श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
कोई विशेष परिचय नहीं ।
सूत्रं – ८४
पेरिय उडैयारुम् पिळ्ळै तिरुनऱैयूर् अरैयरुम् उडुम्बै उपेक्षित्तार्गळ्; चिन्तयन्तिक्कु उडम्बु तन्नडैये पोय्त्तु।
सरल अनुवाद
जटायु महाराज और पिळ्ळै तिरुनऱैयूर् अरैयर् ने अपना शरीर त्याग दिया; चिन्तयन्ति के लिए वह शरीर अपने आप नष्ट हो गया।
व्याख्या
पॆरिय उडैयारुम् पिळ्ळै तिरुनऱैयूर् अरैयरुम् उडम्बै उपेक्षित्तार्गळ्
श्रीजटायु महाराज को हमारे श्रीवैष्णव महात्मा जन प्रेम से पेरिय उडैयार् कहते हैं। भगवान श्रीराम पंचवटी में पधारे और उनका स्वागत किया जैसा कि श्रीरामायण अरण्य काण्ड १५.१९ में कहा गया है “इदं पुण्यम् इदं मेत्यम् इदं बहूमृगद्विजम् | इह वत्स्यामि सौमित्रे सार्द मेतेन पक्षिणा ||” (हे लक्ष्मण! यह स्थान पुण्य देने वाला है; यह पवित्र है; यह कई पशुओं और पक्षियों से भरा है; मैं यहाँ पक्षियों के राजा जटायु महाराज के साथ रहने जा रहा हूँ); उस समय से जटायुजी श्रीराम के प्रति बहुत प्रेम और देखभाल करनेवाले रहे और श्रीराम के आश्रम के बहुत निकट रहते थे; उस समय, रावण आया और माता सीता को ले गया और उस समय माता सीता ने जटायु महाराज को एक पेड़ के ऊपर देखा और उनका नाम पुकारा और कहा “रावण मुझे इस तरह से अपहरण कर रहा है”; जब वे निद्रा में थे उन्होंने उस पुकार को सुना और जागकर देखा कि रावण उसे ले जा रहा है; उन्होंने उस रावण को आलोचना देते हुए कहा “यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है” और रावण ने उनकी बात नहीं सुनी। उन्होंने दृढ़ता से सोचा “हम हमारे जीवित रहते ऐसा नहीं होने दे सकते; या तो हम लड़ेंगे और उसे बचाएँगे या हम नष्ट हो जाएँगे” और उन्होंने रावण के साथ भीषण युद्ध किया क्योंकि वे बहुत वीर थे और अंत में रावण के प्रहार से अपनी जान गँवा दी।
पिळ्ळै तिरुनऱैयूर् अरैयर् अपने परिवार के साथ [तोट्टियम्] तिरुनारायणपुरम में वेद नारायण पेरुमाळ् की पूजा करने गए; अन्य धर्म के धूर्तों ने उस मंदिर में आग लगा दी; जो लोग अंदर थे वे बाहर भाग गए; भगवान के दिव्य रूप के लिए क्षति को सहन करने में असमर्थ, अत्यधिक प्रेम से उन्होंने भगवान के दिव्य रूप के साथ नष्ट होने का निर्णय लिया; उस समय, उनके बच्चे भी उन्हें छोड़े बिना अंदर ही रह गए; इस तरह, उन्होंने अपने बच्चों के साथ आग लगाए गए मंदिर के अंदर रहकर अपने प्राण त्याग दिए।
चिन्तयन्तिक्कु उडम्बु तन्नडैये पोय्त्तु
अर्थात् – जैसा कि श्रीविष्णु पुराण ४.५१३ – २० में कहा गया है “काचिदावसतस्यान्ते स्थित्वा दृष्ट्वा बहिर्गुरुम् | तन्मयत्वेन गोविन्दं दत्यौ मीलित लोचना || तच्चित्त विमलाह्लाद क्षीण पुण्य चया तदा | तदप्राप्ति महादुःख विलीनाशेष पातका || चिन्तयन्ति जगत्सूतिं परब्रह्म स्वरूपिणम् | निरुच्वासतया मुक्तिं गतान्या गोपकन्यका ||” (एक गोपीका जो भगवान कृष्ण के दर्शन करने जाना चाहती थी, उसने बैठक कक्ष में बड़ों को देखा, अपने कक्ष के अंदर रही और आँखें बंद करके गोविंद का ध्यान किया। उस समय भगवान कृष्ण पर अपना मन लगाने से प्राप्त शुद्ध आनंद के कारण उसके सभी पुण्य समाप्त हो गए; उनके पास न पहुँच पाने के कारण प्राप्त महान दुःख के कारण उसके सभी पाप मिट गए। जगत्कारण परब्रह्म का ध्यान कर, तथा प्राण त्यागकर, उस गोपिका ने अपने शरीर से मुक्ति प्राप्त कर ली) – दिव्य रास क्रीड़ा के स्थान से दिव्य बाँसुरी की ध्वनि सुनकर वह श्रीवृन्दावन जाने के लिए चल पड़ी; किन्तु बड़ों को देखकर वह आगे नहीं बढ़ सकी; वह वहीं रहकर कृष्ण का ध्यान करने लगी और क्रमशः शुद्ध आनन्द और महान दुःख का आनंद लेने के कारण पुण्य और पाप से मुक्त हो गई; वह कृष्ण के विषय में सोचती रही और उन तक न पहुँच पाने के कारण इसे सहन न कर पाने के कारण उसने साँस लेना बंद कर दिया और बिना प्रयास किए ही उसका शरीर उसे छोड़ गया।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/04/09/srivachana-bhushanam-suthram-84-english/
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