श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
भगवदविषय चाट्ट्रुमुऱै
पहिले के जैसे भगवान कृपाकर श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीपरकाल स्वामीजी, श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी और श्रीरामानुज स्वामीजी के साथ पधारे और अन्यों के साथ दिव्यप्रबन्ध के व्याख्यानों को सुने और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि प्रशंसा किये। उन्हें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव को दर्शाना था और उन्हें यह स्वयं करना था। जैसे इस श्लोक में उल्लेख हैं
समाप्तौ ग्रन्थस्य प्रथितविविधोपायनचये परं
सञ्जीभूते वरवरमुनेङ्ग्रि सविते
हठात्बालः कश्चीत्कुत इतिनिरस्तोप्युपगतः जगौ
रङ्गेशाक्यः परिणतचतुर्हायन इदम्
(भगवद विषय के चाट्ट्रुमुऱै के समय पान के पत्ते, पान कि सुपारी आदि को पत्तल में तैयार रखा गया। एक ४ वर्षीय लड़का जिसका नाम रङ्गनायकन् हैं वहाँ अचानक प्रगट हुआ। जबकी वहाँ के जन उन्हें वहाँ आने से रोके जिन्होंने कहा “आप क्यों आ रहे हो? आप चले जाये” वह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पास आया और इस तनियन् का अनुसन्धान किया, इलायची, लौंग, कपूर, आदि सम्भावना के रूप में तैयार थे और साथ में तिरुपरिवट्टम्, सुपारी, फल, आदि भी तैयार थे।)
श्रीशैलेश दयापात्र तनियन् अवतार –
अऴगिय मणवाळ भट्टर् के चार वर्षीय पुत्र भगवान और मानदेय के रूप में रखे गये विभिन्न स्वामग्रियों के मध्य में खड़े हो गये। उस बालक को उस स्थान से बाहर निकालने पर भी वह पुनः उसी स्थान पर आ गया। सभी ने सोचा “यह सामान्य नहीं हो सकता हैं; कुछ विशेष होनेवाला हैं”। जब उस बालक से पूछा गया “आप किसके लिये यहाँ खड़े हैं?” उसने अंजली मुद्रा में हाथ जोड़ कर और बिना कोई भय से कहा “श्रीशैलेश दयापात्रम्”। जब पूछा गया कि तुम्हें और भी कुछ कहना हैं तब उसने कहा “धीभक्त्यादिगुणार्णवं यतीन्द्र प्रणवं वन्दे रम्यजामातरं मुनिम् ” और भाग गया। वहाँ उपस्थित प्रतिष्ठित जनों ने यह सुनकर चकित रह गये; उन्होंने तुरन्त इस श्लोक को ताड़ के पत्ते की पांडुलिपि के रूप में लिखा, हल्दी के पाउडर को कोने में लगाया (शुभ संकेत के रूप में) इसे श्रीरङ्गनाथ भगवान के श्रीचरणों में रखा। उन्होंने फिर एक थाली पर रखा, रङ्गनायकन् को दुलार कर बुलाया और उनसे पूछा क्या कुछ और सुनाना हैं। उन्होंने कहा “मुझे कुछ भी पता नहीं हैं” जब उनसे कहा गया कि जो पहिले कहे उसे हीं सुनाये तब उसने कहा “मुझे कुछ भी पता नहीं हैं” और भाग गया।
वाऴित्तिरुनामम् के लिये आज्ञा
फिर अप्पिळ्ळै (श्रीप्रणतार्तिहारी स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के एक शिष्य) को अरुळप्पाडु के माध्यम से प्रशंसा किये और उन्हें वाऴित्तिरुनामम् (किसी का मङळाशासन् करना) को कहने को कहे। अप्पिळ्ळै ने यह गाया क्योंकि वें तमिऴ् में विशेषज्ञ थे
वाऴितिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै मादगवाल्
वाऴुम् मणवाळ मामुनिवन् – वाऴियवन्
माऱन् तिरुवाय्मोऴिप्पोरुळै मानिलत्तोर्
तेऱुम्बडियुरैक्कुम् चीर्
(श्रीशैलेश स्वामीजी की अपार कृपा से रहने वाले श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की दीर्घायु हो। श्रीसहस्रगीति के अर्थों को इस तरह समझाने वाले का मंगल हो जिससे सभी जन समझ सके और उनका उत्थान हो)
सेय्यतामरै ताळिणै वाऴिये
सेलै वाऴि तिरुनाभि वाऴिये
तुय्यमार्बुम् पुरिनूलुम् वाऴिये
सुन्दरत्तिरुत्तोळिणै वाऴिये
कैयुमेन्दिय मुक्कोलुम् वाऴिये
करुणैपोङ्गिय कण्णिनै वाऴिये
पोय्यिल्लाद मणवाळ मामुनि
पुन्दिवाऴि पुगऴ वाऴि वाऴिये
(लाल कमल समान उनके दिव्य चरणों कि स्तुति करों; उनके दिव्य वस्त्र और नाभी कि स्तुति करों; उनके शुद्ध हृदय और यज्ञोपवित कि स्तुति करों; उनके सुन्दर दिव्य भुजाओं कि स्तुति करों; उनके त्रीदण्ड कि स्तुति करों; करुणा से छलक़ती उनके दिव्य नेत्रों कि स्तुति करों; केवल सत्य कहनेवाले श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि स्तुति करों; उनके बुद्धि कि स्तुति करों; उनके यश कि स्तुति करों)
अडियार्गळ् वाऴ अरङ्गनगर् वाऴ
चडगोपन् तण् तमिऴ् नूल् वाऴ – कडल् चूऴ्न्द
मन्नुलगम् वाऴ मणवाळ मामुनिये!
इन्नुमोरु नूट्ट्राण्डु इरुम्
(अनुयायियों के समृद्ध होने के लिए, श्रीरङ्गम् के समृद्ध होने के लिए, श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य प्रबंध के समृद्ध होने के लिए, समुद्र से घिरी पृथ्वी के समृद्ध होने के लिए, हे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी! आप सौ साल और इस संसार में विराजमान रहिये) इन पाशुरों को सुनकर भगवान बहुत प्रसन्न हुए और अप्पिळ्ळै पर अपनी कृपा बरसाये। उन्होंने उनपर बहुत सम्मान प्रदान किये।
श्रीरङ्गनाथ भगवान ने दिव्यदेशों को आज्ञा दिये
तुरन्त श्रीविश्वक्सेनजी से एक दिव्य संदेश सभी दिव्यदेशों जैसे तिरुमला,श्रीरङ्गम् , आदि को दिया गया कि आज से श्रीरङ्गनाथ भगवान द्वारा श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के लिये रचित तनियन् को सभी दिव्य स्थानों में गाया जाये।
श्रीशैलेश दयापात्रं धीभक्त्यादिगुणार्णवम्
यतीन्द्र प्रणवं वन्दे रम्यजामातरं मुनिम्
(मैं उन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपना प्रणाम करता हूँ जो श्रीशैलेश स्वामीजी के कृपापात्र हैं जो बुद्धि और भक्ति के सागर के समान हैं और जो श्रीरामानुज स्वामीजी के लिये स्नेह से भरे हुए हैं)। संदेश में कहा गया हैं कि किसी भी पाठ के प्रारम्भ में इस तनियन् का पाठ किया जाना चाहिये और उस पाठ के अन्त में उनके तीन पाशुरों का पाठ किया जाना चाहिये जो “वाऴितिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै” से प्रारम्भ होते हुए और “मणवाळ मामुनिये! इन्नुमोरु नूट्ट्राण्डु इरुम्” के साथ समाप्त होते हैं। फिर उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को मंदिर के सभी सम्मान के साथ सम्मानित किया और मंदिर के सभी कर्मचारियों के साथ उनके मठ में भेजा। एक और आश्चर्यजनक घटना घटी।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/01/yathindhra-pravana-prabhavam-75-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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