आचार्य हृदयम् – अवतारिका

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवर मुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

श्रृंखला

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सर्वेश्वर, जिनकी श्री महालक्ष्मी जी दिव्य पत्नी हैं, वे सभी के स्वामी हैं। श्रीवैकुंठ (परमपद, आध्यात्मिक क्षेत्र) में नित्यसूरियों (शाश्वत मुक्त आत्माओं) द्वारा प्रदान की जाने वाली शाश्वत सेवाओं को स्वीकार कर रहे हैं जो असीमित आनंद से पुर्ण है। नित्यसूरि वे हैं जिनके पास ज्ञान, आनंद आदि जैसे असीमित शुद्ध गुण हैं, वे भगवान की दिव्य इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं और उसी में सदैव रत रहते हैं। उनकी सेवाओं को स्वीकार करते समय, भगवान उन बद्ध आत्माओं के बारे में भी विचार करते हैं जो भौतिक क्षेत्र में हैं, जो सेवाएँ प्रदान करने के लिए समान रूप से योग्य हैं लेकिन ऐसा नहीं कर रहे हैं, उनके लिए दुःख व्यक्त करते हैं और उनके उत्थान की इच्छा भी रखते हैं।

वे लगातार उनके उत्थान के लिए कई प्रयासों में लगे रहते हैं।

  • चेतनों (संवेदनशील प्राणियों) को शरीर और इंद्रियों के बिना (जलप्रलय के अंत के दौरान) अचेतन (अचेतन वस्तुओं) के समान ही देखना, जैसा कि श्री रंगराज स्तव २.४१ में कहा गया है, “अचिदविसेशितान् प्रलयसीमनि सम्सरतः करण कळेबरैर् घटयितुम् दयमानमनाः ल् वरद निजेच्चयैव परवानकरोः प्रक्रुतिम् महदभिमानभूत करणावळि कोरकिणीम् ॥”‌ (हे वरदा! प्रलय (जलप्रलय) के समय जीव अचेतन जीवों की तरह थे [बिना ज्ञान के]; आपने अपने दिव्य मन में निर्णय लिया कि वे इंद्रियों और रूप के साथ एक साथ रहेंगे; और वह केवल आपके स्वयं के संकल्प (प्रतिज्ञा) मात्र से संचालित किया जा रहा है, आपने मूलप्रकृति (प्राथमिक पदार्थ) को महान (महान इकाई), अहंकार (अहंकार), पञ्च तत्वों, पञ्च इंद्रियों (दोनों ज्ञान-आधारित और गतिविधि-आधारित) में बदल दिया), जिससे वे इस दुनिया में आनंद लेने में या मुक्ति प्राप्त करने के लिए असमर्थ थे, और आपने अपनी अत्यधिक दया से, उन्हें शरीर और इंद्रियाँ प्रदान कीं जो आपके दिव्य कमल चरणों को प्राप्त करने के लिए उपयोगी बन जाये और उन्हें ज्ञान अर्जित करने, कार्य करने और संयम बरतने की क्षमता प्रदान करी।
  • महान दया से, जैसा कि श्री रंगराज स्तवम् २.१ में कहा गया है “मानम प्रदीपमिव कारुणिको ददाति” (सर्वेश्वर जो दया के सागर की तरह हैं, वेदों (पवित्र ग्रंथों) को दीपक की तरह प्रदान करते हैं), ताकि चेतन ज्ञान का उपयोग कर, यह जान ले की क्या करना है , क्या नहीं करना है।
  • इसके अलावा, अन्तर्यामी होने के कारण, आपने मनु और ऋषियों के माध्यम दयापूर्वक स्मृति, इतिहास और पुराणों को प्रकट किये हैं। ये शास्त्र उन शरीर धारी जीवों के लिए हैं।
  • चूँकि इन शास्त्रों को सीखने के लिए बहुत सारे प्रतिबंध हैं, और चूँकि इन्हें लंबे समय तक प्रयास करने के बाद ही सीखा जा सकता है, अपने दिव्य हृदय में यह विचार करते हुए कि इन्हें प्राप्त करना कठिन है, उन्होंने अष्टाक्षरम् नामक ब्रह्म विद्या को बतलाया जो पूरी तरह से आत्मा की मुक्ति पर केंद्रित है।
  • यह देखते हुए कि इससे भी उनकी (सभी के उत्थान की) इच्छा पूरी करने में मदद नहीं मिली, तब उस राजा की तरह जिसकी अपेक्षायें संदेश से पुरी नहीं होने पर स्वयं जनता के बीच आता है, ठीक उसी तरह सब का उत्थान करने भगवान स्वयं श्रीराम, कृष्ण आदि के रूप में अवतरित हुए।
  • यह देखकर कि उनके इस प्रयासों के बाद भी किसी का उत्थान नहीं हुआ, यह सोचकर कि वह एक अलग प्रजाति है (परमात्मा जीवात्मा से अलग है) और यह सोचकर कि वह उनके उत्थान के लिये कुछ और करना पडेगा। जो लोग हिरण पकड़ते हैं वे ऐसा करने के लिए दूसरे हिरण का उपयोग करते है। उन्होंने इसके लिये जीवात्मा अन्य जीवात्माओं के माध्यम से उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने का निर्णय किया। उन्होंने इस के लिये सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को ढूंढने के लिए हर जगह दयालुता से नज़र डालना शुरू कर दिये, और चूंकि कोई भी उनकी नज़र का लक्ष्य नहीं बन रहा था, दक्षिण दिशा में उनकी नज़र नम्माऴ्वार् पर पड़ी जो एक बद्ध आत्मा थे जो लगातार जन्म और मृत्यु के चक्र से पीड़ित थे, और जैसे उनपर एम्पेरुमान् की अहैतुकी दया दृष्टि पडी, उसके परिणामस्वरूप, उन्हें दिव्य ज्ञान और भक्ति प्राप्त हुयी।
  • आऴ्वार् ने एम्पेरुमान् के स्वरूप (सच्चा स्वभाव), रूप (रूप), गुण (गुण), विभूति (धन, गतिविधियां) का गहन अनुभव करते हुये आनंद लिया और इस के परिणामस्वरूप, दयालुतापूर्वक पाशुरों की रचना की।जैसे कि श्री रामायण में बाल कांड २.१५ में श्लोक “मा निषाद प्रतिष्ठाम् त्वमगम: शाश्वत् समा: । यत् क्रौंञ्चमिथुनाधेकं अवधिः काममोहितम् ।।” (हे शिकारी! जब नर क्रौंच पक्षी अपने जीवनसाथी के साथ विक्षिप्त होकर मिल रहा था, तब उसे मार डालने के कारण तुम अधिक समय तक जीवित नहीं रहोगे) जिसका पाठ वाल्मिकी ने दुःख के कारण किया था, जिससे श्रीरामायण का जन्म हुआ, जो काव्य के अनुसार उत्तम और श्रेष्ठ है। नियम, ब्रह्मा की कृपा से, आऴ्वार् के पाशुर तिरुवाय्मोऴि बन गए, जो भगवान की कृपा से काव्यात्मक नियमों के अनुसार एकदम सही है। टिप्पणी: इन पाशुरों के माध्यम से सभी चेतनों को उत्थान (मोक्ष) का साधन (उपाय) मिल गया।

चूँकि यह तिरुवाय्मोऴि तमिऴ् में है, विशाल है और कई सिद्धांतों को प्रकट करती है, क्योंकि हर किसी के लिए इसमें सार को समझना मुश्किल है, अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नयनार्, महान कृपा करते, इसके विशेष अर्थ प्रकट करने के बारे में विचार कर रहे हैं, इस दिव्य इच्छा से आऴ्वार् और आचार्यों के लिए वांछनीय विषय जो हमारे है, सभी के लिए आश्रय दायक बने। कृपापूर्वक इन सिद्धांतों को समझाते हुये लीपी बद्ध किये हैं, जो अब तक आचार्यों द्वारा मौखिक रूप से सिखाए गए थे, आचार्य हृदयम नामक इस प्रबंध में जो उपयुक्त आकार का है (न बहुत छोटा और न ही बहुत बड़ा)।

इस प्रबंधम् को आलौकिक रूप से आचार्य हृदयम् नामक रखा गया है क्योंकि यह उन सिद्धांतों को प्रगट करता है जो आचार्यों के नेता, जैसे “आद्यस्य न: कुलपते:” में कहा गया है, श्री शठकोप स्वामी के दिव्य हृदय के प्रिय हैं; जैसे उनके [आऴ्वार् श्री शठकोप स्वामी के] दिव्य प्रबंधों में समझाए गए हैं। नायनार् ने कृपापूर्वक दिव्यप्रबंध के शब्दों का ही उपयोग किया है। इसका कारण यह है – आऴ्वारों को भगवान श्रीमन्नारायण द्वारा दिव्य ज्ञान और भक्ति प्रदान की जाने के कारण उनके शब्द विश्वसनीय और आनंददाई हैं, वे शब्द नायनार् को अति प्रिय भी हैं। इसके अलावा, जैसे मोतियों के ज्ञान रखने वाले के द्वारा बनी ग‌ई मोतियों की माला अमूल्य है, वैसे ही ये शब्द जो दिव्यप्रबंध में से चुनकर रचना करने की क्षमता रखने वाले नायनार् द्वारा रचाए ग‌ए हैं, ऐसी लेख मात्र, उसके अर्थ से भी ज्यादा, उन‌ लोगों को मधुर लगेगी जो दिव्यप्रबंध में रुचि रखते हैं। इस प्रकार, यह प्रबंधम् इसके उत्तम शब्दों और उनके अर्थों के कारण, पंडितों को बहुत ही आनंदमय होगा।

आधार – https://granthams.koyil.org/2024/02/23/acharya-hrudhayam-avatharikai-english/

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