यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ९१

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर श्रीरङ्गम् लौटते हैं 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी तिरुमालिरुञ्चोलै से प्रस्थान कर कृपाकर उस स्थान पर पहुँचते हैं जहां तिरुमालिरुञ्चोलै के स्वामी नित्य रात्री को शयन करते हैं, श्रीरङ्गम् [श्रीरङ्गम् वह दिव्य स्थान हैं जहां सभी दिव्यदेश के भगवान हर रात्री को शयन करने आते हैं]। जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति के १०.९.८ में कहते हैं “कोडियणि नेडुमदिळ् गोपुरम् कुऱुगिनर्​” (उस स्थान में प्रवेश किया जिसकी ऊंची प्रांगण की दीवारे रंग बिरंगे झंडों से सजी हुई हैं), जैसे हीं वें श्रीरङ्गम् में प्रवेश किये वहाँ के सभी प्रतिष्ठित जन आगे पधारे और उनके दिव्य चरणों के शरण हुए और बड़े प्रेम से यह श्लोक का अनुसन्धान किया 

वकुळतरसवित्रीं यातियस्मिन् दरिद्रीं मधुमतन निवासो रङ्गमासीतसारम्।
पुनरपि सुसमृद्धं भूयसा सम्प्रविष्टे वरवरमुनिवर्यो मानुषः स्याद्किमेषः॥

(जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीशठकोप स्वामीजी के जन्म स्थान आऴ्वार्तिरुनगरि पहुंचे जिनके दिव्य वक्ष स्थल पर दिव्य मौलसिरी माला हैं, श्रीरङ्गम् जो श्रीरङ्गनाथ भगवान का निवास स्थान हैं जिन्होंने दूध सागर का मथन किया था, ने अपना वैभव खो दिया था; जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी पुनः श्रीरङ्गम् को लौटे उसका वैभव पुनः लौट गया। ऐसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को क्या मनुष्य  मानना चाहिये?) प्रारम्भ में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उनपर कृपा बरसाये और उन सब के साथ श्रीरामानुज स्वामीजी के सन्निधी में पधारे। उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणो कि पूजा किये और उनके पुरुषकार से श्रीरङ्गनाच्चियार् और श्रीरङ्गनाथ भगवान के समीप गये और उनके दिव्य चरणों के शरण हुए। उन्होंने उनका विशिष्ट प्रसाद स्वीकार किया और कृपाकर मठ को पहुँचे। जैसे कि रङ्गेधाम्नि सुखासीनम् (जैसे श्रीरङ्गम् में आराम से बैठे हैं) में कहा गया हैं वें आराम से तिरुमलैयाऴ्वार् में बैठ गये। उन्होंने नियमित रूप से व्याख्यानों (प्रबन्ध और श्रीसूक्ति पर व्याख्यान) का संचालन किया जिससे सभी आनंदित हुए। उनके शिष्य भी ऐसे स्थिति के लिये श्लोक का अनुसन्धान किया  

जयतुयशसा तुङ्गंरङ्गं जगत्रय मङ्गळम्
    जयतुसुचिरं तस्मिन्भूमा रमामणि भूषणम्।
वरदगुरुणासार्थं तस्मै शुभान्यपि वर्दयन्
    वरवरमुनिः श्रीमान्रामानुजो जयतुक्षितौ॥

(श्रीरङ्गम् जो अपनी महान प्रसिद्धि के कारण तीनों लोकों के लिए शुभ कोष है, प्रमुखता से चमके। भगवान जिनके पास दिव्य आभूषण के रूप में श्रीमहालक्ष्मीजी और श्रीकौस्तुभ मणि हैं नित्य चमकते रहे। वरदगुरु अण्णन् के साथ उन भगवान के लिए अधिक से अधिक शुभता उत्पन्न करनेवाले श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और जो श्रीरामानुज के अपरावतार हैं, इस धरती पर चमकें)।  

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एक जीयर् को अऴगर्कोयिल् (भगवान का मन्दिर) के लिये प्रशासक के रूप में भेजते हैं 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भगवान के लिये जो मङ्गळाशासन् किया था, वह भगवान के तिरुक्कुऱुङ्गुडि से अपने दिव्य निवास स्थान में लौटने के साथ फलीभूत हुए। भगवान से एक दिव्य संदेश यह कहते हुए प्राप्त हुआ “हम श्रीमान के विचार ‘नङ्गळ् कुन्ऱम् कैविडान्’ (वें हमारी पहाड़ी को नहीं जाने देंगे) के अनुसार अपने निवास पर लौट आये हैं। कृपाकर हमारे तिरुमाळिगै का पूर्ण कार्य करने के लिये किसी को यहाँ भेज देना”। यह पढ़कर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत खुश हुए और एक जीयर् जिनका नाम यतिराज जीयर् हैं जो एक महाविरक्त हैं और जो भगवान के कार्य में एक मङ्गळाशासन् परार हैं को भेजा। यतिराज जीयर् स्वामीजी भी वहाँ गये भगवान कि पूजा किये और प्रेम से आचार्य के प्रति पूर्ण कैङ्कर्य​ किये। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/17/yathindhra-pravana-prabhavam-91-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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