श्रीवचन भूषण – अवतारिका – भाग ३ 

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नम:

पूरि श्रृंखला

पूर्व​

अब हम अवतारिका के अंतिम भाग को जारी रखेंगे। इस खंड में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते हैं कि श्रीवचन भूषण द्वय महा मन्त्र को विस्तार से समझाते हैं जैसे कि श्रीसहस्रगीति में किया गया हैं। 

श्रीशठकोप स्वामीजी

श्रीसहस्रगीति जिसे दीर्घ शरणागति से जाना जाता हैं उसीके समान यह प्रबन्ध द्वय महा मन्त्र कि व्याख्या हैं। श्रीसहस्रगीति में द्वय महा मन्त्र को इस प्रकार विस्तार से समझाया गया हैं:

  • पहिले ३ शतक में (१-३) द्वयम (उपेय) का दूसरा भाग को विस्तार से समझाया गया हैं।
  • अगले ३ शतक में (४-६) द्वयम (उपाय) का पहिला भाग को विस्तार से समझाया गया हैं।
  • अगले ४ शतक में निम्म तत्त्वों को विस्तार से समझाया गया हैं:
  • भगवान के विशेष गुण जो उनमें सभी को आशीर्वाद देने के लिये आवश्यक हैं। 
  • श्रीशठकोप स्वामीजी की आत्मा और आत्मा से सम्बन्धीत जैसे शरीर, इंद्रीयां, आदि के प्रति पूर्णत: वैराग्य। 
  • श्रीशठकोप स्वामीजी और भगवान के मध्य नित्य सम्बन्ध। 
  • श्रीशठकोप स्वामीजी अंतिम लक्ष्य कि सिद्धी का स्मरण करते हुए। 

उसी प्रकार श्रीवचन भूषण में भी वहीं तत्त्वों को समझाया गया हैं। 

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी – श्रीपेरुम्बुदूर्

६ प्रकरण (खंड) के वर्गीकरण को ध्यान में रखते हुए:

  • द्वयम के पहिले भाग को पहिले ३ प्रकरण में समझाया गया हैं। 
  • पहिले श्रीमहालक्ष्मीजी का पुरुषकार को समझाया गया हैं। 
  • भगवान उपाय हैं को समझाया गया हैं। 
  • द्वयम के दूसरे खंड में केवल भगवत कैङ्कर्य में पूरी तरह से संलगन होने की इच्छा रखने वालों कि वांछानीय स्थिति की व्याख्या करते हुए व्याख्या को समझाया गया हैं। 
  • शेष ३ प्रकरणों में। 
  • चौथा प्रकारण आचार्य के प्रति शिष्य के दृष्टिकोण और दासता कि व्याख्या करता हैं जो द्वय महा मन्त्र की व्याख्या करता है। 
  • पाँचवी प्रकरण भगवान कि निर्हेतुक कृपा को समझाया गया हैं जो शिष्य के महा विश्वास का कारण हैं। 
  • छठा प्रकरण द्वय महा मन्त्र (उपाय और उपेय) के दो भागों में बताये गए सिद्धांतों कि अंतिम स्थिति कि व्याख्या करता हैं – जो कि आचार्य पर पूर्ण निर्भता हैं। 

९ प्रकरण (खंड) के वर्गीकरण को ध्यान में रखते हुए:

द्वयम का पहिला वाक्य “प्रपध्ये” हैं जो भगवान को साधन रूप में स्वीकार करने के कार्य को दर्शाता हैं और इसका स्पष्ट अर्थ हैं कि अन्य उपाय जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति योग आदि को पूर्ण रूप से छोड़ दिया जाता हैं। प्रपन्न दिनचर्या उन जनों के लिये हैं जिन्होंने प्रपत्ति का पालन किया हैं। और सच्चे आचार्य का अर्थ वह जो द्वय महा मन्त्र को निर्देश / समझता हैं। इस प्रकार इन सब से यह समझा जा सकता हैं कि ९ प्रकरण वर्गीकरण में भी श्रीसहस्रगीति और श्रीवचन भूषण समान सिद्धान्तों की व्याख्या करता हैं।

आगे यह प्रबन्ध जो विशेषकर द्वय महा मन्त्र को विस्तार से समझाते हैं उसमें वह तत्त्व भी हैं जो तिरुमन्त्र और चरम श्लोक में समझाते हैं। अब हम उसे देखेंगे: 

पहिले तिरुमन्त्र स्पष्टीकरण पर प्रकाश डाला गया हैं 

  • (सूत्र ७३) से “अहमर्त्तत्तुक्कु” (सूत्र ७७) “अडियान् एन्ऱिऱे​” तक और जैसे (सूत्र १११) में कहा गया हैं “स्वरूप प्रयुक्तमान दास्यमिऱे प्रधानम्”, “प्रणवम्” को समझाया गया हैं।
  • (सूत्र ७१) से “स्वयत्न निवृत्ति” और (सूत्र १८०) तन्नै ताने मुडिक्कैयावदु से (सूत्र २४३) “इप्पडि सर्व प्रकारत्तालुम्” से पहिले, “नमः” को समझाया गया हैं। 
  • (सूत्र ७२) से “परप्रयोजन प्रवृत्ति” और (सूत्र ८०) उपेयत्तुक्कु इळैय पेरुमाळैयुम् से और (सूत्र २८१) कैङ्कर्यन्तान् भक्ति मूल मल्लाद पोदु से, “नारायण” समझाया गया हैं। 

अगला चरम श्लोक स्पष्टीकरण पर प्रकाश डाला गया हैं 

  • (सूत्र ४३) से “अज्ञानत्ताले” और (सूत्र ११५) प्रापकान्तर परित्यागत्तुक्कुम् से उपाय को पूर्णत: त्याग करना और त्याग करने कि विधि को समझाया गया हैं। यह “सर्व धर्मान्परित्यज्य” को समझाया गया हैं।
  • (सूत्र ५५) से “इदु तनक्कु स्वरूपम्” और (सूत्र ६६) प्राप्तिक्कु उपायमम् अवन निनैवु से भगवान हीं एकमात्र शरण्य और उपेय हैं यह समझाया गया हैं। यह “मामेकं शरणं” को समझाया गया हैं।
  • (सूत्र १३४) से “प्रपत्ति उपायत्तुक्कु” शरणागति के विशेष स्वभाव को समझाया गया हैं। यह “ब्रज” को समझाया गया हैं।
  • (सूत्र १४३) से “अवन्इवनैप्” (सूत्र १४८) तक “स्वातन्त्रयत्ताले वरूम् पारतंत्रयम् प्रबलम्” भगवान स्वतन्त्र हैं और वें जो जीवात्मा उनके शरण होते हैं उनके पापों को क्षमा प्रदान करते हैं इसे समझाया गया हैं। यह “अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि” को समझाया गया हैं।
  • (सूत्र ४०२) “कृपा फलमुम् अनुभवित्ते अऱवेणुम्” समझाते हैं कि भगवान कि कृपा परम लक्ष्य प्रदान करने कि प्रत्याभूति देता हैं और जीवात्मा को इस विषय पर चिंता करने कि कोई आवश्यकता नहीं हैं। यह “मा शुच:” को समझाया गया हैं।   

इस प्रकार हमने श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के श्रीवचन भूषण के लिये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के गौरवशाली परिचय में खंड को देखा हैं जहां श्रीसहस्रगीति और श्रीवचन भूषण में समानता और श्रीवचन भूषण में रहस्यत्रय के सिद्धान्तों को दर्शाते हुए विस्तार से समझाया गया हैं। 

इस प्रकार श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का परिचय समाप्त होता हैं। जैसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपदेश रत्नमाला में यह घोषणा करते हैं कि कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं हैं जो श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के समान वैभवशाली हो। 

निम्म पाशुर श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के अनुसन्धान के पश्चात गाया जाता हैं 

कोदिल् उलगासिरियन् कूर कुलोत्तम तादर्
तीदिल् तिरुमलैयाऴवार् सेऴुङ्गुरवै मणवाळर्
ओदरिय पुगऴत् तिरुनावुडैय पिरान् तादरुडन्
पोद मणवाळ मुनि पोन्नडिगळ् पोट्रुवने

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ईडु कालक्षेप गोष्टी – श्रीरङ्गनाथ भगवान के सामने 

सरल अनुवाद: मैं परम ज्ञानी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के साथ साथ निष्कलंक श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी, कूर कूलोत्तम दासर, दोषरहित श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी, कुरुवै वंश से अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् पिळ्ळै (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के नानाजी), तिगऴक्किडन्दान् तिरुनावीऱुडैयपिरान् तादर्  (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पिताजी)।  

वाऴि उलगासिरियन् वाऴि अवन् मन्नुकुलम्
वाऴि मुडुम्बै एन्नुम् मानगरम्
वाऴि मनम् सूऴन्द पेरिन्बम् मिगु नल्लार्
इनम् सूऴन्दु इरुक्कुम् इरुप्पु

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कालक्षेप गोष्टी 

सरल अनुवाद: श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी का मंगल हो! उनके वैभवशाली वंश का मंगल हो! महान शहर मुडुम्बै का मंगल हो! श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कि गोष्टी का मंगल हो जो धर्मनिष्ठ भक्तों घिरे हो। 

ओदुम् मुडुम्बै उलगासिरियन् अरुळ्
एडुम् म​ऱवाद एम्पेरुमान् नीधि
वाऴवाच् चिऱुनल्लूर माम​ऱैयोन् पादम्
तोऴुवार्क्कु वारा तुयर्

कूर कूलोत्तम दासर स्वामीजी – एक चित्र 

सरल अनुवाद: उन जनों के लिये कोई दु:ख नहीं हैं जो कूर कूलोत्तम दासर स्वामीजी के चरण कमलों कि पूजा करते हैं जो चिऱुनल्लूर से आते हैं। जो वेदों को अच्छी तरह से सीखे हैं और जो निष्ठा से शास्त्रों के सिद्धान्तों का पालन करते हैं और जो निरन्तर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कि कृपा को स्मरण करते हैं।

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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