कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ५१ – अर्जुन और दुर्योधन की सहायता

श्री:श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः

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कृष्ण की महिमा और योग्यता विश्व विख्यात है, इसीलिए युद्ध आरम्भ होने से पहले अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही कृष्ण से सहायता लेने के लिए गये। आइए जानते हैं कि उन्होंने सहायता कैसे की।

एक बार कृष्ण विश्राम कर रहे थे कि दुर्योधन उनके दिव्य कक्ष में आया। वह सीधे कृष्ण के दिव्य शीर्षक के पास जाकर खड़ा हो गया। इसके पश्चात् अर्जुन अन्दर आया और सीधे कृष्ण के दिव्य चरण कमलों के पास जाकर खड़े हो गया। वे दोनों कृष्ण के जागने की प्रतीक्षा करने लगे। जब कृष्ण जागे और करुणामय देखने लगे, उन्होंने अर्जुन को देखा जो चरण कमलों की ओर खड़ा था और पूछा, “तुम्हारे आने का उद्देश्य क्या है?” अर्जुन के उत्तर देने से पहले ही दुर्योधन ने हस्तक्षेप कर कहा, “मैं उसके पहले आया था।” कृष्ण ने उसे भी देखा और स्वागत किया। दोनों का कुशलक्षेम पूछते हुए उनकी आवश्यकता पूछी। उन दोनों ने कहा कि युद्ध में कृष्ण की सहायता की आवश्यकता है। कृष्ण ने उनसे कहा कि एक ओर वे स्वयं होंगे और एक ओर उनकी नारायण सेना होगी। दुर्योधन ने उसी क्षण कहा कि उसको नारायण सेना चाहिए। अर्जुन ने कहा कि कृष्ण को अपने पक्ष में पाकर वह बहुत खुश हैं। कृष्ण ने भी उनके अनुरोध को स्वीकार कर सहायता करने का वचन दिया। दुर्योधन ने वहाँ से निकल कर तुरंत भीष्म, द्रोण आदि की सभा में जाकर बताया कि उसे कृष्ण से नारायण सेना प्राप्त हुई है। उन्होंने उसे फटकार लगाई और कहा कि, “जाओ और कृष्ण से प्रतिज्ञा करवाओ कि वह युद्ध में हथियार नहीं उठाएँगे।” दुर्योधन ने जाकर वैसा ही किया।

नम्माऴ्वार् ने तिरुवाय्मोऴि के कोल्ला माक्कोल् की टीका में नम्मपिळ्ळै ने इस लीला का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। अन्य पासुरों की टिप्पणी में भी आचार्यों ने इस लीला का वर्णन किया है।

सार-

  • जो लोग भगवान के प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते हैं, भगवान उन्हें सर्वस्व दे देते हैं। परन्तु जो लोग झूठा स्नेह दिखाते हैं तो उनकी वे झूठी सहायता ही करते हैं।
  • जो भगवान के प्रति समर्पित नहीं होते परन्तु उनके पास आते हैं, तब भी भगवान उन्हें मोह ग्रस्त कर व्यर्थ का फल देकर भेजा देते हैं।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

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