यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग १०६

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

<< भाग १०५

जैसे प्रणवम् [ॐ] को “यद्वेदादौस्वरः प्रोक्तो वेदान्तेच प्रतिष्ठितः” कहा जाता हैं (प्रणवम का पाठ वेदों के पाठ के प्रारम्भ और अंत में किया जाता हैं), यह तनियन [श्रीशैलेश दयापात्रं:] जिसकी यहाँ रेखांकित की गई महिमा हैं और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के स्तुति के रूप में सभी दिव्यप्रबन्ध और रहस्य के आरंभ और अंत में सभी महत्त्वपूर्ण अधिकारी (जो उपरोक्त पाठ करने के योग्य हैं) द्वारा इनका पाठ किया जाता हैं। 

प्रणवम् में “अ” कार भगवान को संभोधित करता हैं, “म” कार चेतनों को संभोधित करता हैं और “उ” कार दोनों के मध्य में सम्बन्ध को संभोधित करता हैं। प्रतिष्ठित जन “अव्वानवर्क्कु मव्वानवरेल्लाम् उव्वानवरडिमै” कहेंगे (भावनात्मक जन तो भगवान के सेवक हैं)। इस का अर्थ तनियन् के हर पद्य में देखा जा सकता हैं जैसे यहाँ दिखाया गया हैं: 

श्रीशैलेश दयापात्रम् : श्रीशैलेश पद भगवान को संभोधित करता हैं जो अकार वाच्यन हैं। दयापात्रम् – शब्द इस तथ्य को संभोधित करता हैं कि चेतना ऐसे भगवान को छोड़ अन्य किसी के अस्तित्व के लिये नहीं हैं और वह भगवान के दयापात्र हैं। प्रमाण अनुसार जाते हैं तो आचार्यः सः हरिः साक्षात् आचार्य स्वयं भगवान हैं। 

धीभक्तयादिगुणार्णवम् : जैसे दिव्यप्रबन्ध के पाशुरों में कहा गया हैं जैसे तामरैयाळ् केळ्वन् ओरुवनैये नोक्कुम् उणर्वु (चेतन विशेष रूप से श्रीमहालक्ष्मीजी के दिव्य पति के लिये मौजूद रहेगी), आदियन्चोदिक्के आराद कदल् (विश्लेषण करने के पश्चात वह अन्य देवताओं कि पूजा नहीं करेगी), क्योंकि धीभक्तयादिगुणार्णवम् : ज्ञान, भक्ति और वैराग्य को संभोधित करता हैं, वह भक्ति के माध्यम से भगवदशेषत्वम्  (केवल भगवान के प्रति हीं कैङ्कर्य करना) को संभोधित करता हैं। क्योंकि स्वरूप (चेतनों कि मूल प्रकृति) जो कि उन्निणैत् तामरैगट्कु अन्बुरुगि निऱुकुमदे​ (भगवान के दोनों दिव्य चरणो कमलों के प्रति स्नेह) हैं, केवल भगवान के प्रति ज्ञान हैं, ज्ञान को उसी के बारे में परिभाषित किया गया हैं शेषत्वम (भगवान का कैङ्कर्य करना)। वैराग्य को अन्य देवताओं को दिए जाने वाले किसी भी महत्व को अस्वीकार करने के रूप में परिभाषित किया गया है। 

यतीन्द्रप्रवणम् : यतीन्द्रर्  शब्द उस स्थिति को संभोधित करता हैं जहां सभी पूर्णत भगवान पर निर्भर हैं और जो कोई भी कैङ्कर्य नहीं करते हैं और निष्क्रिय रहते हैं उन्हें श्रीमहालक्ष्मीजी के दिव्य पति के सेवा करने के लिये तैयार करते हैं। इस कारण से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति स्नेही हो जाते हैं। भगवद अनन्यार्हा शेषत्वम का स्वभाव (विशेष रूप से भगवान के लिये उद्यमान होना) उनके अनुयायि के स्तर तक भी बढ़ना चाहिये। इसके अतिरिक्त यतीन्द्र शब्द श्रीरामानुज स्वामीजी को एक विशिष्ट रिती से संभोधित करता हैं। रामानुज में शब्दांश राम अकारवाच्यन् (भगवान) को संभोधित करता है और शब्दांश अनुज चेतन को संभोधित करता है जो कैङ्कर्य करता है। स्नेह कि स्थिति का उल्लेख रामानुजं यतिपतिं प्रणमामि मूर्ध्ना के श्लोक में किया गया हैं (मैं उन श्रीरामानुज स्वामीजी के नत मस्तक होता हूँ जो यतियों के राजा हैं)।  

वंदे रम्यजामातरं मुनिम् : यह वही बताया अर्थ देता हैं। रम्यजामातृ शब्द अकारवाच्यन को करता है, मुनि शब्द परमचेतन को करता है जिसे विशेष रूप से भगवान का सम्पूर्ण ज्ञान हैं। इस प्रकार इन शब्दों में यह सोचना अनुचित नहीं हैं कि वें प्रणवम के अर्थों को संभोधित करता है। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/11/01/yathindhra-pravana-prabhavam-106-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

Leave a Comment