श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
इळैयाऴ्वार पिळ्ळै से श्रीशैलेश दयापात्रम् सुनने के पश्चात रामानुज अय्यङ्गार् और अन्य अचंभे में थे।
जज्ज्ञेऽमुनास्वप्न निवेदितम्हियत् कथं बदर्याश्रम नित्य वासिना।
प्राकाशि मन्त्रार्थमिदं मुरद्विषेद्ययोध्या रामानुज आविसिष्मये॥
(श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् यह आश्चर्य कर रहे थे कि कैसे यह तनियन् जो भगवान मुरारी (श्रीकृष्ण जिन्होंने मुरा नामक राक्षस का वध किया) जो निरन्तर बदरीकाश्रम में निवास करते हैं, जिसमें तिरुमंत्र का अर्थ हैं, ने कृपाकर उनके स्वप्न में कहे तनियन् को, यह जन गा रहे हैं)। श्रीअयोध्या रामानुज अय्यङ्गार् ने उन्हें कहा “यह तनियन् कृपाकर बदरीकाश्रम के भगवान ने उन्हें दिया था। यह तनियन् आप तक कैसे पहुँची?” उन्होंने उन्हें यह सब सुनाया:
जैसे कि इस पद में कहा गया हैं “आचिनोतिहिशास्त्रार्थात्” (वह जो शास्त्र का अर्थ बताते हैं वें आचार्य हैं), श्रीरङ्गनाथ भगवान ने यह तनियन् श्रीरङ्गम् में गाये थे वैसे हीं जैसे बद्रीकाश्रम में भगवान ने तिरुमन्त्र नारायण भगवान का रूप लेकर गाया था। (दिव्यप्रबन्ध का पूर्ण अर्थ प्रगट करने हेतु जो तिरुमन्त्र का सार हैं भगवान ने अपने दिव्य मन में यह निश्चय किया और आदिशेष को आज्ञा किए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के रूप में पुनः अवतार ले जैसे स्तोत्र रत्न के पद में कहा गया हैं “यथोचितं शेष इतीरिते” उन्हें शेष कहा जाता हैं क्योंकि भगवान कि सेवा करने हेतु समय अनुसार वें कई रूप धारण करते हैं)। आदिशेष भी सेवा करने हेतु अवतार लिये और अत्यधिक कुशल व्यक्ति समान दिव्यप्रबन्ध पर व्याख्या करना प्रारम्भ किया। उनकी महिमा को जगमगाने में सक्षम करने हेतु भगवान ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से अनुरोध किया कि वें श्रीसहस्रगीति पर कालक्षेप करें। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भी इसे उच्च कैङ्कर्य माना और श्रीसहस्रगीति पर कालक्षेप किये। जब आचार्य को सम्भावना करने का समय आया तब श्रीरङ्गनाथ भगवान एक पाँच वर्षीय बालक जिसका नाम रङ्गनायगम् (अर्चक का पुत्र) हैं के रूप में व्याप्त हुए और इस तनियन् को गाया। फिर अपिळ्ळै के माध्यम से उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रशंसा में वाऴित्तिरुनामम् को गाया ताकि दिव्यप्रबंध के प्रारम्भ में श्रीशैलेश दयापात्रम गाया जाये और उसके अन्त में वाऴित्तिरुनामम् को गाया जाये। श्रीरङ्गनाथ भगवान श्रीविश्वक्सेनजी के माध्यम से सभी दिव्यदेशों जैसे तिरुमला, श्रीरङ्गम्, आदि को यह संदेश दिया जैसे इस श्लोक में लाया गया हैं
श्रिपन्नकादीशमुनेः पद्यम् रङ्गेशभाषितम्
अष्टोत्तर शतस्तानेश्व अनुशधाम् आचरेत्।
इत्याग्ग्या पत्रिका विश्वक्सेने प्रतिपादिता
तदारभ्य महत्बिश्च पठ्यते सन्निधेः पुरा॥
(यह श्लोक श्रीरङ्गनाथ भगवान कृपाकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के लिये गाये हैं। श्रीविश्वक्सेनजी के माध्यम से सभी दिव्यदेशों को संदेश दिया गया कि इस तनियन् को प्रारम्भ में गाना चाहिये। उस समय के पश्चात सभी भगवान के सन्निधी में यह गाया जाता हैं)। श्रीवेङ्कटेश भगवान ने ब्राह्मण जिसने दिव्यदेश कि यात्रा को लिया हैं उससे यह कहे
उपतिष्टं मयास्वप्ने दिव्यं पद्यमिदं शुभम्।
वरयोगिसाश्रित्य भवतः स्याद् परं पदम्॥
(यह श्लोक जो बहुत प्रतिष्ठित और मंगल हैं उसे तुम्हारे स्वप्न में निर्देश दिया गया हैं। अगर आप श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरणों के शरण होते हो तो आपको श्रीवैकुण्ठ प्राप्त होगा)। श्रीरङ्गनाथ भगवान ने ब्राह्मण को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होने को कहे जैसे इस श्लोक में लाया गया हैं
इत्युक्त्वादं वृषाधीशो श्रीपादद्रेणुमेवच।
तत्वाशुप्रेशयामास गच्छयोगिवरं शुचिम्॥
(यह कहते हुए श्रीवेङ्कटेश भगवान नें उसे अपने चरणों कि दिव्य रज प्रदान किये और उसे अति पूज्यनीय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पास जाने को कहे) उन्हें श्रीशठारी और श्रीचरणरज प्रदान किये। वह ब्राह्मण भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पास पहुँचा और उनके शरण हुआ। उसी तरह तिरुमालिरुञ्चोलै भगवान भी कृपाकर इस तनियन् को श्रीविश्वक्सेनजी को निर्देश दिये जिनका श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के साथ सम्बन्ध था। अत: इळैयाऴ्वार पिळ्ळै ने इस तनियन् उनके पास कैसे पहुंची को बताया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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