श्रीवचन भूषण – सूत्रं ५

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नम:

पूरि श्रृंखला

पूर्व​

अवतारिका

सबसे पहिले सूत्र १ में “वेदार्थम …” के साथ श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य​ स्वामीजी वेद उसके अर्थ और उपब्रुह्मणम् को एक साथ समझाया हैं। जैसे कि उन्होंने उस वेद के पूर्व और उत्तर भाग के वर्गिकरण पर प्रकाश डाला और जैसे कि वे उस चेतन के उत्थान के लिए आवश्यक सिद्धांतो को कृपाकर समझाने के लिए तैयार हैं और क्योंकि यह पूर्व भाग से ज्ञात नहीं यह केवल उत्तरभाग से जाना जाता हैं और जिन्ह पहलुओं को पूर्व भाग में मुमुक्षुओं द्वारा जाना जाता है उन्हें उत्तर भाग के अनुभाग के माध्यम से सिखाया जा सकता हैं जहां त्याग और उपाधेयम के मिलान को सिखते समय स्वरूप, उपाय और पुरुषार्थ की व्याख्या की जाती हैं, वह उत्तर भाग के अर्थ निर्धारीत करने में संलग्न होता हैं। इसमें, वह उन अनुभागों को देखते हैं जो भगवान के स्वरूप, रूप, गुण और विभूति की विस्तृत व्याख्या करते हैं, उनके सार और बाहरी पहलुओं का विश्लेषण करते हैं और बिना किसी संदेह और त्रुटि के चेतनों द्वारा ज्ञात की गई बातों को संक्षेप में समझाते हैं। उसमें, सबसे पहिले, इतिहास में जो उत्तर भाग के दो उपब्रुह्मणों [इतिहास और पुराण] के बीच अधिक प्रामाणिक के रूप में उजागर किया गया है, वह श्रीरामायण की महानता को प्रकट करते हैं और उसमें प्रकट पहलुओं की व्याख्या करते हैं।

सूत्रं

इतिहास श्रेष्ठमान श्री रामायणत्ताल् चिऱैयिरुन्दवळ् एट्रम् सोल्लुगिरदु,

महाभारत्ताल् तूदुपोनवन् एट्रम् सोल्लुगिरदु।

सरल अनुवाद

श्रीरामायण में, जो इतिहास में सर्वश्रेष्ठ है, कैद में रहने वाले की महानता पर प्रकाश डाला गया है;  महाभारत में दूत बनकर जाने वाले की महानता पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्यान

इतिहास श्रेष्ठमान …

इतिहास में श्रीरामायण कि श्रेष्ठता इन कारण से हैं

  • श्री वाल्मीकी भगवान द्वारा रचित होने के कारण ब्रह्माजी द्वारा सम्मानित किया जाना जो सम्पूर्ण शृष्टि के पोते हैं कि श्रीरामायण बाल काण्ड २.२६ में कहा गया हैं “वाल्मीकये महर्षये सन्धिदेशासनं ततः।ब्रह्मणो समनुग्यातस्सोप्युपविश दासने ॥” (जैसे ही ब्रह्माजी ने सर्वश्रेष्ठ ऋषी वाल्मीकीजी को आसन प्रदान किये, ब्रह्माजी कि अनुमति प्राप्त कर वाल्मीकीजी उस आसन पर विराजमान हो गये)
  • इसमें बताये गये सभी सिद्दांत ब्रह्माजी के आशीर्वाद के अनुसार सत्य हैं जैसे कि “न ते वागन्रुता काव्ये काचितत्र भविष्यति ” (आप इस काव्य में जो भी लिखेंगे वो कभी झूठ नहीं होगा)
  • पूर्ण संसार में स्वीकृत होने के कारण जैसे कि “…तावद्रामायण कथा लोकेषु प्रचरिष्यति” में कहा गया हैं (जब तक संसार में पर्वत, नदियां, आदि रहेंगे श्रीरामायण कि कथा पूर्ण संसार में बनी रहेगी)।

इन्हीं कारणों से श्रीरामायण अन्य इतिहास के ग्रन्थों की तुलना में अधीक प्रामाणिक हैं। श्रीनडुविल् तिरुवीदिप् पिळ्ळै भट्टर् स्वामीजी कृपाकर अपने प्रबन्ध “तत्त्व त्रय” के प्रमाधिकारम में समझाते हैं।  आगे जैसे स्कन्ध पुराण में कहा गया हैं “वेद वेद्ये परे पुम्सि जाते दशरथात्मजे । वेदः प्राचेतसादाशीत् रामायणात्मना॥ ”  (जैसे कि श्रीमन्नारायण परम भगवान, जिन्हें वेदों से समझा जा सकता हैं  दशरथ के पुत्र के रूप में अवतार हुआ, वेदों का जन्म वाल्मीकी महर्षि जो प्रचेत के पुत्र हैं से श्रीरामायण के रूप में हुआ) ठीक वैसे हीं जैसे सर्वेश्वर जो सभी से महान हैं संसारी चेतनों के उत्थान के लिए मानव रूप में श्रीराम के रूप में अवतार प्राप्त किये, वेद जो कि शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ हैं चेतनों में रूची पैदा करने के लिए उस रामावतार के गुणों और गतिविधियों को प्रगट करने हेतु श्रीरामायण के रूप में अवतार लिया। । ऐसे कहे जाने से इसकी श्रेष्ठता सिद्ध हुई।

चिऱैयिरुन्दवळ् एट्रम् …

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कृपाकर अम्माजी के महान कृपा को दर्शाने के लिए अम्माजी (श्रीमहालक्षमीजी) के बजाय “चिऱैयिरुन्दवळ्” कहते हैं;  देवों के स्वामी भगवान कि पत्नी स्वयं कि महानता को दुर्लक्ष्य करती हैं, और कैद होने कि निम्न स्वभाव, दिव्य स्त्रीयों को रावण के कैद से मुक्त करने के लिए, वें स्वयं अपनी दया से कैद हो गयी। जैसे एक माँ स्वयं कूप में गिर जायेगी अगर उसका बालक उस कूप में गिर जाता हैं उसी तरह अम्माजी भी इस संसार में गिरे हुए जीवात्मा का उद्धार करने हेतु आजन्म लेती हैं। इसलिए, यह कृत्य महान वात्सल्यम को प्रकट कर रहा है जो सभी आत्माओं के साथ उसके मातृ संबंध से उत्पन्न हुआ है। श्रीशठकोप स्वामीजी जिन्हें परमाचार्य कहते हैं कृपाकर श्रीसहस्रगीति के ४.८.५ में कहते हैं “तनिच्चिऱैयिल् विळपुट्र किळिमोऴियाळ् ” इस महान गुण को उजागर करने के लिए (तोते जैसी मधुर वाणी वाली अम्माजी जो एकांत कारागार में चमकती हैं। आऴवार् के दिव्य शब्दों के आधार पर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कृपाकर ऐसे तरीके से लिख रहे हैं। कारागार में रहना हिन है केवल जब उसका परिणाम कर्म के कारण हो। जब माता सीता दयाकर स्व इच्छा से, सांसारिक स्त्रीयाँ जो उनके प्रति समर्पित हैं कारागार में जाती है, यह कार्य उनके महानता को बताता हैं। सांसारियों कि तरह कुछ समय गर्भ में रहने के बाद जाम लेना भगवान के चमक को बढ़ा रहा हैं जैसे श्रीसहस्रगीति १.३.२ में कहा गया हैं “पल पिऱप्पयोळि वरुम्” (कई जाम से चमक प्राप्त करना),  और इसी कारण से जन्म का कारण करुणा हैं बन्धन नहीं हैं। उसी तरह क्योंकि माता सीता का कार्य उनकी करुणा पर आधारीत हैं यह केवल चमक कि ओर ले जाता हैं। केवल हिन जन जो उनकी महान शक्ती को नहीं समझते हैं वें ही सोचेंगे कि वह रावण कि शक्ति के कारण कैद हुई हैं। जिसने श्रीरामायण के सुन्दरकाण्ड ५३.२९ में कहा शीतो भव (हनुमान के ऊपर जो अग्नि हैं वह शीतल हो) वह यह भी कह सकती थी कि “नष्टो भव​ ” (रावण का सर्वनाश हो जाये)। तस्मात यह कारागार वास अपने अनुग्रह से पर रक्षणार्थ करने से यह ही इनके दया आदि गुणों का प्रकाशक हैं, श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं “चिऱैयिरुन्दवळ्”। श्रीवाल्मीकि भगवान भी सम्पूर्ण श्रीरामायण के बालकाण्ड ४.७ “काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाः चरितं महत् ” (यह सम्पूर्ण महा काव्य माता सीता कि महानता के बारें में कहता हैं) में माता सीता के महानता को कहते हैं। श्रीपाराशर भट्टर् स्वामीजी भी श्रीगुणरत्न कोशम् १४ में कृपाकर कहते हैं “श्रीमद्रामायणमपि परं प्राणिति त्वच्चरित्रे ” (श्रीरामायण भी आपके इतिहास के आधार पर जीवित हैं)। 

इसके बाद श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी महाभारत कि श्रुति कि व्याख्या करते हैं। 

महाभारत्ताल्

श्रीविष्णुपुराण ३.४.५ में कहे अनुसार व्यास महर्षि भगवान के आवेश अवतार हैं “कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम्। कोह्यन्यो भुवि मैत्रेय महाभारत कृत्भवेत्॥ ” (ओ मैत्रेय! जान लें कि ऋषि व्यास जिनका नाम कृष्णद्वैपायन है, वे स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण हैं; इस दुनिया में और कौन इस संसार में महाभारत लिख सकता है?) “एवं विदं भारतं तु प्रोक्तं येन महात्मना। सोयं नारायणः साक्षात् व्यासरूपि महामुनिः॥ ” (ऐसे महाभारत ग्रन्थ के रचयिता व्यास मुनि महान आत्मा हैं जो स्वयं नारायण हैं) और सबसे अधीक भरो​सेमंद हैं जैसे आरणम् में कहा गया हैं “सहो वाचः व्यासः पाराशर्यः ” (वह व्यास महर्षि जो पराशर ऋषि के पुत्र हैं ने कहा)। यह महाभारत जिसे श्रीवेद व्यास भगवान ने पांचवे वेद के रूप में लिखा हैं जैसे कि महाभारत में कहा गया हैं “वेदान् अध्यापयामास महाभारत पञ्चमान् ” (उन्होंने महाभारत सिखाया जो पाँचवाँ वेद हैं), जिसकी पुराणों में प्रशंसा कि गई हैं और जो श्रीरामयण के समान शक्तिशाली हैं)। यह कृपाकर श्रीनडुविल् तिरुवीदिप्पिळ्ळै भट्टर् भी समझाते हैं। पेरिय भट्टर् (श्रीपराशर भट्टर्) भी कृपाकर अपने सहस्रनाम भाष्यम के प्रस्थावना में कहते हैं “श्रीरामायणवन् महाभारतं शरणम् ” (श्रीरामायण और श्रीमहाभारत दोनों मोक्ष के साधन हैं)। 

अपनी आश्रित पारतंत्रीय को दर्शाने के लिये सर्वेश्वर कहने के बजाय श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी “तूदुपोनवन् ” (जो दूत बनकर गया था) कहते  हैं;  देवताओं के स्वामी होने की अपनी महानता और किये जानेवाले कार्य की निम्न स्वभाव को नजर अंदाज करते हुए पाण्डवों के लिये संदेश देनेवाले ताड़ के पत्ते  को अपनी गर्दन पर बांधने का उनके कार्य, अपनी  प्रेमी भक्तों के प्रति आज्ञाकारी होने की उनकी रूची के कारण था। यह कार्य उनके वात्सल्य गुण आदि को दर्शाता करता हैं जिन्हें भक्तों तक पहुंचने के लिये सरल रहना आवश्यक हैं। इस तरह की गुणवत्ता में डूबे हुए श्रीपरकाल स्वामीजी ने दयापूर्वक पेरिय तिरुमोऴि २.२.३ में कहते हैं  “इन्नर तूदनेन निन्ऱान् ” (वें पांडवों के दूत के रूप में खड़े थे) और पेरिय तिरुमोऴि ६.२.९ में कहते हैं  “कुडै मन्नरिडै नडन्द तूदा ” (दूत जो सम्राट के पास गया था)। इन्हीं दिव्य शब्दों के आधार पर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कृपाकर इस प्रकार लिखते हैं। हमारे आचार्य और आऴवारों कि महानता वहीं तत्त्वों को दौराना हैं। दूत के रूप में जाना तभी हीं हैं जब ऐसा कर्म से बंधे होने के कारण किया जाता हैं। जब भगवान अपनी इच्छा से अपने भक्तों के लिये यह कार्य करते हैं तो वे उनकी महानता की ओर ले जाते हैं। जैसे शृति में कहा गया हैं  “स यु श्रेयान् भवति जायमानः ”  (वह जन्म लेने के पश्चात हीं महानता प्राप्त करता हैं), जिस प्रकार दूसरों के लिए उसका जन्म उसकी महानता का कारण बनता है, उसी प्रकार उसने दूसरों के लिए अपनी इच्छा से जो भी (कोई अन्य कार्य) किया है, वह भी उसके लिए तेज की वृद्धि का कारण बनेगा।

केवल अज्ञानियों में से नेता ही यह सोचेंगे कि उनका दूत बनकर जाना एक घटिया कार्य है। जो लोग बुद्धीमान जनों में अग्रणी हैं वें श्रीसहस्रगीति १.३.१ “एत्तिऱम्”  (कितना अद्भुत) कहकर भ्रमित हो जायेंगे। अपनी सरलता कि महानता को दर्शाने के लिये श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कृपाकर कहते हैं “तूदुपोनवन् ”। क्योंकि महाभारत पूरी तरह से भगवान के वैभव को उजागर करने पर केन्द्रीत हैं जब वैशम्पायन ने जनमेजय को महाभारत कि कथा सुनाना प्रारम्भ किया तो उन्होंने कहा “नारायण कथाम् इमाम्​ ” (मैं ऋषि व्यास कि कृपा से इस महाभारत में नारायण कि कथा बताने जा रहा हूँ)। 

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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