श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
शिष्य दृढ़ता से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के साथ जुड़े हुए हैं
इस प्रकार सभी शिष्य जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण हुए है वें आचार्य अभिमान निष्ठा (आचार्य के प्रति श्रद्धा और दृढ़ता के साथ रहना) के साथ रहते थे, कृपाकर अपने शिष्यों को भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होने को कहे जो यतीन्द्र प्रवणर् (श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति स्नेह) हैं। वें भी ऐसे हीं जीवन व्यतीत कर हैं जैसे उत्तर दिनचर्या के श्लोक में कहा गया हैं
अपगतमतमानैः अंतिमोपाय निष्ठैः
अतिगतपरमार्थैः अर्थकामान अपेक्षै: ।
निखिलजनसुहृद्भिः निर्जित क्रोध लोभै:
वरवरमुनि भृत्यै: अस्तु मे नित्य योग: ॥
(दास का श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्यों के साथ सम्बन्ध होना चाहिये जो अहंकार रहित और जो स्वयं को स्वतन्त्र महसूस [आचार्य के] किए बिना हैं, जो इस विश्वास पर दृढ़तापूर्वक हैं कि आचार्याभिमान [आचार्य के प्रति अभिमान] हीं अंतिम साधन हैं (कर्म, ज्ञान, भक्ति और आचार्याभिमान में), जो आचार्य कैङ्कर्य को करते हैं, जो पुरुषार्थ के लिये बाहरी सीमा के रूप में माना जाता हैं, जो धन के प्रति किसी भी इच्छा के बिना हैं और उस धन के साथ कामुक सुखों में लिप्त हैं, जो शत्रुतापूर्ण लोगों के प्रति भी अच्छा स्वभाव रखते हैं और जिन्होंने क्रोध और लोभ को जीत लिया है), सभी धन को कुश के समान मानते हैं, आचार्य के प्रति कैङ्कर्य कि इच्छा रखते हैं, इस विश्वास में दृढ़ता से निहित होना कि आचार्य के प्रति श्रद्धा ही इस संसार से परम साधन हैं, दोनों विभूति (संसार और श्रीवैकुंठ) को एक मानकर दोनों के मध्य कि दीवार को तोड़ दिया।
श्रीशठारिगुरोर्दिव्य श्रीपादाब्जमधुव्रतम्।
श्रीमद् यतीन्द्रपरवणं श्रीलोकार्यमुनिं भजे॥
(मैं श्रीपिळ्ळैलोकं जीयर् स्वामीजी कि पूजा करता हूँ जो श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति स्नेह रखते हैं और जिनके दिव्य चरण कमलों से मधु टपकता हैं और जो दिव्य आचार्य हैं)
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/10/30/yathindhra-pravana-prabhavam-103-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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