श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नम:
<< श्री शठकोप स्वामीजी का इतिहास और महानता
आल्वार तिरुनगरी और श्रीशठकोप स्वामीजी के जीवन इतिहास मे, श्रीशठकोप स्वामीजी की यात्रा को एक महत्वपूर्ण घटना की तरह माना जाता है। हम एक हद तक इसे जानने की कोशिश करते है।
पिछले भाग मे हमने सीखा कि कैसे श्रीशठकोप स्वामीजी ने श्रीमधुरकवी स्वामीजि को श्रीरामानुज स्वामीजी के अवतार के विषय मे बताया और कैसे उन्होने श्रीभविष्यदाचार्य का विग्रह श्रीमधुरकवी स्वामीजी को प्रदान किया। श्रीशठकोप स्वामीजी के अवतार के बाद और श्रीरामानुज
स्वामीजी के अवतार के पहिले पूर्वाचार्य जैसे की श्रीनाथमुनी स्वामीजी का इस पृथ्वी पर अवतार हुआ और उन्होंने संप्रदाय का पोषण किया। श्रीनाथमुनी स्वामीजी ने श्रीशठकोप स्वामीजी के पाशुरों के बारे मे सुना और वे आल्वार और उनकी पाशुरों की खोज मे आल्वार तिरुनगरी पधारे। उन्हे अपने आध्यात्मिक दृष्टि की वजह से श्रीशठकोप स्वामीजी के दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्रीशठकोप स्वामीजी की कृपा दृष्टि की वजह से श्रीनाथमुनी स्वामीजी को सौभाग्य से श्रीशठकोप स्वामीजी के ४ प्रबन्ध और वैसे ही दूसरे आलवारों के अर्थसहित प्रबन्ध प्राप्त हुये। आचार्यों की परम्परा मे उन्होने श्रीशठकोप स्वामीजी के बाद का स्थान प्राप्त किया। श्रीनाथमुनी स्वामीजी के श्रीकुरुकनाथ स्वामीजी नामक एक शिष्य ने इस आल्वार तिरुनगरी मे अवतार लिया।
श्रीनाथमुनी स्वामीजी के बाद आचार्यों की परम्परा श्रीपुंडरीकाक्ष स्वामीजी, श्रीराममिश्र स्वामीजी, श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी और श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के माध्यम से अच्छी तरह से विकसित हुई। उनके बाद श्रीरामानुज स्वामीजी जो की आदिशेष (भगवान का दिव्य आसन) के अवतार है उनका इस पृथ्वी पर अवतार हुवा और उन्होने दिखाया की मोक्ष उन सब के लिये प्राप्त करने योग्य है जो इसे प्राप्त करने की इच्छा रखते है। श्रीरामानुज सस्वामीजी ने को मारन आदि पणिन्दु उयंदावन (वह जो श्रीशठकोप स्वामीजी के श्रीचरणों में नतमस्तक होकर उपर उठता हैं) ऐसा माना है। उनके प्रति श्रीरामानुज स्वामीजी की असीम भक्ति को देखते हुए श्रीशठकोप स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी को उनकी श्रीतिरुवड़ी (एक विग्रह की पादुका – यह एक घंटी के आकार का यंत्र हैं जिसे अर्चक अपने हाथों मे लेते है और सन्निधि के अंदर भक्तों के सर पर रखते है) होने का सौभाग्य प्रदान किया।जबकि श्रीशठकोप स्वामीजी की श्रीतिरुवड़ी को अन्य स्थानो पर मधुरकविगल कहा जाता है परंतु आल्वार तिरुनगरी मे श्रीशठकोप स्वामीजी ने फैसला किया की यहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी के नाम से जाना जाएगा।।
श्रीरामानुज स्वामीजी के पश्चात हमारा सम्प्रदाय श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी, श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी, श्रीवेदांति स्वामीजी, श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी, श्रीकृष्णपाद स्वामीजी और पिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी के वंशावली में बढ़ता रहा। श्री लोकाचार्या स्वामीजी के अंतिम दिनों के दौरान भारत के दक्षिण में विदेशी ताकतो का खतरा मंडरा रहा था। हमारे संप्रदाय के प्रमुख स्थान श्रीरंगम पर आक्रमणकारियों ने गंभीर हमला किया। उस समय श्रीपिल्लैलोकाचार्य स्वामीजी ने श्रीरंगनाथ भगवान (मुल विग्रह) के सामने एक सुरक्षित दीवार बनवाई और नंपेरुमल
(उत्सव विग्रह) को एक सुरक्षित आश्रय की तलाश मे दक्षिण की और (श्रीरंगम के) ले गये। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी नंपेरुमल (उत्सव विग्रह) के साथ मदुरै में यानै मलै के पिछे ज्योतिषकुड़ी पहुँचे। बढ़ती उम्र के कारण वे बीमार पड़ गये। उन्होने निर्णय किया की उनके शिष्य श्रीशैलेश स्वामीजी संप्रदाय को आगे बढ़ायेँगे और परमपद प्राप्त किया।
इसके बाद श्रीरंगनाथ भगवान की उत्सव विग्रह केरल मे कोझीकोड पहुंची। उसी वक्त श्रीशठकोप स्वामीजी भी आल्वार तिरुनगरी से दूर जाने के लिए (विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण के कारण) कोझीकोड मे पहुंचे। इसी कारण से श्रीशठकोप स्वामीजी को आल्वार तिरुनगरी से कई वर्षों तक दूर रहना पड़ा। श्रीशठकोप स्वामीजी के कोझीकोड पहुचने के बाद श्रीरंगनाथ भगवान ने उन्हे इच्छापूर्वक स्थान दिया और उन्हे अपने दिव्य आसान पर स्वीकार किया। पोत्तिमार् एवं नम्बूद्रि (केरल क्षेत्र के पुजारी) ने अद्भुत इच्छा से आल्वार और श्रीरंगनाथ भगवान का कैकर्य किया। कोझीकोड को छोड़ने के बाद श्रीशठकोप स्वामीजी और श्रीरंगनाथ भगवान अपने निवास स्थान तिरुक्कणाम्बी पहुंचे। कुछ समय वहाँ रहने के बाद श्रीरंगनाथ भगवान ने उस स्थान को छोड़ दिया। जो लोग वहा श्रीरंगनाथ भगवान का कैकर्य कर रहे थे सुरक्षित स्थान की तलाश मे वे उन्हे पश्चिमी क्षेत्र की और लेकर गये। एक खड़ी चट्टान पर पहुँचने के पश्चात उन्होने निश्चय किया की वे श्रीशठकोप स्वामीजी को उस स्थान पर सुरक्षित रख सकते है। उन्होने दयापूर्वक श्रीशठकोप स्वामीजी को एक संदूक मे बिठाया और चट्टान की ढलान से नीचे उतारा। जब वे श्रीशठकोप स्वामीजी के विग्रह को सुरक्षित तरीके से वहा रखकर लौट रहे थे तब लुटोरों ने जो उस समय तक श्रीशठकोप स्वामीजी की सेवा कर रहे थे उन कैंकर्यपरर्स (जो कैंकर्यकरते है) से दिव्य और कीमती आभूषणों को चुरा लिये। उन कैंकर्यपरर्स मे एक तोझप्पर नाम के व्यक्ति थे। वह मदुरै पहुंचे और श्रीशैलेश स्वामीजी जो की राजा के दरबार के वरिष्ठ मंत्री थे उनसे मदद मांगी। ये वही श्रीशैलेश स्वामीजी है जो श्रीलोकाचार्य स्वामीजी के प्रमुख शिष्य थे और जिन्हे श्रीलोकाचार्य स्वामीजी द्वारा संप्रदाय के प्रमुख के रूप मे घोषित किया गया था। उन्होने मदद के लिये केरल के राजा को संदेश भेजा। उन्होने अपने निजी सेवाको को श्रीशठकोप स्वामीजी का विग्रह वापिस लाने भेजा। श्रीशैलेश स्वामीजी का संदेश आने के बाद केरल के राजा ने श्रीशठकोप स्वामीजी को वापिस लाने के लिये अपनी सेना को भेजा। तोझप्पर के नेतृत्व मे सभी जन कार्य पर निकल पड़े। एक गरुड पक्षी (एक चील) ने उन्हे श्रीशठकोप स्वामीजी के स्थान का संकेत दिया। तोझप्पर लोहे के जंजीरों से जकड़े एक तख्ते पर बैठ गये और खुद ही ढलान से नीचे उतार गये। जिसमे श्रीशठकोप स्वामीजी का विग्रह रखा था उन्होने उस संदुक का पता लगा लिया। उन्होने श्रीशठकोप स्वामीजी के साथ संदुक को भेज दिया। तोझप्पर को वापिस लाने के लिये सन्दुक नीचे किया गया। परंतु रास्ते मे उनका संतुलन बिगड़ गया और वे खड़ी ढलान से नीचे गिर गये। उन्होने परमपद को प्राप्त किया। तोझप्पर के पुत्र ने यह देखा और वह रोने लगा। श्रीशठकोप स्वामीजी ने उसको यह कहकर सांत्वना दी की वह पिता बनेगा। उन्होने निर्णय किया की मंदिर का सारा सम्मान तोझप्पर के पुत्र और उनके वंशजों को दिया जाये। तत्पश्चात श्रीशठकोप स्वामीजी पुनः तिरुक्कणाम्बी पहुंचे। उन चोरों ने (जिन्होने श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य आभूषण चुराये थे) इन घटनाओ के बारे मे सुना, उन्हे उनकी गलतियों का एहसास हुवा और जो आभूषण उन्होने चुराये थे उन्हे श्रीशठकोप स्वामीजी को दे दिया। श्रीशैलेश स्वामीजी तिरुक्कणाम्बी पधारे और श्रीशठकोप स्वामीजी कि प्रेम से पूजा की।
श्रीशैलेश स्वामीजी जब पुनः मदुरै पहुंचे तब श्रीलोकाचार्य स्वामीजी के शिष्य श्रीकूर कुलोत्तम दासर् उनसे मिले, उन्हे श्रीलोकाचार्य स्वामीजी के साथ उनके सम्बन्ध को स्मरण करवाया। उन्होने श्रीशैलेश स्वामीजी को सम्प्रदाय के विशेषताओं के बारे मे बताया, उन्हे अपने मंत्री पद को छोड़ने को कहा और सिर्फ श्रीशठकोप स्वामीजी के दास रूप मे रहने को कहा। श्रीशैलेश स्वामीजी ने श्रीकूर कुलोत्तम दासर्, विळान चोलै पिळ्ळै, नालूराच्छान पिल्लै से हमारे संप्रदाय के गूढ़ार्थ को सीखा और सम्प्रदाय के मुखिया बन गये। फिर वे श्रीशठकोप स्वामीजी को पुनः आल्वार तिरुनगरी ले गये। जब वे दिव्य आल्वार तिरुनगरी पहुंचे तब उन्होने देखा कि वह जगह पूरी तरह से जंगली झाड़ियों से आच्छादित थी। उन्होने पूर्ण स्थान को झाड़ियों से साफ किया और आदिनाथ भगवान के दिव्य मंदिर का पुनर्निर्माण किया। उनको भविष्यदाचार्य का दिव्य विग्रह तिरुप्पुली (इमली के वृक्ष) के नीचे दबा हुवा मिला। उन्होने पश्चिमी भाग मे चतुर्वेदी मंगलम कि स्थापना कि वहां पर मंदिर बनवाया और आदिनाथ आल्वार और श्रीरामानुज स्वामीजी दोनों के नियमित कैकर्य के लिये उचित तरीके से व्यवस्था कि। श्रीशठकोप स्वामीजी और श्रीसहस्रगीति के प्रति अगाध भक्ति के कारण उन्हे शठकोप दास और तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै इन विशिष्ट नामों से जाने जाते है। उनके वंशज आज भी इस क्षेत्र और इस क्षेत्र के अन्य मंदिरों मे कैकर्य कर रहे है।
हमारे पूर्वाचार्य इस कथा को “श्रीशठकोप स्वामीजी कि यात्रा” कहकर बुलाते।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जिनका इस दिव्य क्षेत्र में अवतार हुआ और जो पश्चात स्वयं श्रीरंगनाथ भगवान के आचार्य हुए ने श्रीशैलेश स्वामीजी को अपने आचार्य रूप में स्वीकार किया और प्रारम्भ में आलवार तिरुनगरी में कैंकर्य किये। आगे हम उनके इतिहास और महानता के विषय में सीखेंगे।
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अडियेन् शिल्पा रामानुज दासि
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