श्रीवचन भूषण – सूत्रं ८२

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श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कृपापूर्वक ऐसे महानुभावों के कार्यों का वर्णन करते हैं।

सूत्रं – ८२

पिराट्टि स्वशक्तियै विट्टाळ्, द्रौपदि लज्जैयै विट्टाळ्, तिरुक्कण्णमङ्गै आण्डान् स्वव्यापारत्तै विट्टान्।

सरल अनुवाद 

श्रीमहालक्ष्मी ने अपनी क्षमता त्याग दी, द्रौपदी  ने अपनी लज्जा त्याग दी और तिरुक्कण्णमङ्गै आण्डान् ने अपने आत्म-प्रयास त्याग दिया।

व्याख्या 

पिराट्टि स्वशक्तियै विट्टाळ्, द्रौपदि लज्जैयै विट्टाळ्

स्वशक्तियै विट्टाळ्

माता सीता ने अपने आत्मरक्षा के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं किया क्योंकि उन्हें लगा कि ऐसा करने से उनका पारतंत्र्य नष्ट हो जाएगा इसके स्थान पर उन्होंने भगवान (श्रीराम) की प्रतीक्षा की जो उनके स्वामी हैं। माता सीता ने स्वयं श्रीरामायण के सुन्दरकाण्ड २२.२० में कहा है “असन्देशात्तु रामस्य तपसश् चानुपालनात् | नत्वा कुर्मि दशग्रीव भस्म भस्मार्ह तेजसा ||” (श्रीराम की आज्ञा न मिलने के कारण तथा एक पतिव्रता पत्नी होने के अपने तप की रक्षा करने के कारण मैं तुम्हें दशानन को, अपने तेज से भस्म नहीं कर रही हूँ, जबकि तुम ऐसा करने के योग्य हो)।

लज्जैयै विट्टाळ्

जब दुश्शासन द्वारा भरी सभा में वस्त्र हरण किया जा रहा था तब लज्जित होने तथा एक हाथ से वस्त्र को थामे रखने के स्थान पर द्रौपदी ने प्रयास पूर्णतः त्याग दिया तथा भगवान से सुरक्षा की याचना करने के लिए अपने दोनों हाथ ऊपर उठा दिए। 

क्योंकि श्रीपिराट्टी बहुत ज्ञानी थीं इसलिए वे सहज भाव से भगवान पर पूर्ण विश्वास कर सकती थीं; परंतु इतनी बुद्धिमान न होने के कारण द्रौपदी ने अपनी लज्जा त्यागकर भरी सभा में बड़ी श्रद्धा के साथ कृष्ण को पुकारा; इस संदर्भ में द्रौपदी का कार्य श्रीपिराट्टी के कार्य से अधिक महान है।

तिरुक्कण्णमङ्गै आण्डान् स्वव्यापारत्तै विट्टान्

अर्थात् – उन्होंने आत्मरक्षा के लिए किए जाने वाले सभी कर्मों का त्याग कर दिया। [यहाँ घटना का वर्णन किया गया है] एक सैनिक के कुत्ते को दूसरे सैनिक ने पीटा; यह सहन न कर पाने के कारण, सैनिक (जिसके कुत्ते को पीटा गया था) ने कुत्ते को चोट पहुँचाने वाले सैनिक को मारने और स्वयं को भी मारने की ठानी। यह देखकर आण्डान ने सोचा, “जब एक नीच व्यक्ति किसी [कुत्ते] की रक्षा के लिए इतना कुछ करता है, यहाँ तक कि अपना जीवन भी गँवा देता है, तो यदि हम परमचेतन (परमेश्वर) की शरण में जाएँ तो उन्हें [हमारे दुख देखने पर] कैसा लगेगा?” और उन्होंने सभी कर्मों का त्याग कर दिया; स्वयं को ऐसे कुत्ते के समान मानते हुए वे तुरंत तिरुकवकण्णमङ्गै पत्तरावि एम्पेरुमान् के पास आए। यह सर्वविदित है कि आण्डान ने मंदिर में प्रवेश किया और वहाँ एक कोने में रहने लगे।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/04/07/srivachana-bhushanam-suthram-82-english/

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