यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ९२

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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दिव्यदेशों में शिष्यों के माध्यम से कैङ्कर्य करते हैं 

तत्पश्चात महाबली वाणनाथन जिन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों में शरण ली थी, ने तिरुमालै तन्दान् तोऴप्पर् (तिरुमालै तोऴप्पर्) को प्रार्थमिक व्यक्ति के रूप में रखते हुए, तिरुमालिरुञ्चोलै दिव्यदेश में सभी प्रकार के कैङ्कर्य किये। उनके प्रयासों के कारण अऴगर्कोयिल् में कैङ्कर्य प्रचुर मात्रा में हो गया। जिस समय श्रीरङ्गम्, तिरुमला आदि जैसे दिव्यदेशों में बिना किसी अभाव के कैङ्कर्य किये जा रहे थे और सभी प्रसन्न थे, तुळव कुल में जन्म हुआ एक व्यक्ति जो विभिन्न स्थानों पर घूम रहा था श्रीवरवारमुनि स्वामीजी के पास आया और उनके दिव्य चरणों के शरण लिया। श्रीवरवारमुनि स्वामीजी ने अपनी विशेष कृपा उस पर बरसाई और उसे एक दास नाम प्रदान किया “श्रीरामानुज दास”। उन्होंने दयाकर श्रीरामानुज दास को अपना स्नेह कई दिव्यदेशों में कैङ्कर्य करने हेतु दिया। इसके परिणाम स्वरूप श्रीवरवारमुनि स्वामीजी के दिव्य कृपा से श्रीरामानुज दास द्वारा श्रीरङ्गम् से प्रारम्भ कर कई दिव्यदेशों में कैङ्कर्य हुआ। फिर जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं 

दोव्योत्सवपरसङ्गेषु देवदेवमदन्त्रितः।
आशासानस्समासीतन्नत्राक्षीत् रङ्गभूषणम्॥

(विशेष उत्सव के समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सर्वोच्च श्रीरङ्गनाथ​ भगवान कि पूजा किये और अपने विश्वासपात्र के रूप में मङ्गळाशासन् किये), दिव्य उत्सव के समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीरङ्गनाथ​ भगवान का मङ्गळाशासन् किया, कई प्रकार के प्रसाद कि तैयारी जैसे चेन्नेल्लरिचि परुप्पुच् चेय्दवक्कारम् न​ऱु नेय् पालाल् (लाल चावल, दाल चीनी, शक्कर, घी और दूध से मिठाई बनाना)। इसके अलावा प्रति वर्ष उन्होंने विशेष पाशुरों का अनुसन्धान किया जैसे ओन्ऱुम् तेवुम्, कण्णिनुण्चिऱुत्ताम्बु, श्रीरामानुसनूट्रन्दादि, आदि और प्रति दिन व्याख्यानों सहित दिव्य प्रबन्ध का अनुसन्धान किया। जैसे कि कहा गया हैं 

कस्तूरि हिमक​ऱपूर स्रक् ताम्बूलाऽनुलेपनैः।
दिव्यैरप्यभजत् भोज्यैः रङ्गनाथं दिने दिने॥

(प्रतिदिन वें श्रीरङ्गनाथ​ भगवान का कैङ्कर्य करते थे जैसे कस्तूरी, कपूर, पुष्पमाला, ताम्बूल, सुगंधीत द्रव्य, आदि अर्पण करना) और धनुर्मास महीने में 

कालेकोदण्ड मार्ताण्डे कङ्क्षन्ते वारुणोदयम्।
न्यशेवतविशेषेण शेषिणं शेषशायिनम्॥
मङ्गळानिप्रयुज्जानो माधवं प्रयत्यबोदयत्।
सम्यकेनं समप्यर्च्य सर्वदानुकथैः क्रमैः॥
स्वस्वकालोचितैर्दिन्यैः स्वसङ्कल्पोपलम्बितैः।
अभोजयतयं भोज्यैः शाखमूलफलादिभिः॥
सूभाऽभूप कृतक्षीर चर्करा सहितंहविः।

(प्रभात से पूर्व वें भगवान जो आदिशेष पर शयन किये हैं को दिव्य विशेष पूजा करते हैं। वें मंगल पाशुर का अनुसंधान करते और अम्माजी को संकेत देते कि जगाने का समय हो गया हैं। शास्त्र में कहे अनुसार वें सभी शैली से सही ढंग से पूजा तिरुवाराधन करते थे। अपनी स्थापित प्रथानुसार मौसमनुसार विशेष सामग्री जैसे विशेष सब्जीयाँ, कंद, फल आदि साथ में वडै (काले चने का घोल), दाल, घी, शक्कर, आदि और चावल भी)।  

पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि पर कृपाकर व्याख्या लिखते हैं 

पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि पर श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी ने जो व्याख्या लिखे हैं अंतिम ४० पाशुरों को छोड़ शेष पाशुर दुर्भाग्य से लुप्त हो गये [यह कहा गया हैं कि ताड़ के पत्तों पर हस्तलिपि को दीमक खा गया]। अपने दिव्य मन में लुप्त व्याख्या को पुनः लिखने हेतु उन्होंने तिरुप्पाणाऴ्वार् दास को संदेश भेजा जो आऴ्वार्तिरुनगरि  में  कैङ्कर्य कर रहे थे जैसे इस पाशुर में उल्लेख हैं 

सेन्तमिऴिल् आऴ्वार्गळ् सेय्द अरुळिच्चेयलै
सिन्दै सेयल् तन्नुडने सेप्पलुमाम्- अन्दो
तिरुप्पाणाऴ्वार् तादर् नायनार् सेर​
विरुप्पारागिल् नमक्कीडावर् यार्

(आऴ्वारों द्वारा कृपापूर्वक तमिऴ भाषा में लिखे गए दिव्यप्रबन्ध के लिए, मैंने मन, शब्द और गतिविधि के तीनों संकायों के साथ व्याख्यान लिखने कि इच्छा रखता हूँ। हालांकि ऐसा करने के लिये मुझे तिरुप्पाणाऴ्वार् दास अपने साथ मिल सकते हैं तो मेरी बराबरी कौन कर सकता हैं?) जैसे हीं तिरुप्पाणाऴ्वार् दास को आऴ्वार्तिरुनगरि  में यह संदेश प्राप्त हुआ वह बहुत प्रसन्न हुआ, संदेश को अपने सिर पर रखे, तिरुनंदवन के कैङ्कर्य (बगीचे कि देख रेक करना भगवान के लिये पुष्पहार बनाना) को छोड़ और तुरंत तिरुनगरि  से प्रस्थान किये। बहुत शीघ्र वें श्रीरङ्गम् पहुँचे और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों को साष्टांग दण्डवत किया। उनके प्रयासों और लालसा को महसूस करते हुए कि तिरुप्पाणाऴ्वार् दास ने उन्हें देखने से चूक गये थे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उन्हें ठंडे नेत्रों से आशीर्वाद दिया और उनसे कहा “तुम बहुत बुद्धिमान हो गये हो”। अगले दिन हीं उन्होंने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि पर व्याख्यान लिखना प्रारम्भ किया और जैसे हीं अंतिम ४० पाशुर तक पहुँचे वें रूक गये। वें दोनों को कृपाकर संयुक्त किया। 

कन्दाडै नायन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित व्याख्या कि प्रशंसा करते हैं 

कन्दाडै नायन् जो उस समय बहुत तरुण थे वहाँ कृपाकर पहुँचे। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और अभयप्रधराज (श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै) के व्याख्यानों का विश्लेषण किया। उन्होंने श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी के ४० पाशुरों को धरती पर रखा और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के व्याख्यानों को हाथ में ग्रहण कर कहे “बिना शेष ४० पाशुरों के यह व्याख्यान पूर्ण नहीं हैं”। यह सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी विचार किये इस तरुण अवस्था में उनके पास ज्ञान कि कितनी पूर्णत: हैं! कन्दाडै नायन् के नेत्रों में नजर डाले उस पर अपनी कृपा बरसाई और उससे पूछे “क्यों एक को अस्वीकार कर दूसरे का पोषण करते हैं? क्या ऐसा भेदभाव मौजूद हैं?” कन्दाडै नायन् ने उत्तर दिया “जैसे कोयल द्वारा चुगने पर वह फल मीठा होता हैं उसी तरह श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी कि व्याख्या श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा प्रस्तुत किये जाने पर अधीक मीठा हो जाता हैं। ज्ञान का पैमाना आवश्यक को स्वीकार करना और गैर आवश्यक को अस्वीकार करना हैं। इसके साथ यह इसमें महान सार के साथ जादू हैं”। यह सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए और नायन् को गले लगाकर खुशी मनाई। अत: श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि पर ऐसी व्याख्या रची कि जिसे सभी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने दयापूर्वक श्रीरङ्गराज​ कि विग्रह तिरुप्पाणाऴ्वार् दास को उनके तिरुवाराधन भगवान के रूप में दिया  जो उनके पास था और जिसमे श्रीपेरियवाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी का दिव्य स्पर्श था और उन्हें आऴ्वार्तिरुनगरि  कि ओर जाने कि आज्ञा प्रदान किये। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/18/yathindhra-pravana-prabhavam-92-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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