श्री:श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः
<< अर्जुन और दुर्योधन की सहायता
कृष्ण की दिव्य आकांक्षा अनुसार महाभारत युद्ध आरम्भ हुआ, कृष्ण अर्जुन के सारथी बने। उन्होंने अपनी विशाल सेना दुर्योधन को दे दी। पांडवों और कौरवों के लिए विशाल सेनाएं एकत्रित हुई।
वहां एकत्र हुए सैनिकों को अर्जुन ने जाँचकर कृष्ण को कहा कि वे अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य में स्थित करें। अर्जुन भीष्म, द्रोण आदि अपने सगे-संबंधियों और आचार्यों को देखकर स्तब्ध रह गया ओर पूर्ण व्यथा कृष्ण को बताई। उसने कहा कि ऐसे युद्ध से प्राप्त होने वाला राज्य नहीं चाहिए। उसने अपना गांडीव धनुष नीचे रख दिया और कृष्ण को शरणस्थल मानकर उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
यह देखकर कृष्ण ने गीतोपदेश के माध्यम से अर्जुन के भ्रम को दूर किया। श्री गीता में कृष्ण ने अर्जुन को कई तथ्यों को समझाया। हमारे पूर्वाचार्यों ने इसे स्पष्टतः समझाया है
- तत्व विवेक- चित्त (चेतन प्राणी), अचित (अवचेतन प्राणी) और ईश्वर को सही रूप से समझना
- नित्यत्व और अनित्यत्व – आत्मा शाश्वत है, अचित अस्थाई है।
- नियन्तृत्व- भगवान नियन्त्रण हैं।
- सौलभ्य- सरलता
- साम्य- भगवान का समान होना
- अहङ्कार दोष- अहङ्कार के दोष
- इन्द्रिय बल- स्वयं को नियंत्रित करने वाली इन्द्रियाँ
- मन:प्रधान्य- मन का महत्वपूर्ण स्थान
- सुकृति भेद- चार प्रकार के श्रेष्ठ जन
- देवासुर विभाग- दैवीय और बुरी शक्तियों की व्याख्या
- विभूति योग- अपनी असीमित सम्पदा का प्रकटीकरण
- साङ्ग भक्ति – भक्ति योग जिसमें उसके अंग के रूप में कर्म योग और ज्ञान योग होते हैं।
- दो प्रकार की प्रपत्ति- शरणागति (प्रपत्ति) जो भक्ति का एक भाग है और स्वतन्त्र शरणागति
इस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को अनेक तथ्यों का अनुभव कराया और कहा, “तुम बिना फल की चिंता किए इस युद्ध में सम्मिलित हो जाओ।” अन्त में अर्जुन से कहलवाया, “कृष्ण! आप जो कहेंगे मैं वही करूँगा।” तत्पश्चात् युद्ध आरम्भ हुआ।
आऴ्वारों ने कृष्ण के द्वारा कहे गए दिव्य वचनों की श्रीमद् भगवत गीता की स्तुति की है। उन्होंने इस बात पर महत्त्व दिया कि मनुष्य जन्म पाकर प्रत्येक व्यक्ति को अपने उत्थान के लिए श्रीमद् भगवत गीता का अध्ययन अर्थ सहित करना चाहिए। श्रीवैष्णवों के लिए विशेष रूप से चरम श्लोक के कारण श्रीमद् भगवत गीता का बहुत महत्त्व है जो कि १८.६६ में “सर्व धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज। अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।” (सभी धर्मों का पूर्ण त्याग कर मुझे ही एकमात्र धर्म समझो, मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो)। यह चरम रहस्य मन्त्रों का एक भाग है जिसे श्रीवैष्णव दीक्षा के एक भाग के रूप में सिखाया जाता है जिसे पञ्च संस्कार कहते हैं। इसको जानकर पालन करना श्रीवष्णवों का अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धांत है।
- तिरुमऴिशै आऴ्वार् ने नानमुगन् तिरुवन्दादि ७१ में कहा “सेयन् अणियन् सिऱियन् मिगप् पॆरियन् आयन् तुवरिक्कोनाय् निन्ऱ मायन् अन्ऱु ओदिय वाक्कतनैक् कल्लार् उलगत्तिल् एदिलराय् मॆय्ज्ञानमिल्” (अपने पहुँच से दूर होने पर भी सहज पहुँचने योग्य, बाल स्वरूप महान एम्पेरुमान् जो एक ग्वाल-बाल के रूप में अवतरित हुए और साथ में श्रीद्वारिकाधीश बने, महाभारत युद्ध के समय श्रीगीतोपदेश (ध्यान चरम श्लोक) दिया। जो जगत निवासी इस कैङ्कर्य का अभ्यास नहीं करते वे अज्ञानी भगवान के शत्रु जाने जाते हैं।)
- नम्माऴ्वार् ने तिरुवाय्मोऴि ४.८.५ में वर्णन किया “अऱिविनाल् कुऱैविल्ला अगल्ज्ञालत्तवर् अऱिय नॆऱियेल्लाम् ऎडुत्तुरैत्त निऱै ज्ञानत्तॊरु मूर्ति” (जो जगत निवासियों को अज्ञानहीन होने का अनुमान नहीं है, एम्पेरुमान् जो सर्वज्ञ हैं भिन्न-भिन्न प्रकार से स्पष्ट रूप से समझाते हैं।)
हमारे आचार्यों ने भी श्रीमद् भगवत गीता के अध्ययन करने की महत्ता बताई है। श्रीरामानुजाचार्य जी ने कृपापूर्वक श्रीमद् भगवत गीता की व्याख्या की है। वेदान्ताचार्य ने अपनी व्याख्या ‘तात्पर्य चन्द्रिका’ में श्रीरामानुजाचार्य के गीता भाष्य का विस्तार किया है। इन व्याख्याओं में विभिन्न शास्त्रों के उपयुक्त संदर्भों के साथ गीता श्लोकों का विशेष अर्थ प्रस्तुत किया है।
सार-
- हमारे पूर्वाचार्यों ने कहा कि भगवान गीताचार्य बने क्योंकि वे भी आचार्य पद चाहते थे। आचार्य पद स्वयं भी भगवान के लिए वांछनीय है।
- भगवान ने अर्जुन को मोहित कर माध्यम बनाकर संसार को गीता शास्त्र का उपदेश दिया।
- भगवान के द्वारा अर्जुन का सारथी बनना ही उनकी सौलभ्यता और आश्रित पारतन्त्रयता की चरम अवस्था है।
- भगवान के द्वारा अर्जुन को विश्वरूप दर्शन कराना उनके परत्व की चरम अवस्था है।
अडियेन् अमिता रामानुजदासी
आधार: https://granthams.koyil.org/2023/10/28/krishna-leela-52-english/
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