श्रीवचन भूषण – सूत्रं ९५

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

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श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी इस सिद्धांत (भगवान के प्रति महान इच्छा जो उत्तम गुणों की ओर ले जाती है) के लिए शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

सूत्रं९५

“मऱ्-पाल् मनम् सुऴिप्प”, “परमात्मनि तो रक्तः”, “कण्डु केट्टु उट्रु मोन्दु”।

सरल अनुवाद

“मऱ्-पाल् मनम् सुऴिप्प”, “परमात्मनि तो रक्तः”, “कण्डु केट्टु उट्रु मोन्दु”।

व्याख्या

मऱ्-पाल् …

जैसा कि मून्ऱाम् तिरुवन्दादी १४ में कहा गया है “मऱ्-पाल् मनम् सुऴिप्प मङ्गैयर् तोळ् कै विट्टु नूऱ्-पाल् मनम् वैक्क नॊय्विदाम्” (जैसे ही हृदय श्रीमन्नारायण की ओर लीन होता है, स्त्रियों के कंधों के प्रति आसक्ति छोड़ना और शास्त्रों में लगना सुलभ हो जाता है) – जैसे ही किसी का हृदय सर्वेश्वर में लीन हो जाता है, स्त्रियों के कंधों को गले लगाने में उसकी रुचि समाप्त हो जाएगी और शास्त्रों में हृदय लगाना सुलभ हो जाएगा।

जैसा कि बार्हस्पत्य स्मृति में कहा गया है “परमात्मनि यो रक्तः विरक्तो अपरमात्मनि । सर्वैषणा विनिर्मुक्तस् सबैक्षम् भोक्तुम् अर्हति।।” (यदि कोई भगवान में आसक्त हो जाता है और अन्य विषयों से विरक्त हो जाता है और सांसारिक वस्तुओं में कोई आसक्ति नहीं रखता है, तो वह भिक्षा माँगकर भोजन करने के योग्य हो जाता है) – जो भगवान में आसक्त हो जाता है, वह स्वाभाविक रूप से अन्य विषयों से विरक्त हो जाएगा।

जैसा कि श्रीसहस्रागीति ४.९.१० में कहा गया है “कण्डु केट्टुट्रु मोन्दु उण्डुऴलुम् अय्ङ्गरुवि कण्ड  इन्बम् तॆरिवरिय अळविल्ला चिट्रिन्बम् ऒण्डॊडियाळ् तिरुमगळुम् नीयुमे निला निऱ्-पक् कण्डु सदिर् कण्डॊऴिन्देन् अडैन्देन् उन् तिरुवडिये” (मेरे सामने: अ) देखने, सुनने, संपर्क करने, सूँघने और खाने की पाँच इंद्रियों के माध्यम से व्यक्तिगत रूप से विश्लेषण करके प्राप्त सांसारिक सुख का आनंद और इनसे प्राप्त आवेश, ब) आत्म-आनंद का आनंद जो समझ से परे है, जिसे इन इंद्रियों द्वारा समझना और आनंद लेना कठिन है और जो भगवान के अनुभव के आनंद की तुलना में बहुत तुच्छ है और स) आपका और चूड़ियाँ आदि आभूषणों से सुसज्जित विशिष्ट अग्रभुजाओं वालीं, स्त्रियों में श्रेष्ठ, समस्त सम्पत्तियों के संग्रह के कारण श्री कहलाने वालीं का युगल, इन तीन अलग-अलग लक्ष्य देखकर तथा श्रेष्ठ साधन का निश्चय करके, सांसारिक सुख और आत्म-भोग को त्यागकर आपके दिव्य चरणों को प्राप्त किया) – परमपद में अम्माजी और आप के संयुक्त सान्निध्य को देखकर और वहाँ पहुँचने की इच्छा से, मैं ऐश्वर्य (सांसारिक सम्पत्ति) और कैवल्य (शाश्वत आत्म-भोग) से विरक्त हो गया हूँ।

इस प्रकार भगवान के प्रति इच्छा को अन्य विषयों से विरक्ति का कारण बताया गया है।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/05/09/srivachana-bhushanam-suthram-95-english/

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