श्रीवचनभूषण – सूत्रं १५

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इस प्रकार,  श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने दयापूर्वक पुरुषकार (पिराट्टि) और उपाय (भगवान्) दोनों की विशिष्ट/व्यक्तिगत महानता को समझाया। इसके अलावा, वह दयापूर्वक उनकी सामान्य महानता की व्याख्या करते हैं।

सूत्रं १५

पुरुषकारत्तुक्कुम् उपायत्तुक्कुम् वैभवमावदु दोषत्तैयुम् गुणहानियैयुम् पार्त्तु उपेक्षियाद अळवन्ऱिक्के अङ्गीकारत्तुक्कु अवै तन्नैये पच्चैयाक्कुगै

सरल अनुवाद

पुरुषकार और उपाय की महानता न केवल चेतनों को उनके दोष और गुणहानी (अच्छे गुणों की कमी) देखकर नहीं छोड़ना है, बल्कि उन पहलुओं को उनका प्रसाद मानकर उन्हें स्वीकार करना है।

व्याख्यान

पुरुषकारत्तुक्कुम् …

पहले श्रीपिळ्ळै  लोकाचार्य स्वामीजी ने उनकी व्यक्तिगत महानता को उजागर करने के संदर्भ में दयापूर्वक पुरुषकार और उपाय की व्याख्या की थी। अब क्योंकि यह उन दोनों के लिए सामान्य महानता हैं इन्हें दयापूर्वक एक साथ समझाया हैं।  इन दोनों की विशिष्ट महानता को समझाते हुए, पुरुषकार की वास्तविक प्रकृति को सूत्र 11 “इरुवरैयुम् तिरुत्तुवदु ” आदि में स्पष्ट रूप से समझाया गया है और उपाय की वास्तविक प्रकृति को सूत्र 14 “उपाय कृत्यत्तैयुम् एऱिट्टुक् कोळ्ळुगैयाले ”  में स्पष्ट रूप से समझाया गया है। यहाँ, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक दोनों के वास्तविक स्वरूप और महानता को समझाते हैं।

दोषत्तैयुम् गुणहानियैयुम् पार्त्तु उपेक्षियाद अळवन्ऱिक्के

दोषम – निषिद्ध कार्यों में संलग्न होने जैसे नीच कार्य; गुणहानी – नियत कृत्यों को त्यागना। श्रीरामानुज स्वामीजी ने कृपाकर इसे शरणागति गध्यम चूर्णीकै  १०  “मनोवाकायैः” में समझाया हैं। भगवान के आदेश के रूप में है  शास्त्र जो कि विधि (करना) और निषेधम् (न करना) के रूप में है जैसा कि “इदं कुरु” (ऐसा करो) और “इदं माक्षर्षि:” (ऐसा न करें) में कहा गया है। भगवान ने स्वयं दयालु होकर श्रीपंचरात्र में कहा है “श्रुतिस्मृति ममैवज्ञ” (वेद और स्मृतियाँ मेरे आदेश हैं)। दोषम और गुणहानी क्रमशः निषिद्ध कार्यों में संलग्न हैं और ऐसे शास्त्र में निर्धारित कार्यों में संलग्न नहीं हैं।

इवै इरण्डैयुम् पार्त्तु उपेक्षियाद अळवन्ऱिक्के 

अनादि काल से, यह आत्मा भगवान के क्रोध का लक्ष्य रही है जैसा कि श्रीभगवद गीता १६.१९ में कहा गया है “क्षिपामि …” (मैं उन्हें नीच योनियों में दकेलता हूं) और वराह पुराण “नक्षमामि” (मैं उन लोगों को बर्दाश्त नहीं करूंगा जो मेरे भक्तों को अपमानित करते हैं)।  जब ऐसा जीवात्मा समर्पण के लिए भगवान की ओर जाता है, तो भगवान उसमें उन दोषों को देखने के पश्चात भी उसे स्वीकार करते हैं, लेकिन उन दोषों को अनदेखा कर देते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं। आगे,

अङ्गीकारत्तुक्कु अवै तन्नैये पच्चैयाक्कुगै

वह है-उन दोषमों और गुणहानी को चेतना को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने के प्रसाद के रूप में मानना। उनके त्याग न करने का कारण उनकी दया और धैर्य हैं। उनके द्वारा उन दोषम और गुणहानी को प्रसाद के रूप में स्वीकार करने का कारण उनका वात्सल्य है। यह उस गाय के समान है जो आमतौर पर उस घास को भी नहीं खाती जिस पर किसी का पैर पड़ गया हो,लेकिन जिस बछड़े को उसने जन्म दिया हो, उसके पिछले हिस्से की गंदगी को खुशी-खुशी खा लेती है। ऐसा कोई गुण नहीं है जो इस वात्सल्यम से मेल खाता हो।यही कारण हैं कि श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति के ६.१०.१० में “निगरिल् पुग​ऴाय् ! उलगम् मून्ऱुडैयाय् ! एन्नै आळ्वाने ! निगरिल् अमरर् मुनिक् कणङ्गळ् विरुम्बुम् तिरुवेङ्गडत्ताने !” (ओह जिसके पास अद्वितीय, महान वात्सल्य है, जिसके पास तीन प्रकार के चेतन और अचेतन का स्वामीत्व है जो प्रमाणों से सुविख्यात हैं, जिसके पास सौशिल्य है जो तुम्हें मुझे भी पहचानने/स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है, जिसमें कई दोष हैं और जो तिरुमला में मौजूद है सेवा पर ध्यान केंद्रित करने वाले अतुलनीय अमरों और ध्यान करने वाले ऋषियों द्वारा पूजे जाने की महान इच्छा के साथ निवास करने वाले पूर्ण सौलभ्य के साथ!) श्रीरामानुज स्वामीजी ने भी दयापूर्वक अन्य गुणों के बीच वात्सल्यम पर प्रकाश डाला जैसा कि शरणागति गद्यम चूर्णिकै ५ में कहा गया है “अपार कारुण्य सौशील्य वात्सल्य​ ” (अत्यधिक दयालु, सरल और मातृवत सहनशील होने के नाते), लेकिन इस गुण की विशिष्ट महानता पर जोर देने के लिए उसी चूर्णिकै के अंत में “आश्रित​ वात्सल्यैक जलधे” (भक्तों के प्रति वात्सल्य का सागर) पर फिर से प्रकाश डाला। यह वात्सल्य आत्मा के साथ उसके मातृ संबंध के कारण भगवान  की तुलना में अम्माजी में अधिक मात्रा में मौजूद है।

इस प्रकार, चेतन को स्वीकार करते समय, अम्माजी और भगवान दोनों, दोष और गुणहानी को प्रसाद के रूप में मानते थे।

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

आधार – https://granthams.koyil.org/2020/12/24/srivachana-bhushanam-suthram-15-english/

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