श्रीवचन भूषण – सूत्रं ११३

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

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अवतारिका

श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी एक शंका उठाते हैं, “इस प्रकार, यदि स्वयं के वास्तविक स्वरूप के योग्य दासता ही सबसे महत्वपूर्ण है तो शेषी (भगवान) द्वारा अग्रसर करने की प्रतीक्षा करने के विरुद्ध, क्या ऐसे भगवान के प्रति स्वयं प्रयास करना उचित होगा जो आत्मा के अनन्योपायत्व (अन्य कोई साधन न होना) आदि लक्षणों को नष्ट कर देगा?” और दयापूर्वक इसका उत्तर देते हैं।

सूत्रं११

भगवत् विषय प्रवृत्ति पिन्नैच् चेरुमो ऎन्निल्; अदुक्कडि प्रावण्यम्; अदुक्कडि सम्बन्धम्; अदुदान् औपाधिकम् अन्ऱु; सत्ता प्रयुक्तम्।

सरल अनुवाद 

“क्या भगवद् विषय के लिए स्वयं प्रयास करना उचित होगा?” इसका कारण सम्बन्ध है; यह आकस्मिक नहीं है; यह तब तक अस्तित्व में है जब तक आत्मा अस्तित्व में है।

व्याख्या

भगवद् विषय

श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ऐसे शंका का उत्तर दे रहे हैं [यदि कोई स्वयं प्रयास में संलग्न हो सके]। 

प्रावण्यम् – महान प्रेम। 

जब उनसे पूछा गया कि, “क्या ऐसा महान प्रेम भगवान की विशिष्ट प्रकृति के कारण है?” तो वे कहते हैं,

अदुक्कडि सम्बन्धम्

संबंधम् का अर्थ है शेष-शेषी भाव (भगवान-सेवक सम्बन्ध)।

जब उनसे पूछा गया कि, “क्या यह [भगवान के] गुणों के आधार पर नहीं होगा?” तो वे कहते हैं,

अदुदान् औपाधिकम् अन्ऱु, सत्ता प्रयुक्तम्

सत्ता प्रयुक्तम्  का अर्थ है कि ऐसा सम्बन्ध तब से विद्यमान है जब से आत्मा विद्यमान है [अर्थात् सदैव]।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/05/28/srivachana-bhushanam-suthram-113-english/

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