यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ७६

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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आश्चर्यजनक घटना जो अण्णन्  के तिरुमाळिगै में घटी 

जब सभी जन मन्दिर में इकट्ठे हुए ईडु उत्सव के चाट्ट्रुमुऱै को देखने के लिये तब कन्दाडै अण्णन् कि धर्मपत्नी और अन्य महिलाएँ जिन्हें सम्प्रदाय का अच्छा ज्ञान था श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव को उनके हीं तिरुमाळिगै में गाने लगी। उस समय एक ब्रह्मचारी वहाँ एक टिप्पणी के साथ पधारे और कन्दाडै अण्णन् कि धर्मपत्नी को देकर कहा इसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को दे दो। उन्होंने उस टिप्पणी को लेकर पढ़ा और  कहा “यह श्लोक उत्कृष्ट हैं!” उन्होंने उस ब्रह्मचारी को देखा ताकि इस श्लोक के विषय में और जान सके पर उसका पता नहीं चला। सभी उठ खड़े हुए और उस ब्रह्मचारी कि तलाश किये परन्तु किसीको भी वें नहीं मिले। जो भी वहाँ थे उन्होंने कहा यह भगवद लीला (भगवान कि एक लीला) हैं। कुछ ने पेरिया तिरुमण्टप के गोष्ठी में गये जहां चाट्ट्रुमुऱै चल रहा था और उस टिप्पणी को प्रस्तुत किया। यह सुनकर जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं 

हठात् तस्मित् क्षणे कश्चित् वर्णी सम्प्राप्य पत्रिकाम्।
वादूल वरदाचार्य तमपत्नियाः करे ददौ॥

(तुरंत उस समय एक ब्रह्मचारी वहाँ वहाँ आया एक टिप्पणी कन्दाडै अण्णन् कि धर्मपत्नी के हाथो में दिया) उस गोष्ठी में सभी आश्चर्यजनक हुए। उन्होंने उस लिखे हुए श्लोक को पढ़ा और जाना यह तो श्रीशैलेश दयापात्रम् श्लोक हैं और स्तब्द हो गये। उन्होंने उस तनियन् के अर्थ का ध्यान किया और उसे तिरुमन्त्र से सम्बन्ध किया [श्रीशैल तिरुमलैयप्पन् से उद्घृत किया जो अकार वाच्यन् हैं (प्रवणं में ‘अ’ को संबोधित करता हैं) दयापात्रम् जो कृपा का विषय हैं मकार वाच्यन् (‘म’ शब्द प्रणवम हैं) जो भगवान का हैं, इस तरह से दोनों में प्रणवम का सम्बन्ध बताता हैं]। उनके विशेष अनुयायी जैसे वानमामलै जीयर्, कन्दाडै अण्णन्, एऱुम्बियप्पा, प्रतिवादि भयङ्कर्  अण्णा आदि ने जाना कि उनके दिव्य मन में जो तनियन् हैं जो उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के लिये रचा हैं वह इस तनियन् का हीं एक अंग हैं और सभी प्रसन्न हुए कि यह सभी कि अभिलाषा को पूर्ण कर रहा हैं। भगवान ने सभी को पूर्ण सम्मान के साथ वापस भेजा और अपने सन्निधी में गये। मन्दिर के सभी सेवक एक समूह बनाकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के साथ श्रीरङ्गम् कि गलियों में परिक्रमा लगाकर स्वामीजी को उनके दिव्य मठ में छोड़कर गये। मन्दिर के सेवक मन्दिर में भगवान के सन्निधी में पधारे। श्रीरङ्गनाथ भगवान उनके साथ बहुत प्रसन्न हुए और कहा “हमने यह देखा कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी “मुप्पत्ताऱायिरप्पेरुक्कर्” (वह जो ईडु को कई बार समझाया) हैं और अपनी कृपा बरसाये। सभी ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि तनियन् वाऴि तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै को गाया और मङ्गळाशासन् किया। जैसे इस पाशुर में उल्लेख हैं  

अडिसूडि एन् तलैमेल् अरुम​ऱै आय्न्दु तोण्डर्
मुडि सूडिय पेरुमाळ् वरयोगिमुनङ्गुरवोर्
पडि सूडु मुप्पत्ताऱायिरमुम् पणित्तरङ्गर्
अडि सूडि विट्टद​ऱ्को एन्दै एन्बदु उन्नैयुमे

(क्या यह आश्चर्यजनक है कि हम भगवान को बुलाते हैं, जो अपने दिव्य चरणों को अपने अनुयायीयों के सिर पर रखते हैं, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को मुप्पत्ताऱायिरप्पडि के माध्यम से श्रीसहस्रगीति के अर्थ को समझाने के लिये नियुक्त किया और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के लिये तनियन् दिये हमारे भगवान के रूप में!) वहाँ पर जीतने भी जन थे सभी ने उस घटना को स्मरण किया, उसी में उलझे रहे, वह नाम और दिव्य गुणों का ध्यान करते रहे और प्रसन्न हुए। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/02/yathindhra-pravana-prabhavam-76-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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