४००० दिव्यप्रबंधम्

श्री: श्रीमते शठकोपाये नमः श्रीमते रामानुजाये नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्रीमन्नारायण ने कुछ चुनिंदे आत्माओं को दैविक ज्ञान और उसके प्रति असीम भक्ति प्रदान कर अनुग्रहित किया, और उन्हें आऴ्वार बनाया। इन आऴ्वारों ने श्रीमन्नारायण की स्तुति में क‌ई दिव्य स्तोत्रों (जिसे तमिऴ् में पासुरम् कहते हैं) की रचना की‌। ये पासुरम् कुल मिलाकर लगभग ४००० हैं और इसलिए ४००० दिव्यप्रबंध कहलाते हैं। दिव्य अर्थात जिसमें दैविक प्रवृत्ति का है और प्रबंधम् का अर्थ है साहित्य रचना (जो भगवान को भी भा जाती है)। वे सारे तीर्थक्षेत्र (दिव्य स्थल) जिसमें भगवान अर्चा (विग्रह) रूप में विराजमान हैं, जिनकी आऴ्वारों ने स्तुति की हो, दिव्यदेशम् कहलाने लगे। दिव्यदेशम् कुल १०८ माने जाते हैं। इनमें से १०६ भारत (नेपाल को भी समाविष्ट कर) देश की विविध प्रांतियों में स्थित हैं। क्षीराब्धि (क्षीरसागर) एकपाद विभूति में स्थित है, परंतु हमारे पहुँच के परे है। परमपद नित्य विभूति को कहते हैं जो मुक्ति मिलने पर प्राप्त होता है। श्रीरंङ्गम प्रधान दिव्यदेश माना जाता है और क्षेत्र जैसे तिरुमला, काँचिपुरम्, तिरुवल्लिक्केणि, आऴ्वार् तिरुनगरि मुख्य दिव्यदेशों में से कुछ हैं। भगवान के पाँच रूप हैं – परमपद में परमेश्वर (परमपद नाथ), क्षीराब्धि में व्यूह रूप, (हर जीवात्मा के अंदर परमात्मा बनकर) अंतर्यामी, विभव (राम, कृष्णादि अवतार) और अंततः अर्चा (विग्रह) रूप। इन सभी में अर्चारूप ही भगवान की अत्यधिक उदार रूप है जो सदैव सबकी पहुँच के अंदर है। ये सारे दिव्यदेश हमारे पूर्वाचार्यों के लिए उनके प्राण से भी बढ़कर रहे और उन्होंने अपने जीवन समर्पित कर दि‌ए दिव्यदेशों के भगवान और भागवतों की सेवा में। अधिक जानकारी हेतु, कृपया https://koyil.org पर जाएँ।

दिव्यप्रबंधम् ने वेद/वेदान्तों के तात्पर्यों को सुलभ और पवित्र तमिऴ् में व्यक्त किया है। दिव्यप्रबंधों का परम ध्येय सच्चे ज्ञान देकर जीवात्माओं का उज्जीवन करना है। आऴ्वारों के समय के क‌ई शताब्दियों बाद, अनेक आचार्य पुरुष, मुख्यतया क्रमशः नाथमुनि जी, श्री रामानुज और मामुणिगळ् (वरवरमुनी जी) प्रकट हुए और आऴ्वारों के दिव्य संदेश का आचरण प्रचार किया। जबकि अल्पबुद्धि लोगों ने आऴ्वार पासुरों को केवल तमिऴ् काव्य ही समझा, अतिबुद्धि आचार्यों ने यह सिद्ध किया कि ये पासुरम्, श्रीमन्नारायण ही माध्यम (इस लौकिक संसार से उत्थान करने) और परम ध्येय (हमारे सत्य स्वरूप- परमपद में श्रीमन्नारायण की सेवा में स्थित होना) होने के इन परम तत्त्वों को दर्शाते हैं। हमारे पूर्वाचार्यों ने दिव्यप्रबंधों का स्वारस्य अनुभव लिया और इन्हें सीखने, पढ़ाने और उन पासुरों की रीति से जीने में उनके जीवन केंद्रित किए।

प्रबंधम आऴ्वारपाशुर संख्या
मुदलायिरम्
तिरुप्पल्लाण्डु पेरियाऴ्वार१२
पेरियाळ्वार तिरुमोऴिपेरियाऴ्वार४६१
तिरुप्पावैआण्डाळ् ३०
नाच्चियार् तिरुमोऴिआण्डाळ् १४३
कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु मधुरकवि आऴ्वार११
पेरुमाळ् तिरुमोऴिकुलशेखराऴ्वार१०५
तिरुछन्दविरुत्तम्तिरुम​ऴिसैयाऴ्वार्१२०
तिरुमालैतोण्डरडिप्पोडि आऴवार्४५
तिरुप्पळ्ळियेऴुच्चितोण्डरडिप्पोडि आऴवार्१०
अमलनादिप्पिरान्तिरुप्पाणाऴ्वार्१०
इरण्डाम् आयिरम् 
पेरिय तिरुमाऴितिरुमङ्गैयाऴ्वार्१०८४
तिरुक्कुऱुन्दाण्डगम्तिरुमङ्गैयाऴ्वार्२०
तिरुनेडुन्दाण्डगम्तिरुमङ्गैयाऴ्वार्३०
इयऱ्‌-पा
मुदल् तिरुवंतादि पोय्गै आऴ्वार् १००
इरण्डाम् तिरुवंतादि भूतत् आऴ्वार् १००
मून्ऱाम् तिरुवंतादि पेय् आऴ्वार् १००
नान्मुगन् तिरुवंतादि तिरुम​ऴिसैयाऴ्वार्९६
तिरुविरुत्तम् नम्माऴ्वार्१००
तिरुवासिरियम् नम्माऴ्वार्
पेरिय तिरुवंतादि नम्माऴ्वार्८७
तिरुवेऴुक्कूट्रिरुक्कैतिरुमङ्गैयाऴ्वार्
सिऱिय तिरुमडल्तिरुमङ्गैयाऴ्वार्
पेरिय तिरुमडल् तिरुमङ्गैयाऴ्वार्
रामानुस नूट्रन्तादि तिरुवरङ्गत्तमुदनार्१०८
नान्गाम् आयिरम्
तिरुवाय्मोऴिनम्माऴ्वार्११०२

अडियेन् वैष्णवी रामानुज दासी

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