कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ५९ – परमपद धाम की ओर लौटना

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कृष्ण इस भौतिक संसार में सहस्र वर्ष तक रहे और बहुत लोगों का कल्याण किया। तत्पश्चात् उन्होंने दिव्य तेजोमय निजधाम जाने का निश्चय किया। आइए देखते हैं कि कैसे परमपद गये।

महाभारत युद्ध के पश्चात् धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने श्राप दिया कि जैसे उनके पुत्रों का विनाश हुआ है वैसे ही यादव वंश का भी नाश होगा। कृष्ण ने उसे स्वीकार कर लिया। जब कृष्ण ने कृपापूर्वक परमपद जाने का निश्चय किया तो उसका प्रभाव यादव वंश पर दिखाई देता है। सभी यादव धर्म भूल गए और सांसारिक सुखों में लिप्त हो गये। एकदा वहाँ से कुछ ऋषि आ रहे थे तब उन्होंने साम्ब कप

आ के पेट पर लकड़ी का एक मूसल बांध दिया और ऋषियों से व्यंग्यकर से पूछा, “यह कौन सी सन्तान को उत्पन्न करने वाला है?” उनकी वृत्ति को जानकर ऋषियों ने श्राप दिया, “यह एक मूसल पैदा करेगा और उससे तुम्हारा वंश समूल नष्ट होगा।” यादव भयभीत हो गए और मूसल के छोटे-छोटे टुकड़े कर समुद्र में फेंक दिए। वे टुकड़े समुद्रतट पर जंगली घास के रूप में उग गये। उन टुकड़ों में से एक धातु एक मछली निगल गयी और वही नुकीला टुकड़ा अंततः जरा नामक एक शिकारी के पास पहुँच गया।

यहाँ द्वारका में बुरे संकेत दिखाई देने लगे। कृष्ण ने सभी को कहा कि इस स्थान को छोड़ देना ही कल्याणकारी होगा। एक-एक करके सभी लोग वहाँ से पलायन करने लगे। यादव बहुत नशे में होने के कारण भ्रमित थे, उनकी आपस में लड़ाई आरम्भ हो गई। उन्होंने वहाँ से जंगली घास उठाकर एक दूसरे पर प्रहार करना आरम्भ कर दिया। किसी ने बलराम पर प्रहार किया तब कृष्ण और बलराम ने उन पर प्रहार किया और उन्हें मार डाला। बलराम बैठ गये और ध्यान करते हुए परमपद को चले गए। कृष्ण ने उस स्थान को त्याग कर प्रभास तीर्थ स्थल को गये और शान्ति पूर्वक ध्यान करने लगे। उस समय जरा नामक शिकारी वहाँ आया और दूर से कृष्ण के चरण कमलों को हिरण का सिर समझ कर मूसल के नुकीले से कृष्ण के चरण के अंगुष्ठ में मार दिया। पास जाकर अपनी भूल को जानकर उसने कृष्ण से क्षमा माँगी। परन्तु कृष्ण ने उसे सांत्वना दी और कहा, “मैं तुम्हारे माध्यम से अपनी लीला पूर्ण कर रहा हूँ और परमपद की ओर जा रहा हूँ।” अपने दिव्य रूप के साथ परमपद की ओर जाने लगे। उसी समय कृष्ण का सारथी दारुका वहाँ आया और बहुत द:खी हुआ। कृष्ण ने अपने दिव्य चरण कमल उसके शीर्ष पर रखकर आशीर्वाद दिया और चले गए।

उसने द्वारका लौटकर कृष्ण के परमपद को प्रस्थान के स्थान की घोषणा की। सभी बहुत दुःखी थे। अर्जुन सभी महिलाओं और वृद्धों को सुरक्षित द्वारका से बाहर ले आया। तत्पश्चात् द्वारका नगरी समुद्र में समा गयी।

नम्माऴ्वार् ने अपने तिरुवाय्मोऴि में वर्णन किया है कि कैसे कृष्ण ने परमपद को प्रस्थान किया, “पोय् विण् मिसैत् तन धाममे पुग मेविय सोदि” (अपनी लीला पूर्ण करके वे परमाकाश में अपने प्रतिष्ठित धाम को प्राप्त हुए।

सार-

  • भगवान के अवतार का मुख्य कारण आत्माओं की करुणापूर्वक रक्षा करने की इच्छा है। जो अन्य कारण बताये हैं वे संयोगवश हैं। इसलिए जब वे परमपद को जाते हैं, मुख्य कारण उनकी स्वयं की इच्छा ही है। गांधारी का श्राप, शिकारी द्वारा शर मारना ये सब संयोगवश हैं।
  • जबकि यादव कृष्ण के सगे संबंधी होने पर भी उनको उनके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं था, वे केवल कृष्ण के साथ शारीरिक संबंध मानते थे। इसलिए भगवान ने उन्हें अपने साथ होने का सुख दिया और उचित समय आने पर उसी सुख के साथ अन्त भी कर दिया। विदुर और अक्रूर आदि को केवल कृष्ण के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान था और उन्हें स्थायी सुख प्राप्त हुआ।
  • भगवान ने परमपद की ओर जाते हुए अपने दिव्य स्वरूप से प्रस्थान किया। जबकि उनके अवतारों में उनका दिव्य मङ्गल विग्रह मनुष्य जैसा दिखाई देता है परन्तु यह दिव्य स्वरूप ही है।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

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