श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
वानमामलै जीयर् स्वामीजी कृपाकर लौटते हैं
तत्पश्चात वानमामलै जीयर् स्वामीजी उत्तर भारत कि यात्रा से लौटे; जब वें तिरुमला के निकट थे तब उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के श्रीवैकुण्ठ को पधारने के समाचार सुने। वें निराश महसूस कर रहे थे। वें तिरुमला गये और कुछ समय के लिये वहाँ निवास किये और अपने दुख को सह रहे थे। वें श्रीरङ्गम् को लौये और यात्रा में प्राप्त सम्भावना उन्होंने श्रीरङ्गनाथ भगवान को अपने कैङ्कर्य रूप में अर्पण किया। फिर बहुत व्यतित होकर मठ को गये। उन्होंने जीयर् नायनार् को प्रणाम कर और तुरंत अपना कैङ्कर्य वहाँ पूर्ण कर वानमामलै के लिये लौट गये। फिर वें पुनः तिरुमला गये और मध्य में एऱुम्बि भी गये और कुछ समय वहाँ निवास किये और कृपाकर तिरुवाय्मोऴि ईडु सुद्धसत्वम अण्णन् और पोळिप्पाक्कम् नायनार् को सिखाया। फिर वें वानमामलै को लौट गये और देय्वनायगन् (तोत्ताद्री में भगवान के उत्सव मूर्ति का नाम) को अपना कैङ्कर्य किये।
भट्टर्पिरान् जीयर् कृपाकर अंतिमोपाय निष्ठा कि रचना किये
भट्टर्पिरान् जीयर् जिनका एक और नाम “वडमामलैक्कदिपर् भट्टनाथ मुनि” (तिरुमला के स्वामी, भट्टनाथ मुनि) कृपाकर तिरुमला को गये और अण्णराय चक्रवर्ति, तोऴप्पर्, नायनार्, परवस्तु अण्णन्, परवस्तु अऴगियमण्वाळ जीयर् को पढ़ाया, निर्देश दिये और सम्प्रदाय के प्रवर्तक बनाया। सभी चेतनों का उत्थान करने हेतु और यह प्रगट करने के लिए कि वें अंतिमोपाय निष्ठाग्रेसरर् हैं उन्होंने कृपाकर अंतिमोपाय निष्ठा नामक ग्रन्थ कि रचना किये जो रहस्य ग्रन्थ में परम हैं। उन्होंने श्लोक कि रचना किये
अन्तिमोपाय निष्ठाया वक्ता सौम्यवरो मुनिः ।
लेखकस्यान्वयो मे अत्र लेखनीतालपत्रवत् ।।
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर अंतिमोपाय निष्ठा नामक ग्रन्थ कि रचना किये। दास का इसके साथ सम्बन्ध केवल ताड़ के पत्ते और इस पहली प्रति के लिये लेखन उपकरण होना रहा हैं) और तमिऴ् पाशुर
एन्दै मणवाळयोगि एनक्कळित्त
अन्तिमोपाय निट्टैयामिदनै चिन्दैच्चेय्दु
इङ्गेल्लारुम् वाऴ एऴुदि वैत्तेन् इप्पुवियिल्
नल्लऱिवु ओन्ऱिल्लाद नान्
(यह अंतिमोपाय निष्ठा कृपाकर मेरे स्वामी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने मुझे प्रदान किये हैं। मैंने बिना अच्छे ज्ञान के केवल इसे लिखा हैं ताकि सभी का इस संसार सागर से उत्थान कर सके) इस ग्रन्थ में स्वयं के लिये कोई भी स्वामित्व को स्पष्ट रूप से नकारने के लिये हैं।
तिरुनारायण के उद्यान में दिव्य कैङ्कर्य
तोऴप्पर् जिन्होंने भट्टर्पिरान् जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों में शरण लिये हैं, जो स्वयं एक आचार्य परतन्त्र हैं (पूर्णत: आचार्य पर निर्भर), और उनके बड़े भाई अऴगियमण्वाळ दास नायनार् को जैसे कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा आज्ञा दिया गया था और भगवान के अनुमति से श्रीरङ्गम् में निवास करते हुए दयापूर्वक तिरुनारायणपुरम् गये और श्रीरामानुज स्वामीजी और श्रीसेल्वप्पिळ्ळै भगवान का कैङ्कर्य किये, वहाँ भगवान के लिये एक दिव्य उद्यान स्थापित करने के साथ प्रारम्भ किया। उन्होंने वहाँ बहुत जनों को सुधारा, उन्हें जीयर् के प्रति इस समान आदरणीय बनाया कि श्रीशैलेश दयापात्रम की महिमा श्रीशैलम के पश्चिम के क्षेत्रों में भी सुनाई दी। वें तिरुनारायणपुरम् में यतिराज मठ के पीछे निवास करते थे। तत्पश्चात जो उनके बाद जो उनके वंश में आये जैसे अय्यन आदि भी उस कैङ्कर्य में हीं लग गये और उसे बहुतायत में किया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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