आचार्य हृदयम् – १

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः

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अवतारिका(परिचय)


प्रथम चूर्णिका में जैसे कि श्रीरङ्गराज स्तवम में वर्णन किया है, “हर्तुं तमस् सदसती च विवेक्तुमीशो मानं प्रदीपमिव कारुणिको ददाति। तेनावलोक्या कृतिन: परिभुञ्जते तं तत्रैव केऽपि चपलाः शलभीभवन्ति।।” (एम्पेरुमान् जो कृपा सिंधु हैं वे वेद प्रदान करते हैं जो अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने और लाभ और हानि का विश्लेषण के लिए ज्योति समान है। जो लोग भगवान के प्रति श्रद्धा पूर्वक समर्पित हैं वे इस दीपक की सहायता से भगवान को प्राप्त करते हैं, जिनका हृदय चञ्चल है (जो सांसारिक क्रिया कलापों में लिप्त हैं) पतंगों के जैसे दीपक में ही गिर नष्ट हो जाते हैं) स्वाभाविकत: कृपालु सर्वेश्वर अज्ञानियों को कृपापूर्वक ये वेद दिये। शास्त्र अच्छा और बुरे में भेद करने का एक उपाय है।

चूर्णिका-१

कारुणिकनान सर्वेश्वरन् अऱिविला मनिसर् उणर्वॆनुम् सुडर् विऴक्केट्रिप् पिऱङ्गिरुळ् नीङ्गि मेलिरुन्द नन्दा वेद विळक्कैक् कण्डु नल्लदुम् तीयदुम् विवेकिक्कैक्कु मऱैयाय् विरिन्द तुळक्कमिल् विळक्किल् कॊळुत्तिन प्रदीपमान कलैगळै नीर्मैयिनाल् अरुळ् सॆय्दान् ।

सरल व्याख्या  

अज्ञानियों को ज्ञान का दीपक जलाने और अंधकार अर्थात् अज्ञानता से मुक्त होने के लिए सहायक रूपी, वेद के शाश्वत दीपक को देखकर भला और बुरे का भेद जानने लिए, कृपालु सर्वेश्वर ने अपनी करुणा के कारणवश कृपा बरसाई तथा कृपापूर्वक वेद शास्त्र प्रदान किये, जो अक्षर “अ” से उत्पन्न हुआ, जो स्वंय भगवान का प्रतिनिधित्व करता है।

व्याख्यान (टीका टिप्पणी)

कारुणिकनान सर्वेश्वरन्

जिसमें करुणा और स्वतंत्रता दोनों हैं। यदि जिसमें करुणा है परन्तु वह स्वतंत्र नहीं है तो वह अपनी इच्छानुसार क्रिया नहीं कर सकता; यदि वह केवल स्वतंत्र है (करुणा रहित) तो उसकी स्वतंत्र इच्छा बन्धन और मुक्ति के प्रति समान है, मुक्ति के लिए प्रयास करने वाली (बद्ध) आत्माओं की सहायता नहीं करेगी। इसलिए बद्ध आत्माओं को मुक्त करने के प्रयासों की ओर प्रेरित करना उसकी करुणा और उसकी स्वतन्त्रता के संयोजन पर निर्भर है। वैकल्पिक व्याख्या – सर्वेश्वर शब्द नियन्त्रक-नियन्त्रित सम्बन्ध (भगवान और आत्माओं के मध्य) की ओर इंगित करता है। लक्ष्मी तन्त्र में “कृपायोगाश्च शाश्वतात्” (सदैव करुणामय होने के कारण) कहने के पश्चात यह कहा गया “इशेशितव्य सम्बन्धात् अनितम् प्रथमादपि” (भगवान और आत्मा के मध्य नियंत्रक और नियंत्रित के रूप में पुरातन सम्बन्ध के कारण)। इसलिए, भगवान के बद्ध आत्माओं की मुक्ति के प्रयासों के कारण ही कृपालु और सम्बन्धित होना है। दयालुता के बाद उनके सम्बन्धित होने के विषय में जानकारी दी गई है। इसके साथ यह उल्लेखनीय है कि उन्हें अपनी सम्पत्ति के रूप में मनोनीत करने के साथ-साथ कृपा के कारण जो दूसरों के दु:खों को सहन नहीं करने देती, वह बद्ध आत्माओं की मुक्ति के लिए अधिकाधिक प्रयास करते हैं।

अऱिविला मनिसर् 

ज्ञान हीन आत्माएं जैसे कि तिरुमालै १३ “अऱिविला मनिसर्” (अज्ञानी) में कहा गया है। कहा गया है “अन्दम् तम इवाज्ञानम्” (अज्ञान अन्धकार के समान है जो दृष्टि को आवृत कर देता है।) “हर्तुम् तम:” में अज्ञान को कृपापूर्वक तमस शब्द से इंगित किया गया था। इसके साथ यह समझाया गया है कि ये बद्ध आत्माएं जो अज्ञान रूपी अन्धकार से आवृत हैं और उसके कारण आत्मा और प्रकृति के मध्य भेदभाव करने की क्षमता का अभाव है।

उणर्वॆनुम् सुडर् विऴक्कु एट्रि

जैसे कि मून्ऱाम् तिरुवन्दादि ९४ “उणर्वॆन्नुम् ऒळि कॊळ् विळक्केट्रि” (चमकता हुआ ज्ञान रूपी दीपक जलाना), इरण्डाम् तिरुवन्दादि१ “ज्ञानच् चुडर् विळक्केट्रिनेन्” (मैंने ज्ञान से चमकता हुआ दीपक प्रज्वलित किया) ऐसे दीपक जिसमें बाती और तेल के बदले, जो गन्दगी को जमाते हैं, ज्ञान जो प्रज्वलित है। ज्ञान का दीपक से तुलना किया गया है,‌ क्योंकि दोनों में स्वयं और अन्य को अपने प्रकाश से प्रकाशित करने की प्रकृति है।

पिऱङ्गिरुळ् नीङ्गि

जैसे पेरिय तिरुमोऴि पिरङ्गिरुळ् निऱङ्गॆड” (घोर अन्धकार को दूर करना) और पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि १.८.१० “पिन्निव्वुलगिनिल् पेरिरुळ् नीङ्ग” (तत्पश्चात् इस जगत का अंधकार समाप्त करना) में वर्णन किया गया है, यहाँ अंधकार शब्द का अर्थ है अज्ञान से मुक्त होना।

मेल्स इरुन्द नन्दा विऴक्कैक् कण्डु

जैसे कि पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.३.१ में “वेदान्त विऴुप्पॊरुळिन् मेलिरुन्द विळक्कु” (भगवान, जो वेदांत के सार के ऊपर के दीपक हैं), पेरिय तिरुमोऴि २.५.१ में “नन्दा विळक्कु” (निरन्तर प्रज्वलित दीपक), तिरुवाय्मोऴि ४.७.१० में “वेद विळक्किनै” (वेद का दीपक) वर्णन किया है, भगवान वेद में सभी के स्वामी के रूप में चमक रहे हैं, जिनके पास वास्तविक प्रकृति के रूप में शाश्वत, स्वयं प्रकाशित ज्ञान है, और जिन्हें केवल वेद के माध्यम से जाना जा सकता है; ऐसे एम्पेरुमान् को आंतरिक नेत्रों (ज्ञान नेत्र) के माध्यम से देखना, जैसे तिरुवाय्मोऴि ४.७.१० में वर्णन किया है, एन् तक्क ज्ञानक् कण्गळाले” (मेरे उपयुक्त आंतरिक ज्ञान रूपी चक्षुओं से।)

नल्लदुम् तीयदुम् विवेकिक्कैक्कु

जैसे कि पेरिय तिरुवन्दादि ३ में कहा गया है “इवैयन्ऱे नल्ल इवैयन्ऱे तीय” (ये अच्छे हैं ये बुरे हैं) सत् असत् के मध्य भेद करने के लिए। “सदसती च विवेक्तुम्” (अच्छे व बुरे के मध्य भेद करने के लिए) कहा गया था। जबकि यह उक्ति, नल्लदुम् तीयदुम् विवेकिक्कैक्कु” सामान्यत: अच्छे और बुरे के मध्य भेद करने की जानकारी देता है, यहाँ यह दर्शाता है कि भगवद् विषय अच्छा है और यह भौतिक संसार बुरा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पूर्व में कहा गया है, नन्दा विळक्कैक् कण्डु नल्लदुम् तीयदुम् विवेकिक्कैक्कु” (भगवान के साक्षात्कार के पश्चात् अच्छे और बुरे का भेद करना) इस प्रकार के भेद करने के फलस्वरूप संसार को त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति करनी होगी। भगवान के साक्षात्कार के पश्चात् इस प्रकार का अच्छे बुरे का भेद करने का क्या अर्थ है? केवल भगवान के साक्षात्कार के पश्चात् संसार के दोषों को गहन रूप से समझा जा सकता है, और जब एक को दूसरे के संदर्भ में देखा जाता है, दोनों में अच्छे और बुरे को समझने के लिए‌, तब दोनों को ही देखना आवश्यक है।

मऱैयाय् विरिन्द तुळक्कमिल् विळक्किल् कॊळुत्तिन प्रदीपमान कलैगळै

जैसे कि पेरिय तिरुमोऴि ८.९.४ “मरैयाय् विरिन्द विळक्कै” (दीपक जो वेदों में विकसित हुआ है) और तिरुच्चन्द विरुत्तम् ४ “तुळक्कमिल् विळक्कम्” (दीपक जो बिना किसी विक्षोभ के प्रज्वलित रहता है)। क्योंकि यह कहा गया है “अकारोवै सर्ववाक्” (अक्षर “अ” का सभी वेदों में विस्तारित हुआ है), “अ” (अकारम्) सभी वेदों का कारण है और इसका कोई अन्य मूल नहीं है इसलिए इसमें कोई भ्रांति नहीं है। “अ” से उत्पन्न वेद जो एक दीपक से दूसरे दीपक के प्रज्वलित होने से बहुत चमकता है। जैसे कि कहा गया है “मानम् प्रदीपमिव” (शास्त्र जो एक विशाल दीपक के समान है), जो स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि क्या त्यागना है और क्या अनुसरण करना है। जैसे पेरिय तिरुमोऴि ७.८.२ “पन्नु कलै नाल्वेदम्” (चार वेद जो शास्त्र हैं) और पेरिय तिरुमोऴि २.८.५ “कलैगळुम् वेदमुम्” (शास्त्रज्ञ, वेदम्) में कहा गया है, यह श्रुति और अंश के द्वारा श्रुति को समझा जाता है‌, वेद और वे भाग जो वेदों को विस्तृत करते हैं। यहाँ “वाच्य वाचक सम्बन्ध” (शब्द और अर्थ के मध्य सम्बन्ध) के आधार पर, अकारम् को भगवान के समान माना गया है जैसे कि “मऱैयाय् विरिन्द विळक्कै” और “तुळक्कमिल् विळक्कै”, और जैसे इसमें कहा गया है “अ इति ब्रह्म” (अकारम् ब्रह्म को इङ्गित करता है)।

नीर्मैयिनाल् अरुळ् सॆय्दान्

नीर्मै- उनका स्वरूप। उन्होंने अपने स्वभाव के कारण (भगवान होने के नाते) दिया। अर्थात् “उसने अपने स्वामी होने के स्वभाव के नाते दिया” या “उसने करुणावश दिया” या यह दोनों [उसका स्वभाव और करुणा] हो सकता है। पहला दृष्टिकोण पेरिय तिरुमोऴि २.८.५ में पूर्वाचार्यों द्वारा नीर्मै के लिए दिए गये स्पष्टीकरण और नायनार् का उत्तरवर्ती कथन “इन्द उदरत्तरिप्पु त्रैगुण्य विषयमानवट्रुक्कु प्रकाशकम्” के जैसा है। मध्य दृष्टिकोण आरम्भ में स्वयं नायनार् द्वारा कथित शब्द ”कारुणिगनान” और भट्टर् के करुणामय शब्द “कारुणिको ददाति” के समान हैं। अन्तिम दृष्टिकोण “कारुणिगनान सर्वेश्वरन्” की दूसरी व्याख्या के जैसा है।

इस प्रकार इस चूर्णिका के माध्यम से नायनार् स्पष्टीकरण करते हैं कि किस प्रकार ईश्वर ने अज्ञानी, बद्ध जीवों को शास्त्र प्रदान किया और उसका कारण यह है कि वे उज्जवल ज्ञान प्राप्त कर सकें, अज्ञान से मुक्त हो सकें और भगवान का साक्षात्कार कर अच्छे और बुरे में अन्तर जान सकें।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

आधार – https://granthams.koyil.org/2024/02/25/acharya-hrudhayam-1-english/

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