श्रीवचन भूषण – सूत्रं ७३

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

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जब उनसे पूछा गया कि “यद्यपि शेषत्व इत्यादि [शेषत्व (दासत्व), पारतंत्र्य (पूर्ण निर्भरता)] और ज्ञातृत्व इत्यादि [ज्ञातृत्व (ज्ञानी), आनंदत्व (आनंदित)] सभी आत्मा के महत्वपूर्ण गुण हैं, तो शेषत्व इत्यादि को अधिक महत्त्व देने और ज्ञातृत्व इत्यादि को ऐसे शेषत्व इत्यादि के समान मानने का क्या कारण है? क्या हम अन्यथा नहीं सोच सकते?” श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी दयापूर्वक उत्तर देते हैं।

सूत्रं ७३

अहमर्थत्तुक्कु ज्ञानानान्दङ्गळ् तटस्थम् ऎन्नुम्बडि दास्यमिऱे अन्तरङ्ग निरूपकम् ।

सरल अनुवाद

अहम् शब्द के उद्देश्य अर्थात् आत्मा के लिए दासत्व ही सबसे आंतरिक पहचान है, जिससे ज्ञानम् और आनन्दम् को बाह्य पहचान माना जा सके।व्याख्या

अहमर्थत्तुक्कु

अहम् अर्थम्

आत्मा जो स्व-जागरूक है, “मैं” कहलाने के योग्य है और जिसके पास बुद्धि है; आत्मा की पहचान मुख्य रूप से ज्ञान और आनंद से की जाती है जैसा कि श्री भागवत में कहा गया है “ज्ञानानन्द मयस्त्वात्मा” (आत्मा जो ज्ञान और आनंद के रूप में है) और “स्वरूपम् अणु मात्रं स्यात् ज्ञानानन्दैक लक्षणम्” (आत्मा की प्रकृति परमाणु है और ज्ञान और आनंद द्वारा पहचानी जाती है)।तटस्थम् एन्नुम्बडिबाह्य पहचान पुष्प की बाहरी पंखुड़ियों के समान होना।

दास्यम्

दास्यम् – शेषत्वम् – दासता।

यह,

अन्तरंग निरूपकम्

भगवद् स्वरूप के लिए अंग में सेवक बनकर अपना अस्तित्व रखने वाली सत्ता होने के कारण, मुख्यतः आत्मा को सेवकत्व से ही पहचाना जाना चाहिए तथा उसके ऊपर अन्य विषयों को भी पहचाना जाना चाहिए।

इसके साथ

निरूपकम्

पहचान वह है जो एक अस्तित्व को दूसरी अस्तित्व से भिन्न करती है; दास्यम् वह लक्षण है जो आत्मा को ईश्वर से भिन्न करता है, और ज्ञान और आनंद वे लक्षण हैं जो आत्मा को अचित से भिन्न करते हैं; यद्यपि ये दोनों पहचान आत्मा के लिए आवश्यक हैं जो भगवान के स्वरूप होने से बनी रहती है, शेषत्वम् जो आत्मा के स्वरूप (शरीर/रूप होने) से उत्पन्न होता है वह आंतरिक पहचान है और ज्ञातृत्वम् और आनंदत्वम् जो आत्मा को अचित से भिन्न करते हैं वे बाह्य पहचान हैं।

इऱे

प्रमाण (शास्त्रीय प्रमाण) के माध्यम से सुव्यस्थित स्थापित तथ्य को प्रकाशित करता है।

ऐसे प्रमाण:

  • तिरुमंत्र में प्रणवम्, जहाँ आत्मा को पहले शब्द अकारम् में पहचाना जाता है, उसके शेषत्वम् [लुप्त चतुर्थी (छिपे हुए विषय) में] और फिर तीसरे शब्द मकारम् में, आत्मा को ज्ञानम् और आनंदम् से बनी एक अस्तित्व के रूप में पहचाना जाता है और एक अस्तित्व जिसमें ज्ञानम् और आनंदम् गुण होते हैं, इस प्रकार अचित से अलग होता है।
  • तिरुमन्त्र में नारायण शब्द, जहाँ यह समझाया गया है कि सभी प्राणी सर्वेश्वर के लिए प्रकारम हैं तथा अन्य प्रमाण भी वहाँ हैं।हारीत स्मृति “दासभूताः स्वतः सर्वे हि आत्मानः परमात्मनः । मान्यता तेषां बन्धे मोक्षे तथैव च।। ” (सभी आत्माएं स्वाभाविक रूप से परमात्मा की गुलाम हैं। संसार और मोक्ष में कोई अन्य परिभाषा नहीं है) आदि भी प्रमाण के रूप में मौजूद हैं।
  • श्रीशठकोप स्वामीजी ने भी श्रीसहस्रगीति ८.८.२ में दयापूर्वक कहा है “अडियेन् उळ्ळान्” (भगवान आत्मा में, सेवक बनकर उपस्थित हैं)। यह महान संदेश है जिसे श्रीकुरेश स्वामीजी ने श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी के श्रीचरण कमलों की छः महीने तक सेवा करने के पश्चात महान निधि के रूप में प्राप्त किया था।

इस प्रकार, क्योंकि शेषत्व आत्मा का आंतरिक गुण है इसलिए ज्ञातृत्व आदि जो कि ऐसी आत्मा के बाह्य गुण हैं, उन्हें ऐसे शेषत्व के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

यही वह सिद्धांत है जो यहाँ समझाया गया है।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/03/29/srivachana-bhushanam-suthram-73-english/

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