श्रीवचन भूषण – सूत्रं ३ 

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नम:

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श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​  स्वामीजी इस संदेह को स्पष्ट करने हेतु व्याख्या कर रहे हैं “यदि उत्तरभाग उपबृंहण (इतिहास और पुराण जो वेदान्त को समझाते हैं) में कोई श्रेणी हैं” वैकल्पिक व्याख्या – श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी स्वयं स्वेच्छा से बताते हैं कि उन दो उपबृंहण में किसे उजाकर करना हैं जो एकल के विषय पर बात करते हैं जिसमें अधिक शक्ति हैं। 

सूत्रं ३ 

इवै इरण्डिलुम वैत्तुक्कुक्कोण्डु इतिहासम् प्रबलम् । 

सरल अनुवाद 

इतिहास और पुराण में इतिहास प्रबल हैं। 

व्याख्यान 

इवै इरण्डिलुम …  

वह उन दो (इतिहास और पुराण) में से एक हैं जो अधिक भाग के लिए स्पष्टीकरण होने के कारण एक साथ देखे जाते हैं वह हैं उत्तरभाग प्रामाणिकता के लिये और इतिहास को पुराण से अधिक प्रबल कहा जाता हैं।  

परिग्रहातिशय, मध्यस्थता और करता की आप्ततमता के कारण इतिहास पुराण से अधिक प्रबल हैं। 

इनमें परिग्रह माने शास्त्र परिग्रह (शास्त्र में स्वीकारना)। पुराणों में भी इतिहास को शास्त्र से अधिक वैभव प्राप्त हैं जैसे इसमें देखा जाता हैं: 

  • स्कन्ध पुराण वेद वेद्ये परे पुम्सि जाते दशरथात्मजे।
  • वेदः पराचेतसादासीत साक्षात रामायणात्मना॥
  •  (वेद से वेध्य परमात्मा दशरथ के पुत्ररूप से जन्म लेने पर वह वेद वाल्मीकी मगर्षि जो प्रचेतस के पुत्र हैं द्वारा साक्षात रामायण रूप से हुआ)। 
  • शिव पुराण में वायु देव कहते हैं मतिमन्दानम् अविद्या येनासौ श्रुति सागरात्।
  • जगत् हिताय जनितो महाभारत चन्द्रमाः॥
  •  (जिन व्यासजी ने वेदरूप समुद्र को बुद्धिरूप मंथनदण्ड द्वारा मथकर जगत हित के लिये महाभारत रूप चंद्रमा को उत्पन्न किया …)।
  • मार्कण्डेय पुराण व्यास वाक्या जलौघेन कुधर्म तरुहारिणा।
  • वेद शैलावतीर्नेन नीरजस्का महीकृता॥
  • (व्यासजी के शब्द जो जल के समान हैं जो वृक्ष के नीचे गिरा सकते हैं जो अधर्मी पहलू हैं जो वेदों के पर्वत से उत्पन्न हुए हैं पृथ्वी पर गंधगी को दूर कर सकते हैं)। 
  • “बिभेति गहनाच्छास्त्रान् नरस् तीव्रादिवौषधात्।
  • भारतश् शास्त्र सारो अयमतः काव्यात्मना कृतः॥”
  •  (यह महाभारत जो शास्त्र का तत्व हैं, इसे चिक्तिसा मानते हुए उस व्यक्ति के लिये महाकाव्य के रूप में बनाया गया था जो अचिंतनीय शास्त्र के लिये डरता हैं)।
  • भविष्यत पुराण “विष्णौ वेदेषु विद्वत्सु गुरुषु ब्राह्मणेषु च्।
  • भक्तिर्भवति कल्याणी भारतदेव धीमताम्॥
  •  (महाभारत के माध्यम से शुभ भक्ति बुद्दिमान जनों, सर्वव्यापी श्रीमन्नारायण के प्रति, वेदों के प्रति जो उन्हें प्रगट करते हैं, विद्वान जो ऐसे वेदों में पारंगत हैं, उन सिद्धांतों की व्याख्या करनेवाले शिक्षक और ब्राह्मणों के लिये होती हैं)। 

मध्यस्थता माने – ब्रह्मा जो सभी पुराणों के प्रचारक हैं, सत्व, रजो और तमो तीन गुणों के आधार पर जो विशेष समय में प्रबल थे, उस देवता कि स्तुति करते हैं जिनमें ऐसे गुण हैं जैसे माथ्स्य पुराण में कहा गया हैं यस्मिन् कल्पेतु यत्परोक्तं पुराणं ब्रह्मण पुरा तस्य तस्यातु माहात्म्यं तत् स्वरूपेण वर्ण्यते (पहिले जब कल्प दिन पर जब ब्रह्मा द्वारा पुराणों का उच्चारण किया गया था तब देवताओं कि महानता विशेष गुणवत्ता के अनुसार कहा गया था)। इसलिये पुराणों कि प्रकृति पक्षपातपूर्ण हैं। पुराणों के विपरीत क्योंकि इतिहास वेदों के सिद्धान्त और सामान्य सांसारिक सिद्धान्त पर केन्द्रीत हैं वे किसी के प्रति पक्षपाती नहीं हैं। 

“कर्तुराप्ततमत्वम्” का अर्थ प्रबन्ध के लेखक जिन्हें सत्य देखने कि क्षमता हो और जो विषय जैसे हो उसे वैसे ही प्रस्तुत करने कि क्षमता हो। 

इतिहास पुराणों में इतिहास प्रबल हैं जैसे श्रीपुण्डरीकाक्ष स्वामीजी सामान्यता अपने ग्रन्थ तत्व निर्णय में कहते हैं अतेतिहास पुराणयोरितिहासा बलीयाम्सः कुतः परिग्रहातिरेकात् सर्वत्र माद्यस्त्येन​। भूतार्थ प्रतीतेः वचन सौष्टवेन कर्तुराप्ततमत्वाव गतेश्च​॥ (आगे इतिहास और पुराण में इतिहास अधिक प्रबल हैं क्योंकि १) इतिहास का विशेष रूप से प्रशंसा कर उसे स्वीकार किया गया हैं, २) वें सांसारिक और शास्त्रीय पहलू में तटस्थ हो रहे हैं, ३) वें पिछली घटनाओं के विषय में बात करते हैं और ४) लेखकों के भरोसेमंद होने के कारण उन्होंने उपयुक्त शब्दों के साथ साहित्य कि रचना किए हैं)। 

श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी ने भी अधीक स्वीकृति और तटस्थता के कारण श्रीसहस्रनाम भाष्य में पुराणों कि तुलना में महाभारत की महानता को समझाया जैसे कि “महाभारत ही परिग्रह विशेषावसितम्” (पुराणों में महाभारत को बहुत स्वीकार किया गया हैं), “धर्मेचार्थेच कामेच मोक्षेच भरतर्षभ​। यदि हास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति नतत् क्वचित्॥” (ओ धर्मपुत्र! वेदों में अन्यत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में जो भी अर्थ बताए गए हैं वें सभी महाभारत में मौजूद हैं और यदि इसमें कोई सिद्धान्त नहीं दिया गया हैं तो वह अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त होगा) और “इति लौकिक वैदिक सकलार्थ निर्णयादि कृतत्वेन​। क्वचिदपि अपक्षपादित्वाच्छ पुराणेभ्यो बलवत्तरम्॥”  में (क्योंकि यह स्थापित हो गया था कि महाभारत कि रचना शास्त्रीय एवं सांसारिक सिद्धान्त कि स्थापना के लिए कि गई हैं और क्योंकि इसमें कोई भी पश्चाताप नहीं हैं इसलिये यह पुराणों से भी बड़ा पुराण हैं)। 

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

आधार् –https://granthams.koyil.org/2020/12/09/srivachana-bhushanam-suthram-3-english/

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