श्रीवचन भूषण – सूत्रं १२४

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जब उनसे पूछा गया कि “लेकिन हम भक्ति योग करके मोक्ष क्यों नहीं प्राप्त कर सकते, जैसे अनमोल रत्न और राज्य पाने के लिए अतुलनीय समुद्री शंख और नींबू अर्पित किए जाते हैं?” श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं, “आत्मा ऐसा करने के लिए भी योग्य नहीं है।”

सूत्रं – १२४

तान् दरिद्रन् आगैयाले तनक्कुक् कॊडुक्कलावदु ऒन्ऱिल्लै।

सरल अनुवाद

क्योंकि आत्मा किसी भी प्रकार की संपत्ति से रहित है इसलिए वह कुछ भी अर्पित नहीं कर सकता।

व्याख्या

तान्

अर्थात् – उन उदाहरणों में व्यक्ति के पास कम से कम एक समुद्री शंख या नींबू होता है जिसे अर्पित करके बदले में कुछ मूल्यवान प्राप्त किया जा सकता है; परंतु यहाँ, इसके विपरीत जैसा कि श्रीसहस्रगीति २.९.९ में कहा गया है “याने नी ऎन् उडैमैयुम् नीये” (मैं आपका हूँ और मेरी संपत्ति भी आपकी है), आत्मा और आत्मा की संपत्ति दोनों भगवान के स्वामित्व में हैं और इसलिए आत्मा में कुछ भी नहीं है। इसलिए यह समझाया गया है कि ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे परिणाम का कारण बताया जा सके।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/06/08/srivachana-bhushanam-suthram-124-english/

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