कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ५३ – महाभारत युद्ध -भाग १

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः

श्रृंखला

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भगवान के द्वारा गीतोपदेश देने के पश्चात् युद्ध आरम्भ हुआ। यह एक बहुत बड़ा युद्ध था जिसमें कई महान योद्धाओं ने भाग लिया। यह युद्ध अठारह दिनों तक चला। इसकी व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि योद्धा दिन में लड़ेंगे और रात में विश्राम करेंगे।

पांडवों की सेना का नेतृत्व धृष्टद्युम्न ने किया था, जो सेनापति थे। कौरवों की सेना का नेतृत्व भीष्म पितामह ने किया था।

कृष्ण पांडवों के घनिष्ठ मित्र रहे और उन्होंने प्रत्येक प्रकार से उनकी रक्षा की। रथ पर सवार होने की क्षमता के साथ उन्होंने अर्जुन को बड़ी कठिनाइयों से बचाया। उन्होंने भागदत्त के छोड़े गए बाणों को स्वीकार किया जो अर्जुन के वक्षस्थल को निशाना बनाकर साधे थे।

युद्ध में प्रतिदिन कुछ महान योद्धा मारे जाते थे। भीष्म पितामह की शक्ति दिनों दिन बढ़ती जा रही थी। एक दिन भीष्म ने भयंकर आक्रमण किया। अर्जुन भी एक सीमा के पश्चात् सामना नहीं कर सका। उस समय कृष्ण भीष्म पर बहुत क्रोधित हुए। वे अपने रथ से कूदे और रथ का चक्र उठाया और भीष्म पर आक्रमण करने आगे बढ़े। यह देखकर भीष्म आनन्दित हुए और कृष्ण से कहने लगे, “हे कमल के दल समान नेत्रों वाले, आओ! मुझ पर आक्रमण करो।” तब कृष्ण शान्त हो गये।

दसवें दिन शिखण्डि की सहायता से भीष्म पितामह को पराजित किया। अम्बा जिसका भीष्म ने पूर्व में हरण लिया था, अगले जन्म में शिखण्डि के रुप में जन्म लिया। वह यक्ष की सहायता से पुरुष बनी। जब अर्जुन ने भीष्म से युद्ध करते समय शिखण्डि को अपने आगे रखा, तो भीष्म पितामह ने अपने हथियार त्याग दिए और कहा कि वे स्त्री से युद्ध नहीं करेंगे। तब अर्जुन ने भीष्म पर बहुत सारे बाण चला कर गिरा दिया, और बाणों की शय्या पर लिटा दिया। भीष्म को वरदान मिला हुआ था कि वे इच्छानुसार प्राण त्याग सकते थे। कृष्ण के दिव्य इच्छा से भीष्म ने पांडवों को सहस्रनाम दिया। अगले लेख में जानेंगे।

आऴ्वारों ने अपने पासुरों में महाभारत युद्ध का वर्णन किया है।

  • पेय् आऴ्वार् ने अपने मून्ऱाम् तिरुवन्दादि में वर्णन किया है, ऐवर्क्काय् अन्ऱु मिडैन्ददु बारद वॆम् पोर्” (अतीत में उन्होंने बहुत ही उग्रता से महाभारत युद्ध का संचालन किया था)।
  • नम्माऴ्वार् ने अपने तिरुवाय्मोऴि में वर्णन किया, कॊल्ला माक्कोल् कॊलै सॆय्दु बारदप् पोरॆल्लाच् चेनैयुम् इरु निलत्तवित्त ऎन्दाय्” (हे मेरे स्वामी और गुरु जिन्होंने महाभारत युद्ध में विशाल भूमि (धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र नामक धार्मिक स्थल) में सेना का विनाश किया (भले ही कोई शत्रु या पांडवों से सम्बंधित हो, जो पृथ्वी पर भार थे, एक कांटेदार छड़ी के साथ (जैसे “मयैवैते निहताः” में वर्णन है, पूर्णतः इच्छानुसार) जो केवल घोड़े को हांकने के लिए है न कि किसी को मारने के लिए!)
  • पेरियाऴ्वार् अपने पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि में वर्णन करते हैं “मॆच्चूदु सङ्गमिडत्तान् नलवेयूदि पॊय्च्चूदिल् तोट्र पॊऱैयुडै मन्नर्क्काय् पत्तूर् पॆऱाद अन्ऱु भारदम् कै सॆय्द अत्तूदन् अप्पूच्चि काट्टुगिन्ऱान् अम्मने! अप्पूच्चि काट्टुगिन्ऱान्” (कृष्ण जो मधुर वंशी बजाते हैं, जो सभी की महिमा मंडित करने के लिए पांचजन्य शंख बजाते हैं, द्यूत क्रीड़ा में पराजित होने वाले पांडवों के साथी बने, उस समय महाभारत युद्ध आयोजित किया। पांडवों का दूत अप्पूच्चि (पलकों को मोड़कर दूसरों को भयभीत करना) दिखा रहा है।)
  • तिरुमङ्गै आऴ्वार् ने अपने पेरिय तिरुमोऴि में वर्णन किया, पन्निय बारम् पार् मगट्कु ऒऴियप् पारद मा पॆरुम् पोरिल् मन्नर्गळ् मडिय मणि नॆडुन्दिण् तेर्  मैत्तुनर्क्कु उय्त्त मामायन्” (भूमि देवी के असहनीय भार का विनाश करने के लिए कृष्ण सुन्दर, विशाल रथ पर सुदृढ़ रहे और राजाओं का वध करने के लिए महाभारत युद्ध का संचालन किया)।

सार-

  • कृष्ण का दिव्य विचार ऐसा है कि अपने भक्त की प्रतिज्ञा का मान रखने के लिए अपनी प्रतिज्ञा की कीमत सुनिश्चित करेंगे। यद्यपि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वे शस्त्र नहीं उठाएंगे तब भी भीष्म की प्रतिज्ञा का सत्य रखने के लिए कृष्ण ने शस्त्र उठाने का सोचा।
  • केवल रथ पर सवार होकर पूरा युद्ध जीत लिया। परन्तु यह सुनिश्चित किया कि जीत का श्रेय अर्जुन को मिले।
  • जब भी अर्जुन को संकट का सामना करना पड़ा तब कृष्ण ने अपने दिव्य श्रीमुख, दिव्य कंधों और दिव्य वक्षस्थल पर लगे बाणों को स्वीकार किया और अर्जुन की रक्षा की। आज भी उन्हें अर्चा (विग्रह) रूप पार्थसारथी के रूप में स्तुति  की जाती है।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी।

आधार – https://granthams.koyil.org/2023/10/29/krishna-leela-53-english/

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