श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
श्री पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कह रहे हैं “इसके अतिरिक्त, अन्य उपायों (विशेष रूप से भक्ति योग) के लिए एक और दोष है जिसका नाम है फल विसदृशत्वम् (साधन परम पुरुषार्थ के लिए उपयुक्त नहीं है)”।
सूत्रं – १२३
रत्नत्तुक्कु पलऱैपोलेयुम् राज्यत्तुक्कु ऎलुमिच्चम्बऴम् पोलेयुम् फलत्तुक्कु सदृशमन्ऱु।
सरल अनुवाद
जिस प्रकार समुद्री शंख किसी बहुमूल्य रत्न के सदृश्य नहीं हो सकता और नींबू राज्य के सदृश्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार ये अन्य साधन भी परम लक्ष्य के सदृश्य नहीं हैं।
व्याख्या
रत्नत्तुक्कु …
अर्थात् – जैसे कुछ द्वीपों में लोग आभूषण के रूप में समुद्री शंख पहनते हैं, वे समुद्री शंख के बदले में बहुमूल्य रत्न देते हैं; एक उदार राजा उस व्यक्ति को राज्य देता है जो ऐसा राज्य माँगने आकर एक नींबू भेंट करता है; यद्यपि ये इस प्रकार से किए जाते हैं, अत्यंत मूल्यवान कीमती रत्न और राज्य जो एक महान धन है, इनके लिए समुद्री शंख और नींबू क्रमशः कुछ भी नहीं हैं। इसी प्रकार, यद्यपि केवल आत्मा की भक्ति [योग] को देखकर ईश्वर जो भक्ति द्वारा प्राप्त होते हैं, जैसा कि श्रीभगवद्गीता ८.२२ में कहा गया है “भक्त्या लभ्यस् त्वनन्यया” (मैं उस भक्ति से प्राप्त होता हूँ जो किसी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं करती) और श्रीभगवद्गीता ११.५४ “भक्त्या त्वनन्यया शक्यः” (मैं उस भक्ति से जानने योग्य और प्राप्त करने योग्य हूँ जो किसी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं करती), मोक्ष प्रदान करते हैं जिसे परम लक्ष्य माना जाता है, यह लक्ष्य के सदृश्य नहीं है।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/06/07/srivachana-bhushanam-suthram-123-english/
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