श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
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अवतारिका
जब पूछा गया तो श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक उत्तर देते हैं कि “यद्यपि प्रापक (जो परिणाम प्रदान करता है) ईश्वर है, तो क्या चेतना ही प्राप्ता (जो परिणाम प्राप्त करता है) और प्राप्तिक्कु उगप्पान् (जो परिणाम का आनंद लेता है) नहीं है? ऐसी स्थिति में चेतन के विचार को इस प्रकार पूर्णतया कैसे त्याग दिया जा सकता है?”
वैकल्पिक रूप से (किसी के प्रश्न न पूछे जाने पर भी पहले सूत्रों से संबंधित आगे सयझाते हुए), जैसा कि यह स्थापित है कि चेतन के भाग में उपाय के रूप में कुछ भी नहीं है और ईश्वर ही उपाय हैं, चेतन जो परिणाम प्राप्त करता है और जो परिणाम का आनंद लेता है वह भी शून्य हो जाता है, और यहाँ तक कि वे विषय भी भगवान के भाग हैं यह स्थापित हो रहे हैं। इसलिए श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक [इस खंड] का समापन करते हुए कहते हैं “प्रापत्तावुम् प्रापकनुम् प्राप्तिक्कु उगप्पानुम् अवने”।
सूत्रं – ७०
प्रापत्तावुम् प्रापकनुम् प्राप्त्तिक्कु उगप्पानुम् अवने।
सरल अनुवाद
भगवान वह हैं जो फल प्राप्त करते हैं, जो फल प्रदान करते हैं और जो फल का उपभोग करते हैं।
व्याख्या
प्राप्ता
भगवान प्राप्ता (प्राप्त करने वाले) हैं – स्व (संपत्ति) – स्वामी सम्बन्ध के अनुसार जो स्वाभाविक है जैसा कि विष्णु तत्त्व में कहा गया है “स्वत्वं आत्मनि सञ्जातं स्वामित्वं ब्रह्मणि स्थितम्” (संपत्ति होने का गुण आत्मा में स्वाभाविक रूप से है; स्वामी होने का गुण ब्रह्म में स्वाभाविक रूप से है), जिस प्रकार एक स्वामी जो अपनी संपत्ति प्राप्त करने पर आनंदित होता है, भगवान आत्मा को प्राप्त करके आनंदित होते हैं।
प्रापकन्
भगवान प्रापक (प्रदान करने वाले) हैं – भगवान को प्राप्त करते समय, भगवान ही ऐसे करने का साधन बने रहते हैं, उनमें सर्वज्ञता, सर्वशक्तित्व, सत्यसंकल्पत्व (उनकी सभी प्रतिज्ञाएँ पूर्ण होना) आदि गुण होने के कारण और वे निरंकुश स्वतंत्र (किसी के नियंत्रण से पूरी तरह परे) होने के कारण।
प्राप्तिक्कु उगप्पान्
भगवान प्राप्तिक्कु उगप्पान् हैं (जो परिणाम का आनंद लेते हैं) – जिस प्रकार किसी वस्तु की प्राप्ति से उसके स्वामी को आनंद मिलता है उसी प्रकार आत्मा की प्राप्ति होने पर भगवान सोचते हैं कि “मैंने उसे प्राप्त कर लिया है” और वह आत्मा का शाश्वत भोक्ता बने रहते हैं।
अवने
केवल भगवान – अवधारणम् (“अवने” (एवकारम्)) से यह स्थापित होता है कि चेतन का इन तीनों विषयों में से किसी के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
इसमें, क्योंकि यह कहा गया है “प्रापत्तावुम् प्रापकनुम् अवने“, यह स्थापित होता है कि, चेतन के लिए आत्म-प्रयास की कोई भागीदारी नहीं है। क्योंकि यह कहा गया है “प्राप्तिक्कु उगप्पानुम् अवनै”, यह स्थापित होता है कि चेतन के लिए [अनन्य] आत्म-आनंद की कोई भागीदारी नहीं है।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/03/23/srivachana-bhushanam-suthram-70-english/
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