श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
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अवतारिका
आगे, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीशठकोप स्वामीजी (नम्माऴ्वार्) के आचरण के माध्यम से स्पष्ट रूप से समझा रहे हैं कि अर्चावतार जिसमें गुणों की इतनी संपूर्णता है कि श्रीशठकोप स्वामी के समर्पण के लिए उपयुक्त लक्ष्य है जो प्रपन्न जन कूटस्थ (समर्पित व्यक्तियों के बीच नायक) हैं
सूत्रं – ३५
आऴ्वार्गळ् पल इडङ्गळिलुम् प्रपत्ति पण्णिट्रुम् अर्चावदारत्तिले।
सरल अनुवाद
आऴ्वारों ने अर्चना रूप (भगवान का विग्रह रूप) के प्रति अनेक बार शरणागति की है ।
व्याख्यान
आऴ्वार्गळ् …
आऴ्वार् वे हैं जो भगवान के प्रति स्पष्ट ज्ञान और भक्ति के आशीर्वाद के कारण भगवान के पांच स्वरूप जैसे पर, व्यूह, विभाव, अंतर्यामी और अर्चा को अपने हाथ में फल के रूप में बहुत स्पष्ट रूप से देखते हैं। ऐसे आऴ्वारों ने, भगवान तक पहुँचने की अपनी प्रबल इच्छा के कारण बार-बार समर्पण करते हुए, कई अवसरों पर अर्चावतार भगवान के प्रति समर्पण किया; उन्होंने केवल कुछ अवसरों पर ही भगवान के अन्य स्वरूप के प्रति समर्पण किया।
वह कैसे?
सभी आऴ्वारों के स्वामी श्रीशठकोप स्वामीजी (नम्माऴ्वार्) ने अर्चावतार में कई अवसरों पर प्रपत्ती की हैं, जैसा कि श्रीसहस्रगीति (तिरुवाय्मोऴि) ५.७.१० में कहा गया है “आऱॆनक्कु निन् पादमे शरणागत् तन्दॊऴिन्दाय्” (आपने (भगवान्) मुझे केवल अपने दिव्य चरण प्रदान किये हैं जो कि उपाय के रूप में लक्ष्य प्राप्त करने के साधन हैं), श्रीसहस्रगीति ५.८.११ “कऴल्गळ् अवैये शरणागक् कॊण्ड” (ऐसे कृष्ण के दिव्य चरणों को माना जाता है जो उनके लिए एकमात्र साधन के रूप में प्रकट हुए थे), श्रीसहस्रगीति ५.९.११ “नम्पॆरुमान् अडि मेल् सेमम् कॊळ् तॆन् कुरुगूर्च चटकोपन्” (सहस्त्र नामों वाले सर्वेश्वर को हर कोई दृढ़ता से “हमारे भगवान” कहकर समर्पण कर सकता है। क्रमबद्ध आऴ्वार् तिरुनगरी के नेता श्रीशठकोप स्वामीजी, ऐसे सर्वेश्वर के दिव्य चरणों में बुद्धि के रूप में दृढ़ विश्वास रखते हैं। शांति प्रदान करने वाले) और श्रीसहस्रगीति ६.१०.१० “उन् अडिक् कीऴ् अमर्न्दु पुगुन्देन्” (मैंने आपके दिव्य चरणों के नीचे प्रवेश कर शरण ली)। केवल श्रीसहस्रगीति ५.१० “पिऱन्दवाऱुम्” में आऴ्वार् ने विभवावतार में समर्पण किया।
श्रीपरकाल स्वामीजी ने भी कई अवसरों पर अर्चावतार में प्रपत्ती का प्रदर्शन किया जैसा कि पेरिय तिरुमॊऴि १.६.४ में देखा गया है “वन्दु उन् तिरुवडि अडैन्देन् नैमिसारणियत्तुळ् ऎन्दाय्” (हे नैमिशारण्य के भगवान! मैं आकर आपके दिव्य चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया है), पेरिय तिरुमॊऴि १.९.१ “विरैयार् तिरुवेङवगडवा नायेन् वन्दडैन्देन्” (हे श्रीनिवास, जो सुगंधित तिरुवेंकट पहाड़ी पर रहते हैं! मैं, जो एक कुत्ते के जैसे हूँ, यहाँ आया हूँ और आपके पास पहुँचा हूँ), पेरिय तिरुमॊऴि ४.६.१ “कावळम्पाडि मेय कण्णने कळैगण् नीये” (हे कृष्ण जो दृढ़ बने हुए हैं कावळम्पाडि में! आप मेरे रक्षक हैं), पेरिय तिरुमॊऴि ५.८.१ “आऴिवण्णा निन् अडियिणै अडैन्देन् अणि पॊऴिल् तिरुवरङ्गत्तम्माने” (हे समुद्र के समान रंग वाले! हे सुंदर उद्यानों वाले श्रीरंगम के स्वामी! मैं आपके दिव्य चरणों तक पहुँच गया हूँ)
इसी प्रकार, हम अन्य आऴ्वारों के विषयों में भी उनके प्रबंधों में देख सकते हैं।
प्रपत्ति पण्णिट्रुम् में “च” शब्द (अंत में उम्, अर्थात “भी”) पूर्तियुळ्ळदुम् में “च” से संबंधित है।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/01/18/srivachana-bhushanam-suthram-35-english/
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