श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवर मुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः
आचार्य स्वान्त वक्तारम् अभिरमवराभितम् ।
श्री कृष्ण तनयम् वन्दे जगद्गुरुवरानुजम् ॥
मैं अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नयनार् को, जो आचार्य हृदयम् नामक दिव्य ग्रंथ के रचयिता हैं, जो श्री कृष्ण (वडक्कु तिरुविधि पिळ्ळै) के पुत्र और पिळ्ळै लोकाचार्य के छोटे भाई हैं उन्हे प्रणाम करता हूँ।
द्रविडाम्नाय हृदयम् गुरु पर्वक्रमागतम् ।
रम्यजामातृ देवेन दर्शितम् कृष्ण सूनुना ॥
तमिऴ् वेद (तिरुवाय्मोऴि) का अर्थ हमारी गुरु परंपरा से आया है; इनके अर्थों को अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नयनार् ने, जो श्री कृष्ण (वडक्कु तिरुविधि पिळ्ळै) के पुत्र हैं, अपनी सहज दयालुता प्रकट करते हुए इस ग्रंथ में सरल भाषा भाव में प्रस्तुत किया है।
पणवाळ् अरवणैप् पळ्ळि पयिल्बवर्क्कु ऎव्वुयिरुम्
गुण भोगम् ऎन्ऱु कुरुगैक्कदिबन् उरैत्त तुय्य
उणर्पाविन् उट्पोरुळ् ओन्ऱुम् अऱियावुलगऱिय
मणवाळन् माऱन् मनमुरैत्तान् वण् मुडुम्बै वन्दे।
तिरुक्कुरुगूर के स्वामी (नम्माऴ्वार्/श्री शठकोप स्वामी) ने समझाया कि सभी जीव उस (श्रीरंगनाथ) के सेवक हैं, जो चमकते हुये फन वाले आदिशेष पर लेटे हुए हैं। ऐसे आऴ्वार् के दिव्य हृदय/विचार, जो इस साहित्य का सार है, संसार के अज्ञानी लोगों के लाभ के लिए, उदार मुडुम्बै कुल में जन्म लिये अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् द्वारा बतलाया गया है।
मातवत्तोन् माऱन् मनम् कूऱुम् मणवाळन्
तोदवत्तित् तूय्मऱैयोरान पॆट्रार् – नीदियिनाल्
आङ्गवर्ताळ् सेर् पॆट्रार् आय् मणवाळ मुनि
पूङ्गमलत् ताळ्गळ् नॆन्जे पोट्रु
अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् ने माऱन् (नम्माऴ्वार्) जो बडी तपस्या में लीन हैं, उनके दिव्य हृदय के भावों को समझाया। नायनार् से एक व्यक्ति (पॆट्रार् नामक?) को यह ग्रंथ प्राप्त हुआ, ऐसे पॆट्रार् से, एक अन्य व्यक्ति जो पहले पॆट्रार् के प्रति बहुत समर्पित थे, उसे यह ग्रंथ प्राप्त हुआ। उन्होंने इस ग्रंथ को अयी जनन्याचार्य को दे दिया जो उस समय तिरुनारायणपुरम् में स्थित थे।
फिर उन्होंने इसे मणवाळ मामुनिगळ् (श्री वरवरमुनि स्वामी) को दे दिया, जिन्होंने इस ग्रंथ की महिमा हर जगह फैलाई।
हे मन! अत: तुम्हें ऐसे व्यक्तियों के दिव्य चरणों का वंदन और महिमा गानी चाहिए।
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