यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ९३

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकार आचार्य हृदयम् पर व्याख्या लिखते हैं 

तत्पश्चात अपने दिव्य शरीर के कमजोरी पर ध्यान ने देते हुए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने दिव्य मन में आचार्य हृदयम् (एक प्रबन्ध जिसे श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के अनुज अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार्​ ने रचा था) पर व्याख्या लिखने का निश्चय किया। वे दिव्य आसन पर शयन करते रहते थे, दिव्य गर्दन में दर्द होता और वें लिखते रहते थे। यह देखकर कन्दाडै अण्णन् ने पूछा “आप श्रीमान इतना क्यों कष्ट ले रहे हो?” श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपाकार उत्तर दिया “दास इतना कष्ट श्रीमान के पुत्र और पौत्र के लिये ले रहा हैं” और व्याख्या को लिखा। 

एट्टूर् सिंङ्गराचारियार् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण होते हैं; आठ गोत्रों का क्रम 

उस समय में एट्टूर् सिंङ्गराचारियार् जो श्रीशैल्लपूर्ण स्वामीजी [श्रीरामानुज स्वामीजी के मामाजी और उनके एक गुरु] के वंशज से हैं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव को सुनकर, अपना शर्म और अभिमान [एक महान वंश से आना] को त्याग कर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होते हैं क्योंकि उनके पास अकिंचन [स्वयं के पास दावा करने के लिये स्वयं के पास कुछ न होना] और अनन्यगत्तित्वम् [कहीं और नहीं जाना] है जो किसी व्यक्ति के शरण होने के लिये मूल आवश्यक हैं। एट्टूर् सिंङ्गराचारियार् द्वारा दिये गये धन से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने आऴ्वार्तिरुनगरि में दिव्य गोपुर का पुनः निर्माण का कार्य प्रारम्भ किये। जब थोड़ा धन कम पड़ रहा था तब पूर्वाश्रम मे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पौत्र नायनार् (अभिरामवराचार्य) ने धन संपाधान कर कार्य सम्पन्न किया। इसके पश्चात जीयर् ने पोळिप्पाक्कम् नायनार् को बुलाने भिजवाया, सप्तगोत्र निबंधन (सात गोत्र के लोगों को एक आयोजित व्यवस्था में लाना) की विधि कृपापूर्वक संपन्न किये, एट्टूर् सिंङ्गराचारियार् को भी समाविष्ट कर अष्टगोत्रसंख्यै (आठ गोत्रों का समूह) बनाया। जैसे कि इस श्लोक में कहा गया हैं 

जगत् रक्षोपरोऽनन्तो जनिष्यत्यपरोमुनिः।
तदाश्रयाः सदाचार्याः सात्विकाः तत्व दर्शिनः॥

(आदिशेष जो पूर्णत: संसार के रक्षण में (श्रीरामानुज स्वामीजी के अवतार को छोड़ दूसरे) निरत हैं वें एक और मुनि (वह जो दूसरे के कल्याण के लिये ध्यान करता हैं) का अवतार लेकर प्रगट होंगे; जो इनके शरण होगा उनके पास विशुद्ध रूप से उनके पास अच्छे आचरण, अच्छे गुण और सभी अस्तित्व के अर्थों को सहीं ढंग से जानेंगे), जिन लोगों ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की शरण हुए हैं वें अच्छे आचरण वाले हैं, अच्छे कार्य में निरत हैं, पूर्णत: तत्त्वों के अर्थों को जानते हैं और निरंतर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि पूजा करते हैं।  

अष्टदिग्गज

जैसे इस पाशुर में उल्लेख हैं 

पारारुमङ्गै तिरुवेङ्गडमुनि बट्टर्पिरान्
आरामम् सूऴ् कोयिल् कन्दाडै अण्णन् एऱुम्बियप्पा
एरारुमप्पिळै अप्पिळार वादि भयङ्कररेन्
पेरार्न्द दिक्कयन्सूऴ् वरवरयोगियैच् चिन्दियुमे

मूलत: श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के आठ मुख्य शिष्य हैं वानमामलै जीयर्, तिरुवेङ्गडम् रामानुज जीयर्, भट्टर्पिरान् जीयर्, कोयिल् अण्णन्, एऱुम्बियप्पा, अपिळ्ळै, अप्पिळ्ळार् और प्रदिवादिभयङ्करम् अण्णा स्वामीजी। इन अष्टदिग्गज (आठ दिशाओं में हाथी) के अलावा अन्य मुख्य शिष्य थे जैसे तिरुपाणाऴ्वार् दास, एट्टूर् सिंङ्गराचारियार्, वरम् तरुम् पेरुमाळ् पिळ्ळै, मेनाट्टुत् तोऴप्पर्, अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  नायनार्, जीयर् नायनार्, अण्णराय चक्रवर्तिगळ्, आदि सभी पिछले बताये श्लोक अनुसार हैं जगत् रक्षोपरोऽनन्तो ……. तत्व दर्शिनः, महान जन, बहुत अच्छे आचरण में निरत, सम्प्रदाय के तत्त्वों को जानते और संसार को ऊपर उठाने में हीं अपना जीवन व्यतित करते हैं। 

शिष्यों को कैङ्कर्य​ सौंपे 

अष्टदिग्गज सहित जिन शिष्यों का नाम अभी लिया गया वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों में नित्य कैङ्कर्य​ करते थे: 

  1. वानमामलै जीयर् – अपने प्रारम्भ के दिनों से हीं, एक प्रतिष्ठित, एक स्नेही व्यक्ति के रूप मे जब उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण हुए वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के साथ थे। 
  2. कोयिल् अण्णन् – जैसे श्रीदाशरथी स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के लिये थे वैसे इस पद में हैं रामानुजमुनीन्द्रस्य श्रीमान्दासरथिर्यता, अण्णन् भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति बहुत स्नेही थे और उनके सुरक्षा कि देख रेख करते थे 
  3. एऱुम्बियप्पा – जैसे श्रीआंध्रपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के लिये थे वैसी हीं वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को बहुत प्रेम करते थे, उन्हें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को छोड़ अन्य कोई स्वामीजी पता नहीं थे जैसे इस शब्द में कहा गया हैं देवुमट्रऱियेन् (मैं अन्य कोई स्वामी को नहीं जानता हूँ) 
  4. प्रदिवादिभयङ्करम् अण्णा स्वामीजी – वें रामानुज स्वामीजी के लिये कुरेश स्वामीजी के समान थे; वें अन्य सम्प्रदाय से लोगों को दूर करने में लगे हुए थे और श्रीभाष्यम में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के निरंतर साथी थे। 
  5. सेनैमुदलियारण्णन्, श्रीशठकोप दास, अपिळ्ळै, तिरुप्पाणाऴवार् दास – यह सभी शिष्य श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य प्रबन्ध जैसे श्रीसहस्रगीति में साथी थे। विशेषरूप से अपिळ्ळै जिन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के आज्ञा से पाँच तिरुवन्दादि [मुदल, इरण्डाम्, मून्राम्, नान्मुगन और पेरिय तिरुवन्दादि] पर विस्तृत टिप्पणी लिखे; उन्होंने    श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित यतिराज विंशती पर भी व्याख्या लिखे। 
  6. अप्पिळ्ळार् – वें मठ के सभी प्रशासनीक कार्य को देखते थे, प्रत्येक समय के लिये उपयुक्त विभिन्न खाद्य पदार्थ जैसे चावल, दाल, सब्जी, दूध, घी, दही, आदि के पकाने की व्यवस्था करते थे। 
  7. भट्टर्पिरान् जीयर् – जैसे श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के लिये थे वैसे हीं भट्टर्पिरान् जीयर् श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों की छाया थे। स्वयं को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से अलग नहीं रखने में असमर्थ थे, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की पूर्ण सेवा करते थे, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी में पूर्ण निरत थे और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी हीं मेरे स्वामी हैं और कोई नहीं बस यही जानते थे। 
  8. जीयर् नायनार् – एक राजकुमार समान उन्हें सभी पसंद करते; जैसे तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान् श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति थे वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सबसे अधीक समर्थक थे। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/19/yathindhra-pravana-prabhavam-93-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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