श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
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अवतारिका
श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी भक्ति की अवस्था में परिवर्तन के प्रभाव के विषय में बताते हैं जो व्यक्ति की प्रपत्ती के प्रति प्रतिबद्धता को तोड़ देता है।
सूत्रं – ५२
तन्नैप् पेणवुम् पण्णुम् धरिक्कवुम् पण्णुम्।
सरल अनुवाद
इससे स्वयं का पालन-पोषण होगा और स्वयं को कायम रखा जा सकेगा।
व्याख्या
तन्नै …
तन्नैप् पेणवुम् पण्णुम्
जैसा कि पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ३.७.८ में कहा गया है “काऱै पूणुम् कण्णाडि काणुम् तन् कैयिल् वळै कुलुक्कुम् कूऱै उडुक्कुम् अयर्क्कुम् तन् कोवैच् चॆव्वाय्त् तिरुत्तुम्” (वह अपने कंठ पर सुवर्ण आभूषण पहनती है, अपनी चूड़ियाँ खनकाती है, अच्छे कपड़े पहनती है, अपने लाल होंठों पर रंग लगाती है) कि अत्यधिक विकसित भक्ति की अवस्था इन्हें स्वयं को सजाकर भगवान को अपने निकट लाने के लिए विवश कर देती है। अर्थात्- यह उन्हें आत्मप्रयास में संलग्न कर देगा। स्वयं को सजाने की गतिविधि अन्य गतिविधियाँ जैसे मडल् करना, दूत भेजना आदि के लिए एक उदाहरणार्थ है।
धरिक्कवुम् पण्णुम्
क्योंकि आऴ्वा भगवान से वियोग में एक क्षण के लिए भी रह नहीं सकते हैं, वही अत्यधिक भक्ति जिसने उन्हें भगवान को पुनः लाने के लिए आत्म-प्रयास में लगा दिया, उन्हें प्रणयकलह (प्रेमी-प्रेमिका के बीच तकरार) दिखाने पर विवश कर देगी, और श्रीसहस्रगीति ६.२.२ “पोगु नम्बि” (ओह पूर्ण! चले जाओ!) और श्रीसहस्रगीति ६.२.६ “कऴगमेऱेल् नम्बि” (ओह पूर्ण! चले जाओ! हमारी गोष्ठी में प्रवेश न करें!) कहते हुए, द्वेष के कारण उसे दूर धकेने और स्वयं को बचाने पर विवश कर देगी।
इस प्रकार, इन दोनों के साथ यह समझाया गया है कि यह अत्यधिक भक्ति श्रीसहस्रगीति ५.८.३ “ऎन्नान् सॆय्गेन्” (मैं क्या कर सकता हूँ?) और श्रीसहस्रगीति ५.८.७ “धरियेन् इनि” (मैं अब और नहीं संभल सकता) में दर्शाई गई स्थिति के विपरीत दशा की ओर ले जाएगी। इसलिए, प्रपत्ती में उनका विश्वास खोना और आत्म-प्रयास में संलग्न होना भक्ति की अत्यधिक विकसित अवस्था के कारण है।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/02/18/srivachana-bhushanam-suthram-52-english/
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