श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का श्रीवैकुण्ठ जाने के लिये आग्रह
श्रीवानमामलै जीयर् स्वामीजी के कुछ दिनों के जाने के पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को पुनः प्राप्य भूमि (श्रीवैकुंठ) कि ओर स्नेह हुआ, त्याज्यभूमि (संसार) के प्रति घृणा हुआ और भगवान के अनुभव के अभाव में स्वयं को बनाए रखने में असमर्थ थे। आगे श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति अपार प्रेम, उनका लक्ष्य सभी कई गुणा बड़ गई। उस अनुभव को प्राप्त न करने के कारण (क्योंकि वें अभी भी संसार में थे) वह उत्कंठा और गहरी हो गई। इसके परिणाम स्वरूप परमभक्ति हो गई; वें प्रतिदिन श्रीरामानुज स्वामीजी को अपनी इच्छा प्रगट करते थे; यह प्रार्थना प्रबन्ध हो गई जिसे आर्ति प्रबन्धम् (दिव्य भजन उनके आग्रह को व्यक्त करते हैं) कहते हैं जो वाऴि एदिरासन् (श्रीरामानुज स्वामीजी बहुत समय तक इस संसार में रहे) से प्रारम्भ होते हैं, एम्पेरुमानार् तिरुवडिगळे शरणम् (मैं श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होता हूँ) और इरामानुसाय नमः (मैं केवल श्रीरामानुज स्वामीजी का हूँ और किसी का नहीं; मैं श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति सभी कैङ्कर्य करूंगा ताकि वें प्रसन्न रहे) मध्य के पाशुर और अंत के पाशुर के रूप में इन्द अरङ्गत्तु (इस श्रीरङ्गम् में)। साठ जैसे पाशुर एक साथ होकर आर्ति प्रबन्धम होता हैं। इसके साथ यह यहाँ रूका नहीं और आगे प्रसार प्रचार हुआ और यह कहते हुए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी स्वयं को दिलासा दिये
एम्पेरुमानार् तम्पिरान् एन्नुम् अवरै
नम्पेरुमाळ् तामुगन्दु नाळ्तोऱुम् नम्परमा
एऱिट्टुक्कोण्डु अळिप्पार् एन्नुम् अवर् तम्मै
वेऱिट्टुत् ताम् कैविडार्
(श्रीरङ्गनाथ् भगवान उनसे प्रसन्न होंगे जो श्रीरामानुज स्वामीजी को अपने स्वामी के रूप में स्वीकार करेंगे और उन्हें उनके उत्थान के लिये अपना उत्तरदायितत्व मानते हैं। ऐसी स्थिति में वह उन लोगों को निराश नहीं करेंगे)
वे भ्रमित हो जाते हैं और यह पाशुर का अनुसन्धान कर पूर्वाचार्यों कि सहायता लेते थे।
पोल्लान् इवनेन्ऱु पोदिडेन्ऱु नम् कुरवर्
एल्लार्गळ् एन्नै इगऴ्दारो नल्लर्गळ्
वाऴ्वान वैगुन्दवान् सबैयिल् वण्कूरत्तु
आऴ्वान् इरुन्दिलनो अङ्गु ?
(क्या हमारे पूर्वाचार्य यह कहकर मेरा तिरस्कार करेंगे कि यह व्यक्ति [स्वयं को संभोधित करते हैं] एक दुष्ट व्यक्ति हैं और उसे श्रीवैकुण्ठ में नहीं आना चाहिये? श्रीवैकुण्ठ में प्रतिष्ठित जनों कि उस सभा में क्या श्रीकुरेश स्वामीजी उपस्थित नहीं हैं? [श्रीकुरेश स्वामीजी का उल्लेख इसलिये किया गया हैं क्योंकि श्रीकुरेश स्वामीजी ने नालूराच्चान् पिळ्ळै के लिये भी श्रीवैकुण्ठ की मांग कि थी जिसने चोऴ राजा कि सभा में उनके और श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के नेत्रों को छोट पहुंचाया था])
वें विभिन्न संस्थाओं का आह्वान करते थे जो श्रीवैकुण्ठ में उनकी ओर से अनुशंसात्मक भूमिका निभायेंगे जैसे पाशुर द्वारा बताया गया हैं
आरियर्गाळ्! आऴ्वार्गळ्! अङ्गुळ्ळ मुक्तर्गाळ्!
सूरियर्गाळ्! देवियर्गाळ्! सोल्लीरो नारणऱकु
एङ्गळ् अडियान् इवनुम् ईडेऱवेणुम् एन्ऱु
उङ्गळ् अडियारुम् उळर्
(ओ प्रतिष्ठित जन! ओ आऴ्वार्! ओ मुक्तामा जो वहाँ हैं! ओ नित्यसूरि! ओ नित्यसूरि कि दिव्य सखियाँ! क्या आप भगवान श्रीमन्नारायण से यह नहीं कहेंगे कि यह व्यक्ति (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, स्वयं को संभोधित करते) जो हमारे अनुयायी हैं उनका भी उत्थान होना चाहिये?)
वें श्रीमहलक्ष्मीजी से प्रार्थना करेंगे इस पाशुर के माध्यम से और उन्हें अपनी माँ कहेंगे
तेन्नर्ङ्गर् देविये चीरङ्गनायगिये!
मन्नुयिर्गट्केल्लाम् मातावे- एन्नै इनि
इव्वुलगम् तनिलिरुन्दु नलङ्गामल्
अव्वुलगिल् वाङ्गियरुळ्
(ओ श्रीरङ्गनाथ् भगवान कि दिव्य पत्नी जो दक्षीण दिशा में हैं! हे श्रीरङ्गम् के स्वामी! ओ इस संसार की माता! आप मुझे इस संसार से उठा लिजीए और मुझे श्रीवैकुण्ठ में बिना किसी असुविधा के वहाँ रख दीजिये)
चीरङ्गनयगिये! तेन्नरङ्गन् देविये!
नारङ्कट्केल्लाम् नट्राये! मारुदिक्कु
वन्दविडाय् तन्नै ओरु वासगत्ताल् पोक्किन नी
एन्दनिडर् तीराददु एन्?
(हे श्रीरङ्गम् के स्वामी! ओ श्रीरङ्गनाथ् भगवान कि दिव्य पत्नी! संवेदनशील अस्तित्व की दिव्य माँ! आपने हनुमानजी के लिये एक शब्द का उल्लेख किया था जब वें कठिन परिस्थिति में थे (यहाँ उस घटना का संदर्भ हैं जब माता सीता अग्नि देव से प्रार्थना करती हैं कि वें हनुमानजी को क्षति न पहुंचाये जब हनुमानजी कि पूंछ को रावण ने अग्नि लगायी थी); आप मेरे बाधा को क्यों नहीं मिटाते हो?)
जैसे कि पाशुर में बताया गया हैं कि वे अपनी इच्छा प्रगट करते हुए भगवान से प्रार्थना करेंगे
इन्द उडम्बोडु इनि इरुक्कप् पोगाददुदान्
चेङ्कमलत् ताळ् तन्नैत् तन्दु अरुळ् नी अन्दो
मैयार् करुङ्कण्णि मणवाळा! तेन्नरङ्गा!
वैयामल् इरुप्पाये इङ्गु
(इस रूप में अब और रहना सम्भव नहीं हैं; कृपाकर आप मुझे अपने सुनहरे कमल जैसे दिव्य चरणों को प्रदान करें। हे श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी जिनके नेत्र सावंले हैं! ओ श्रीरङ्गनाथ् भगवान! अब मुझे इस संसार में और मत रखिये)
इस पाशुर का पाठ करते हुए उन्होंने श्रीकुलशेखर आऴ्वार् से प्रार्थना किये जो बड़े आग्रह के साथ कहे थे “मैं कब भगवान के अनुयायी के गोष्ठी के साथ मिलूंगा”
चेन्ऱु तिरुमाल् अडियार् देय्वक्कुऴाम् कूडुम्
एन्ऱुम् ओरु नाळामो? आऴ्वारे! तुन्नुपुगऴ्क्
कमलम् पाडिनीरैयो अडियेनुमिक्
कमलम् सेर कायम् विट्टु
(क्या मैं कभी भगवान के भक्तों कि गोष्ठी में शामिल हो पाऊँगा? हे आऴ्वार्! आपने भगवान के दिव्य चरणों के बारें में गाया था (भिन्नता का अर्थ: आपने भगवान के दिव्य चरणों का अर्थ पूरी तरह गाया था)। क्या मैं इस स्थूल रूप को छोड़कर उन दिव्य चरणों को प्राप्त कर लूँगा?)
वें पुनः भगवान के प्रार्थना करते हैं कि वें पाशुर का पाठ करके उनके प्रति दया दिखायेंगे
इन्द उडम्बोडु इरुविनैयाल् इव्वळवुम्
उन्दन् अडिचेरादु उऴन्ऱेने- अन्दो
अरङ्गा! इरङ्गाय् एदिरासर्क्काग
इरङ्गाय् पिराने इनि
(मैं इस भौतिक रूप से संघर्ष कर रहा हूँ। आपके दिव्य चरणों को प्राप्त न करके दोहरे कर्मों (गुणों और दोषों) से ग्रस्त हो रहा हूँ! ओ श्रीरङ्गनाथ्! श्रीरामानुज स्वामीजी के लिये दया दिखाओं। हे दाता अब मुझपर दया दिखाओं)।
जैसे तिरुविरुत्तम् पाशुर में कहा गया हैं “तिरुवरङ्गा! अरुळाय इनियुन तिरुवरुळन्ऱि काप्परिदै” (ओ श्रीरङ्गनाथ्! अपनी कृपा बरसाये। आपके दिव्य कृपा के बिना उनकी रक्षा करना असंभव हैं), उन्होंने अपनी लालसा व्यक्त किये जैसे कि पेड़ भी दया दिखायेंगे। वें श्रीरामानुज स्वामीजी के माध्यम से प्रार्थना कर रहे थे, उनकी करुणा कि मांग कर रहे थे। वें उस स्थिती में पहुँच गये जहां श्रीवैकुण्ठ पहुँचने तक स्वयं को बनाये नहीं रख सकते हैं।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/23/yathindhra-pravana-prabhavam-96-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org