साथ देने के लिये इच्छुक थे)। 

देशान्तरगतोवापि द्वीपान्तरगतोवापि
श्रीरङ्गापिमुखोभूत्वा प्रणिपत्य नसीदति

(कोई व्यक्ति दूसरे देश में रहे या कोई द्वीप में, यदि कोई श्रीरङ्गम् कि ओर साष्टांग दंडवत करता हैं तो उसे कोई दु:ख नहीं मिलेगा)। 

जैसे कि कहा गया हैं इन श्लोकों में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीसहस्रगीति जो द्राविड वेद हैं पर आऱायिरप्पडि, ओन्बदिनायिरप्पडि, पन्नीरायिरप्पडि, इरुबत्तु नालायिरप्पडि, मुप्पत्ताऱायिरप्पडि (यह पाँच व्याख्या श्रीतिरुक्कुरुगैपिरान् पिळ्ळान् , श्रीवेदांती स्वामीजी, अऴगिय मणवाळ जीयर्  [श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी के शिष्य], श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै और श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने लिखा हैं) और अन्य दिव्य प्रबन्ध पाठ पर व्याख्या के अंग (सहायक) और उपांग (उप सहायक) के माध्यम से उपन्यास देने के लिये तैयार हुए। तिरुप्पवित्रोतोत्सव (एक उत्सव जो वर्ष में एक बार मन्दिर के प्रांगण को पवित्र करने हेतु मनाया जाता हैं) को एक बहाने के रूप में रखते हुए भगवान कृपाकर तैयार थे। भगवान कृपाकर तिरुप्पवित्रोतोत्सव मण्टप में प्रवेश किये और अणियरंङ्गन्  तिरुमुट्रत्तडियार् (श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य प्रांगण के अनुयायी) – आचार्य पुरुष, जीयर्, श्रीवैष्णव, सभी दस विभागों के कर्मचारी के महान गोष्ठी के मध्य में थे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने अनुयायी सहित भगवान का मङ्गळाशासन्  किये। भगवान ने विशिष्ट तरीके से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति श्रद्धा प्रगट करते हुए उन्हें श्रीशठारी प्रदान किये और कहा “कल से पेरिया तिरुमण्टप में ईडु मुप्पत्ताऱायिरप्पडि के माध्यम से श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा रचित श्रीसहस्रगीति पर अर्थानुसन्धान करना प्रारम्भ करिये”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रफुल्लित हो गये और कहा “यह कैसी कृपा हैं!” उन्होंने एक पाशुर कि रचना किये 

नामार्? पेरियतिरुमण्डपमार्? नम्पेरुमाळ्
तामाग नम्मैत्तनित्त​ऴैत्तु- नी माऱन्
सेन्दमिऴ वेदत्तिन् सेऴुम् पोरुळै नाळुम् इङ्गे
वन्दुरै एन्ऱेवुवदे वाय्न्दु

(हम कौन हैं? तिरुमण्टप क्या हैं? श्रीरङ्गनाथ  भगवान स्वयं हमें अलग से बुलाकर आज्ञा किये हैं “प्रतिदिन श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा रचित पवित्र तमील वेद का अर्थ सुनाये)। यह कितना महान हैं!” 

अगले दिन से हीं श्रीरङ्गनाथ  भगवान अम्माजी (श्रीदेवी और भूदेवी) सहित अपने दिव्यसिंहासन पर तत्पर थे वैसे हीं जैसे संगीत सुनने के लिये संगीत मण्डली का पोषण होता हैं, ठीक उसी तरह श्रीराम ने सभी राजाओं और कवियों को श्रीरामायण को सुनने के लिये अपने दरबार में बुलाया था। उनके गोष्ठी में नित्यसूरि जैसे श्रीआदिशेष, श्रीगरुड़जी, श्रीविश्वक्सेनजी, आदि, श्रीशठकोप स्वामीजी से प्रारम्भ कर सभी आऴ्वार्, आचार्य जैसे श्रीनाथमुनी स्वामीजी, श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी, आदि, श्रीरङ्गनारायण​ जीयर्, तिरुमालै तन्द भट्टर्, आदि (ये स्थलपुरुष हैं), अणियरंङ्गन् तिरुमुट्रम् (सुन्दर श्रीरङ्गम् का दिव्य प्रांगण) के भक्तों कि दिव्य गोष्ठी मौजूद थे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ईडु से प्रारम्भ कर व्याख्यान का प्रारम्भ किये, विभिन्न स्थानों पर उद्धत करते हुए, श्रुति प्रक्रिया (वेदों में लिखा/देखा गया), श्रीभाष्य प्रक्रिया (जैसे श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा रचित श्रीभाष्य में लिखा हैं), श्रुतप्रकाशिकाप्रक्रिया (जैसे श्रुतप्रकाशिक में लिखा गया हैं, एक श्रीभाष्य पर व्याख्या जिसे दिव्यसूरि भट्टर् द्वारा लिखा गया हैं), गीताभाष्य प्रक्रिया (श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा रचित भगवद गीता पर व्याख्या), श्रीपाञ्चरात्र प्रक्रिया, श्रीरामायण प्रक्रिया, श्रीमहाभारत प्रक्रिया, श्रीविष्णुपुराण प्रक्रिया, श्रीमहाभागवत प्रक्रिया, इन सब से संदर्भ लिये हैं; वें कहेंगे यह पदार्थम् हैं (सभी शब्द/पद्य के अर्थ), यह व्याख्यार्थम् हैं (वाक्य का अर्थ), यह महाव्याख्यार्थम् हैं (व्याख्या के समूह का अर्थ), यह समाभिव्याहार्थम् हैं (अन्य अर्थों से जोड़ना), यह ध्वण्यार्थम् हैं (विशिष्ट द्वाणी का अर्थ), यह व्यंग्यार्थम् हैं (निहित अर्थ), यह शब्दार्सम् हैं (पद्य में प्रयुक्त ध्वनि का आकर्षण), अर्थरसम् (अर्थ में आकर्षण), यह भावरसम् हैं (छन्द के पिचे भावना में आकर्षण), यह ओण् पोरुळ् हैं (अर्थ की उत्कृष्टता), यह उट्पोरुळ्  हैं (आंतरिक अर्थ), आदि। इस प्रकार श्रीरङ्गनाथ  भगवान ने एक वर्ष तक श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से स्पष्ट कथा सुने। अंत में व्याख्या अपनी सात्तुमुरै तक पहुंचा। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/30/yathindhra-pravana-prabhavam-74-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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