श्रीवचनभूषण – सूत्रं १०५

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

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भगवान के विशिष्ट स्वभाव के कारण मनुष्य सांसारिक सुखों से अनभिज्ञ हो सकता है; विश्वस्त वृद्धों के उत्तम आचरण का ध्यान करने से मनुष्य विहित और निषिद्ध सुखों के प्रति भयभीत हो सकता है; किन्तु सदा भोगने वाले सांसारिक सुखों के प्रति अरुचि उत्पन्न करना कठिन होगा; जब उनकी कृपा से ऐसी अरुचि उत्पन्न होती है, तो जीवात्मा से कुछ अपेक्षित होती है । श्रीपिळ्ळै लोकाचार्यजी दयापूर्वक उसे यहाँ समझा रहे हैं।

सूत्रं – १०५

अरुचि पिऱक्कुम्बोदैक्कु  दोषदर्शनम् अपेक्षितमाय् इरुक्कुम्।

सरल अनुवाद

जब अरुचि उत्पन्न होती है, तब जीवात्मा के लिए वांछनीय है कि वह सांसारिक सुखों के दोषों को देखे।

व्याख्या

अरुचि

दोषदर्शनम्

जिस शरीर को भोग की भावना से आलिंगित किया जाता है, उसे ऐसे देखना चाहिए- 

  • मांस, रक्त, पीप, मल, मूत्र, अस्थि मज्जा (लाल तरल पदार्थ), मेद और हड्डी का संग्रह
  • अंतिम आपदा की ओर ले जानेवाला 
  • दुर्गंधयुक्त 
  • ऐसे तुच्छ, क्षणभंगुर आनंद से युक्त होना, जो दुःख के साथ मिला हुआ है और विनाश की ओर ले जाता है

इन्हें प्रमाणों (ज्ञान के उपकरण) जैसे कि प्रत्यक्षम् (इन्द्रिय बोध) के माध्यम से देखना।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/05/20/srivachana-bhushanam-suthram-105-english/

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