श्रीवचन भूषण – सूत्रं १ 

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

पूरी शृंखला

पूर्व

अवतारिका 

एक प्रमाता (शिक्षक को ग्तान प्रस्तुत करता हैं) प्रमाण (ज्ञान का स्रोत) के साथ हीं प्रमेय (ज्ञान का लक्ष्य) निर्धारित करता हैं। ऐसे प्रमाण प्रत्यक्षं से प्रारम्भ कर ८ प्रकार के हैं। 

प्रत्यक्षम् एकं चार्वाकाः कणाद सुगदौ पुनः।
अनुमानञ्च तच्छात सांख्याः शब्दञ्च ते अपि॥
अर्थपत्त्या सहैतानि चत्वार्याह प्रभाकरः।
न्यायैक देशिनोप्येवम् उपमानं प्रचक्ष ते॥
अभाव शष्टान्येतानि भाट्टाः वेदान्तिनस् ततः।
सम्भावैदिह्य युक्तानि तानि पौराणिकाः जगुः॥

लोकायत कहते हैं प्रत्यक्षं हीं प्रमाणम हैं। नैयायिक और बौद्ध कहते हैं अनुमान के अतिरिक्त प्रत्यक्षं दो प्रकार के अनुमान हैं। सांख्य (कपिल के अनुयायी) प्रत्यक्षं और अनुमान के अतिरिक्त शब्दं (वेदं) को ग्रहण करता हैं और कहता हैं ३ प्रमाणम हैं। प्रभाकर उपर्युक्त तीन प्रमाणों के अतिरिक्त अर्था पत्ति  ( परिस्थितियों से अनुमान) को स्वीकार कर कहते हैं ४ प्रमाण हैं। कुछ नैयायिक में उपमानम (उदाहरण) शामिल हैं और कहते हैं उपरोक्त ४ प्रमाणों सहित ५ प्रमाण हैं। उपरोक्त ५ प्रमाणों के अलावा भट्टर (भट्टर के अनुयायी) और वेदान्ती (वेदान्त के अनुयायी) अभावम (अनुपस्थिति) पर प्रकाश डालते हैं और कहते है की ६ प्रमाण हैं। पौराणिक (पुराण के विशषज्ञ) उपरोक्त ६ प्रमाणों के अलावा संभवम (घटनाओं) और एडिह्यम (घटनाओं) पर प्रकाश दारते हैं और कहते हैं ८ प्रमाण हैं।   

उसमें जैसे कि बाह्य (जो वेदों को अस्वीकारते हैं) और कुदृष्टि (जो वेदों कि गलत व्याख्या करते हैं) जैसे कि कहा गया हैं “प्रत्यक्षमेकं चार्वाक: ….,” श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी प्रत्यक्षं, अनुमान और शब्दं को मान्य प्रमाण मानते हैं और बाकि ५ प्रमाण जैसे उपमान आदि को इन तीन प्रमाणों के अंग मानते हैं। उन तीनों में से वें शास्त्र एक मात्र प्रमाण हैं उसका निर्धारित करते हैं जो उन पहलुओं को समझने के लिये हैं जो हमारे इंद्रियाँ से परे हैं क्योंकि प्रत्यक्षं केवल उन संस्थानों के लिये हैं उपयोगी हैं जो हमारी इंद्रीयों द्वारा बोधगम्य नहीं हैं और अनुमान उन संस्थानों के लिये हैं उपयोगी हैं जो हमारी इंद्रीयों द्वारा बोधगम्य नहीं हैं परन्तु इंद्रीयों के माध्यम से पहले प्राप्त ज्ञान से संरेखित हैं।  

शास्त्र में भी जैसे कहा गया हैं श्रीरङ्गराज​ स्तवम् उत्तर शतकम् १४ “वेदे कर्त्राति अभावात् बलवतिहि नयैस्त्वन्मुखे नीयमाने तन्मूलत्वेन मानं तदितरदखिलं जायते” (क्योंकि वेद किसी के द्वारा नहीं लिखे गये हैं और इसलिये दोषरहित हैं जो लिखे जाने से उत्पन्न होते हैं और क्योंकि यह भगवान के विषय में पूरी तरह से समझाया गया हैं अन्य सभी शास्त्र अपने प्रामाणिकता के लिये वेद पर निर्भर हैं), शास्त्रों को देखते हुए जो लिखे गये हैं और जो अपनी प्रामाणिकता के लिये वेदों कि तलाश करते हैं, वेद में स्वत: प्रामाण्यत्वम हैं और सबसे शक्तिशाली प्रमाण हैं। 

परम वैधिक होने के नाते जो वेदों को सबसे अधिक शक्तिशाली प्रमाण मानते हैं इस बात पर ज़ोर देने के लिये कि इस प्रबंध में उनके द्वारा दयापूर्वक प्रगट किये गये सभी सिद्धान्त वड़ों पर आधारित हैं। पहिले श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी वेदों को प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं और इस सूत्र में वेदों के अर्थ निर्धारित करने कि विधि बताते हैं। 

सूत्रं – १ 

वेदार्थम् अरुदि इडुवदु स्मृति इतिहास पुराणङ्गळाले

सरल अनुवाद 

वेदों का अर्थ स्मृति, इतिहास और पुराणों द्वारा निर्धारित किया जाता हैं।

व्याख्यान

वेद

जैसे भगवान सभी प्रमेय (लक्ष्य) में सबसे प्रतिष्ठित हैं जैसे अखिल हेय प्रत्यनिकत्व (सभी दोषों के विपरीत होना) और कल्याणैक तानत्व (सभी शुभ गुणों का निवास स्थान) जैसी पहचान होने के कारण वेद सभी प्रमाण (ज्ञान का स्रोत) में भिन्न हैं। अपौरुषेयत्वम (किसी के द्वारा रचित नहीं) और नित्यत्वम (नित्य होना) जैसी पहचान होने के कारण; वेदों के अपौरुषेयत्वम आदि को यजुर वेद २.६ में श्रुति में समझाया गया हैं “वाचा विरूप नित्यया” (हे सुन्दर! हम आपका शाश्वत वेदों के माध्यम से जान सकते हैं) और मनुस्मृति में स्मृति में   

“अनादि निधनाह्येषा वागुत्सृष्टा स्वयम्भूवा।
आदौ वेदमयी दियायतः सर्वाः प्रसूतयः॥

(वह वेद जिससे सभी प्राणियों को जाना जाता हैं, वह बिना किसी सृजन और विनाश के होने के कारण, अन्य प्रमाणों से भिन्न होने के कारण; वेदों के रूप में यह सदा विद्यमान साहित्य सर्वेश्वर द्वारा सृष्टि रचना के दौरान स्वयं बनाया गया)। क्योंकि वेदों का शाश्वत स्वभाव इन्हीं साहित्य में स्थापित हैं इसका अपौरुषेयत्वम स्वाभाविक रूप से समझ में आता हैं। इसी कारण से वह ब्रम्ह (मोह), विप्रलम्ब (धोखा देने का इरादा), प्रमाध (विस्मृति) और अशक्ति (अक्षमता) जैसे दोषों से मुक्त हैं। इसी कारण से वेदों से बढ़ा कोई शास्त्र नहीं हैं। इसी वजह से इतिहास और पुराण के रचयिता वेद व्यासजी एक हीं स्वर में घोषणा करते जैसे हरीवम्स हैं 

“सत्यं सत्यं पुनस्सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न दैवं केशवात् परम्॥”

(वेदों से उच्च कोई शास्त्र नहीं हैं और केशव से बड़ा कोई भगवान नहीं हैं। मैं अपना हाथ उठाकर यह कहते हुए घोषणा करता हूँ सत्य! सत्य! सत्य!)। 

अपने दिव्य हृदय में वेदों कि महानता को पूरी तरह से ध्यान में रखते हुए श्रीशठकोप स्वामीजी भी दयापूर्वक श्रीसहस्रगीति के १.१.७ में कहे “सुडर्मिगु सुरुदि” (चमकती हुई श्रुति / वेद)। उनके पतचिन्ह पर चलते हुए परम विद्वान श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी श्रीरङ्गराज स्तवम् उत्तर शतकम् १९ में कहते हैं “आदौ वेदाः प्रमाणम्”  (वेद प्रार्थमिक प्रमाण हैं)। 

शब्द कि व्युत्पत्ति के कारण इसे वेद के नाम से जाना जाता हैं जिसकी पहचान वेदयति इति वेदाः” (जो [ज्ञान] प्रकट करता है वह वेद है)  क्योंकि यह उन जनों के लिये प्रगट करता हैं जो जिज्ञासु और विश्वासी हैं। 

यह वेद प्रगट किये गये अर्थों के केन्द्र के आधार पर दो भागों में वर्गीकृत किया गया हैं। यह दोनों भागों को एक शब्द वेद द्वारा पूरी तरह से सूचित किया गया हैं।  

अर्थं

अर्थं कर्म को संकेत करता हैं जो पहिले भाग में दर्शाया गया हैं और ब्रह्म को दूसरे भाग दर्शाया गया हैं। पूर्व और उत्तर मीमांसा क्रमश: प्रारम्भ हुआ जैसे कि धर्म सूत्र १.१.१ में कहा गया हैं “अथातो धर्म जिज्ञासा” (वेदों के पाठ का अध्ययन करने के पश्चात इसे पूर्ण करने के कारण, वेदों के अर्थों के बारे में पूछताछ करनी चाहिये) और ब्रह्म सूत्र १.१.१ “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” (कर्म के अर्थ का अध्ययन करने के पश्चात और यह समझने के पश्चात कि परिणाम निर्थतक और अस्थायी हैं, उस अध्ययन को पूर्ण करने के कारण व्यक्ति को ब्रह्म में पूछताछ करनी चाहिये); अत: दो भागों के रहस्योद्घाटन हैं,  अ) कर्म – पूजा पद्धति और आ) ब्रह्म – पूजा का लक्ष्य। 

कर्म का भगवद आराधन होना इस तथ्य से स्पष्ट हैं कि अग्नि, इन्द्र, आदि से प्रारम्भ होनेवाली सभी देवता भगवान के शरीर जैसे तैत्तिरीय उपनिषद् में शास्त्र द्वारा ज़ोर दिया गया हैं स आत्मा अङ्गान्यन्या देवता:(वह ब्रह्म आत्मा हैं और सभी देवता उनके शरीर हैं)। जो लोग इस सिद्धान्त को अच्छी तरह से समझते हैं और भगवान को अग्नि, इन्द्र, कर्म जैसे देवताओं के अन्तर्यामी के रूप में मानते हुए कर्म कि पूजा करते हैं, वें भगवत आराधना के रूप में अच्छी तरह से स्थापित होंगे। परन्तु जिनके पास ऐसी समझ नहीं हैं, अगर वें केवल देवताओं के लिये ऐसे कर्म करते हैं, तो ऐसे कर्म भी भगवत आराधना के रूप में समाप्त हो जायेंगे क्योंकि भगवान अन्तर्यामी हैं। जो लोग अग्निहोत्र के माध्यम से पूर्वज, देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा करते हैं, उन्हें भगवान श्रीमन्नारायण की पूजा करनेवाला माना जायेगा जो सभी के अन्तर्यामी हैं। भगवान स्वयं कृपा कर श्रीभगवद गीता ९.२३ में समझाते हैं 

“येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥”

(हे कुन्तीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हो श्रद्धापूर्वक आराधन करते हैं वे भी विधि रहित मेरी ही उपासना करते हैं। इस प्रकार कर्म का भगवदाराधनत्व सिद्ध होता हैं)। 

इसलिये कर्म को हर तरह से भगवान कि पूजा कहा जाता हैं। इस प्रकार कर्म जो उपासना कि प्रक्रिया है और ब्रह्म जो उपासना का लक्ष्य है ज्ञात होने पर त्याज्य (छोड़ने योग्य) और उपादेय (स्वीकार किये जाने वाले) सब तत्त्व समझ में आ जाते है और यह समझाया गया हैं कि वेद के दो भागों कर्म और ब्रह्म के विषय में कहा जाता हैं। 

यह कैसे समझाया जाता हैं? कर्म बुबुक्षुओं का ऐश्वर्य साधनरूप हैं। मुमुक्षुओं में भक्तों को उपासना का अंग और प्रपन्नों को कैङ्कर्य रूप होता हैं। जैसे कि कोई कर्म का वास्तविक स्वरूप जानता हैं कोई यह समझ सकता हैं कि साधकों के लिये जो ब्रह्म के साथ शासवत एकता के अंतहीन परिणाम कि तलाश करते हैं यह कर्म उनके उपासना के लिये सहायक पहलू के रूप में स्वीकार्य हैं और इसे छोड़ देना चाहिये क्योंकि यह सांसारिक धन चाहनेवालों द्वारा स्वीकार किया जाता हैं। अनन्य प्रपन्नों के लिये क्योंकि इन कर्मों से कुछ भी प्राप्त नहीं होता हैं कोई यह समझ सकता हैं कि यह कैङ्कर्य  के रूप में स्वीकार्य हैं और इसे छोड़ देना चाहिये क्योंकि इसे उपासकों के लिये नियमित रूप से स्वीकार किया जाता हैं। 

जब ब्रह्म को जानना चाहते हैं तब उनके स्वरूप, रूप, गुण और विभूतियों को जानना आवश्यक होने से उनके विभूतिरूप चेतन-अचेतन का स्वरूप जाना जा सकता हैं। उस विभूति में ज्ञान और आनंद लक्षण चेतन के स्वरूप वैलक्षण्य द्वारा आया हुआ कैवल्यवेष जाना जा सकता हैं। ब्रह्म के शेषित्व और प्राप्यत्व इन दोनों को जानने पर भगवद्नुभवादि को पुरुषार्थतया जान सकते हैं। ब्रह्म के उपास्यत्व और शरण्यत्व इन दोनों को जानने से ब्रह्म की प्राप्ति और साधनविशेष जाने जा सकते हैं। कोई भी स्पष्ट रूप से समझ सकता हैं कि अन्य लक्ष्य और साधनों का त्याग कर देना चाहिये क्योंकि कोई ब्रह्म के निरतिस्य भोग्यता और अनन्य साध्यत्वम और जीवात्मा के प्रकृति जो प्रकार हैं और ब्रह्म के पारतंत्रय के स्वभाव को समझ सकता हैं।  

अत: इन कारणों से यह कहने से कोई कमी नहीं हैं कि दो भाग कर्म पर केन्द्रीत है जो उपासना कि विधि हैं और ब्रह्म जो उपासना का लक्ष्य हैं। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी अपने श्रीरङ्गराज स्तवम् उत्तर शतकम् १९ में कृपाकर समझाते हैं त्वदर्चाविधिम् उपरि परिक्षीयते पूर्वभागः

ऊर्ध्वो भागः त्वदीहा  गुणविभव परिज्ञापनैः त्वत् पदाप्तौ(पहिला भाग पूर्णत: पूजा के नियम पर केन्द्रीत हैं और श्रेष्ठ दूसरा भाग पूर्णत: से आपकी गतिविधियों जैसे सृष्टि और आपके दिव्य चरणों की प्राप्ति को प्रगट करने पर केन्द्रीत हैं)। 

अरुदि इडुवदु

दो भागों में प्रगट होनेवाले सिद्धांतों का निर्धारण करने का अर्थ हैं बिना किसी भ्रम या त्रुटि के वास्तविक स्वरूप, सहायक पहलुओं और कर्म के परिणाम का निर्धारण करना और ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप, रूप, गुण, धान, आदि का निर्धारण करना। ऐसे करते वक्त उसे सकल शाखा प्रत्यय न्याय और सकल वेदान्त प्रत्यय न्याय। शाखा – पूर्व भागम कि शाखा; वेदान्त – उत्तर भाग का एक अंश; न्याय – नियम। 

उनमें सकल शाखा प्रत्यय न्याय माने एक वाक्य में एक अर्थ को कहने पर उसके अंगोपांगादियों को साक्षात जानने के लिये और शाखाओं में सर्वत्र विचार कर उनमें कहे जाने वाले अर्थों में ज्ञान पैदा होकर उन अर्थों के अन्योन्य विरोधों को नाश कर अपने अभिमत अंगी के साथ मिलने योग्य को मिलाना। 

सकल वेदान्त प्रत्यय न्याय का अर्थ एक वेदान्त में एक वाक्य एक अर्थ को कहने पर और वेदान्तों में विचार कर उनमें कहे जाने वाले अर्थों को अन्योन्य विरोध नहीं होने के लिये विषय विभाग कर अपने अभिमत अर्थों के साथ मिलने योग्य को मिलाना। 

क्योंकि यह कार्य महामति महर्षियों के सिवा औरों के लिये अशक्य होने से इतिहास पुराणरूप उपबृंहण लेकर ही निर्णय करना हैं। अत: ऐसे साहित्य कृपाकर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी द्वारा दर्शाया गया हैं। 

स्मृति इतिहास पुराणङ्गळाले

स्मृति धर्मशास्त्र हैं जिसे आप्त मनु, अत्रि, विष्णु, हारीत, याज्ञवल्क्य, आदि से निर्मित हैं। 

इतिहास माने पूर्ववृत्तप्रतिपादक श्रीमद् रामायण, महाभारत आदि हैं। 

पुराण ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण हैं जो पाँच पहलू के विषय में कहता हैं जैसे सृष्टि, प्रलय, राजवंश, राजचरित्र और मन्वंतर। 

क्योंकि श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि वेदों के अर्थ को इस बात से निर्धारित किया जाना चाहिये, अपनी बुद्धि से निर्धारित करने कि कोशिश करते हुए, बहुत कम सुनने के कारण, जो गलत समझ कि ओर ले जायेगा, जो वेदों को समझने में भ्रम पैदा करता हैं। यह नियम बृहस्पति स्मृति और महाभारत में 

“इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत ।
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रतरिष्यति ॥

समझाया जाता हैं। (वेद को इतिहास और पुराण के माध्यम से समझा जा सकता हैं; स्वयं वेद को भी इस बात पर डर था कि कम बुद्धिवाले जन इसे गलत तरीके से प्रस्तुत करेंगे)। 

इस पहिले सूत्रं के आधार पर यह दिखता हैं कि वेद के सभी तत्त्व जो श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी द्वारा समझाया गया हैं वह कृपाकर इतिहास और पुराण का उपयोग कर निर्धारित किया गया हैं। इसे प्रबन्ध के सही खंड के द्वारा समझा जा सकता हैं। 

इस प्रकार इस कथन के साथ यह समझाया गया हैं कि वेद सभी प्रमाणों में अंतिम अधिकार हैं और वेदों के अर्थ स्थापित करने के माध्यम हैं। 

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

आधार – https://granthams.koyil.org/2020/12/06/srivachana-bhushanam-suthram-1-english/

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