श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
पेरीय जीयर्, जो ऐसे शिष्यों द्वारा पूजे गये हैं, जिन्होंने संसार के लोगों को अर्थ पञ्चकम् (स्वयं को जानने के पाँच तत्त्व, भगवान को जानना, भगवान को प्राप्त करने का उपाय, भगवान को पाने का महानतम लाभ और भगवान तक पहुँचने में बाधाएँ) में निरत होने को कहा। उन्होंने चरम उपाय (अपने आचार्य को पकड़कर रहना) में संलग्न होकर उनका उत्थान किया। उन्होंने कन्दाडै अण्णन् और श्रीप्रदिवादिभयङ्करम् अण्णा स्वामीजी को नायनार् को ईडु सहस्रगीति और श्रीभाष्यम सिखाने कि आज्ञा किये।
जब वें ऐसे जीवन व्यतित कर रहे थे तो सभी को ऊपर उठाना और कृपा करना यहाँ तक कि स्तावरम् (पेड़) जैसे इमली के पेड़ को भी अपने निर्हेतुक कृपा से मोक्ष प्रदान किये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने एक पाशुर का अनुसंधान किया जिसमें अपने गुणों को बताया:
तेन्नरङ्गर् चीररुळुक्कु इलक्काकप् पेट्रोम्
तिरुवरङ्गत् तिरुप्पदिये इरुप्पाकप् पेट्रोम्
मन्निय चीर्माऱन् कलै उणवाकप् पेट्रोम्
मधुरकवि सोऱपडिये निलैयाकप् पेट्रोम्
मुन्नवराम् नम् कुरवर् मोऴिगळ् उळ्ळप्पेट्रोम्
मुऴुदुम् नमक्किवै पोऴुदुपो क्काकप् पेट्रोम्
पिन्नै ओन्ऱुतनिल् नेञ्जम् पोऱामऱ पेट्रोम्
पिऱर्मिनुक्कम् पोऱामै इल्लाप् पेरुमैयुम् पेट्रोमे
(हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें श्रीरङ्गनाथ भगवान की महान कृपा पात्र बनना पड़ा; हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें श्रीरङ्गम् दिव्यधाम हमारे निवास स्थान के रूप मं प्राप्त हुआ; हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें श्रीशठकोप स्वामीजी द्वारा रचित श्रीसहस्रगीति को हमारे उत्सव रूप में प्राप्त हुआ; श्रीमधुरकवि आऴ्वार् के शिक्षा के अनुरूप हम अपने आचार्य के साथ गहराई से जुड़े होने के लिये भाग्यशाली हैं; हम अपने आचार्य के शिक्षा को आत्मसात करने में भाग्यशाली हैं; हम भाग्यशाली थे कि उद्देशपूर्ण तरीके से समय व्यतीत करने के लिये ये हमारे सहायता के रूप में थे; हम भाग्यशाली थे हमारे मन में किसी ओर में दिलचस्पी नहीं थी; दूसरों के उत्कृष्टता में ईर्ष्या न करने कि महानता पाने में हम भाग्यशाली थे)।
जैसे इस पध्य में उल्लेख हैं यम्यम् स्पृशति पाणिभ्याम् (उन्होंने जिसे भी अपने दिव्य हाथों से स्पर्श किया हो), एक पेड़ के जीवन का भी उद्दार कर दिया उनके दिव्य हाथों के स्पर्श से तो क्या हमें उनसे मनुष्य के उद्दार के विषय में बात करना चाहिये? निम: श्लोक श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से प्राप्त लोगों को लाभ के विषय में बताता हैं:
तत्पादपद्म सम्स्पर्श पावनं सलिलं जनाः।
स्वीकुर्वन्तः सुखेनैव सवरूपं प्रदिभेदिरे॥
आलोकैः अनुकम्पादैः आलापैः अमृतच्युतैः।
अन्वहं पाणिचादस्य स्पर्शयन्यासैश्च भावनैः॥
मन्त्ररत्न प्रधानेन तदर्थ प्रतिपादनात्।
आत्मार्पणेन कदिचित् अज्ञातज्ञापनेन च॥
केचित् क्षेमं युयुस्तस्य पादपद्मस्य सम्श्रयात्।
अन्ये तत् रूप नित्यानाथन्ये तन्नामकीर्तनात्॥
श्रुत्वा तस्य गुणान् दिव्यान् स्तुत्वातानेव केचन।
नत्वातां दिशमुद्दिश्य स्मृत्वा तत् वैभवं परे॥
अपतिश्यगमं अप्येनमन्ये प्रतित वैभ्वम्।
अन्ये तत् भृत्य भृत्यानामलोक स्पर्शनातपि॥
अन्ये तत् पादसंस्पर्श धन्ये सम्भूय भूतले।
अभवन् भूयता तस्य मुनेः पात्रं कृपादृशाम्॥
एवं सर्वे मुनीन्द्रेण बभूवुस् स्रस्त बन्धनाः।
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों के साथ सम्बन्ध के कारण उनके शिष्य उनके श्रीपाद तीर्थ को आत्मसात करके उनके स्वभाव (जो कि सेवा हैं) को आसानी से समझ गये; कुछ जनों ने उनके दिव्य दृष्टि से, अमृत कि तरह बहनेवाली उनकी अविरल कृपा से, उनके दिव्य चरणों के स्पर्श से, उन दिव्य चरणों में समर्पण के माध्यम से, द्वय महामन्त्र को प्राप्त कर, जिसे मन्त्र रत्न माना जाता हैं और इनके अर्थों को सीखकर स्वयं को ऊपर उठाया; कुछ ने उनके सामने आत्मसमर्पण करके, उनसे अपनी अज्ञानता के विषय में प्रार्थना करके उत्थान किया; कुछ लोगों ने उन महान मुनि के दिव्य रूप को अपने ध्यान का विषय बनाया, कुछ ने उनका नामस्मरण किया, कुछ ने उनके दिव्य गुणों को श्रवण किया और उन दिव्य गुणों के माध्यम से प्रशंसा किये; कुछ ने पूजा किये और कुछ ने उस दिशा में साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया जिस दिशा वें दयापूर्वक निवास करते थे; कुछ उनके महानता के बारें में सोचते और खुश होते; कुछ ऐसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दासों के दास की दिव्य दृष्टि के माध्यम से जिनकी ऐसी महिमा थी और इस धरती पर जन्म लेने के कारण जो उनके दासों के दास के स्पर्श से शुद्ध हो गये, उनके दिव्य दृष्टि के पात्र बन गये और उनका उद्दार हो गया; इस प्रकार मुनीन्द्र (यतियों के राजा) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की कृपा से सभी ने अपने बंधनों से छुटकारा पा लिया)। इस प्रकार उन लोगों से प्रारम्भ करते हुए जिन्होंने उनका श्रीपादतीर्थ लिया था, जिन्हें उनके दृष्टि का पात्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जो उनका ध्यान कर रहे थे, जो उनके संपर्क में थे, बिना किसी भेदभाव के उन लोगों के बीच जो उनके निकट थे और जो उनसे बहुत दूर रहते थे और जो आगे इस संसार में आने वाले हैं, सभी को इस संसार बंधन से मुक्त कर दिया, सभी संसार इस बात कि परवाह किये बिना कि क्या यह संसार या परमपदधाम था, सुनहरे रंग का, इस हद तक कि उन्हें ठीक करने के लिये लोगों को खोजना पड़ता था।
सर्वावस्था सदृशविभवा शेष कृत्वं रम्याभर्तुः
त्यक्त्वा तदपि परमं धाम तत्प्रीति हेतोः
मघ्नानघ्नौ वरवरमुने मातृशान् उन्निनीषन्
मर्त्यावासे भवसि भगवन् मङ्गळं रङ्गधाम्नः
(ओ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जो दिव्य गुणों से सम्पूर्ण हैं! श्रीमान सभी राज्यों में भगवान जो श्रीमहालक्ष्मीजी के पति हैं के लिये सभी यशस्वी सेवा कर रहे थे। श्रीमान उस परमपदधाम को भी छोड़ और भगवान के प्रति प्रेम के कारण दास जैसे जनों को जो इस संसार रूपी अग्नि में डुबे हैं को ऊपर उठाया; श्रीमान इस दिव्य धाम श्रीरङ्गम् में एक उज्ज्वल दीपक के रूप में शेष हैं)। इसके साथ उन्होंने अपने इस अवतार के उद्देश को पूर्ण किया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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