श्रीवचन भूषण – सूत्रं ९७

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अवतारिका

तत्पश्चात्, श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी कृपापूर्वक शम और दम प्राप्त करने पर होने वाले परिणामों का क्रम समझाते हैं।

सूत्रं – ९७

इवै इरण्डुम् उण्डानाल् आचार्यन् कैपुगुरुम्; आचार्यन् कैपुगुन्दवाऱे तिरुमन्त्रम् कैपुगुरुम्; तिरुमन्त्रम् कैपुगुन्दवाऱे ईश्वरन् कैपुगुरुम्; ईश्वरन् कैपुगुन्दवाऱे “वैगुन्द मानगर् मट्रदु कैयदुवे” ऎन्गिऱपडिये प्राप्य भूमि कैपुगुरुम्।

सरल अनुवाद

यदि इन दोनों को प्राप्त कर लिया जाए, तो व्यक्ति को आचार्य की प्राप्ति होगी; यदि व्यक्ति को आचार्य की प्राप्ति होगी, तो उसे तिरुमन्त्र (अष्टाक्षर) की प्राप्ति होगी; जैसे ही व्यक्ति को तिरुमन्त्र की प्राप्ति होगी, उसे ईश्वर (भगवान) की प्राप्ति होगी; जैसे ही व्यक्ति को ईश्वर की प्राप्ति होगी, वह परम गन्तव्य तक पहुँच जाएगा, जैसा कि श्रीसहस्रगीति ४.१०.११ में कहा गया है “वैगुन्द मानगर् मट्रदु कैयदुवे” (उनको महान धाम श्रीवैकुंठ प्राप्त होगा, जो दूसरी ओर स्थित है, जहाँ से वापस नहीं आया जा सकता)।

व्याख्या

इवै इरण्डुम्

यद्यपि पहले भगवान के प्रति प्रबल इच्छा से प्राप्त होनेवाली आंतरिक और बाह्य इन्द्रियों आदि पर पूर्ण नियंत्रण की बात कही गई थी, फिर भी यहाँ आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए जितने शम और दम की आवश्यकता है, उतने की बात की गई है। जब किसी व्यक्ति में ऐसे शम और दम होते हैं,

आचार्यन् कैपुगुरुम्

आचार्य ऐसे व्यक्ति पर मोहित हो जाते हैं, ऐसे व्यक्ति को देखने के लिये जिनमें ये श्रेष्ठ गुण होते हैं; वे प्रसन्न होते हैं और पेरिय तिरुमन्त्र (महान अष्टाक्षर मंत्र) अर्थ सहित को निर्देश देते हैं, जो मनुष्य को इस संसार सागर से मुक्त कर देता है। जैसा कि मुण्डक उपनिषद १.२.१२ में कहा गया है “तस्मै स विद्वान उपसन्नाय सम्यक प्रशान्त चित्ताय शमान्विदाय / येनाक्षरम् पुरुषम् वेद सत्यं प्रोवाचतां तत्वतो ब्रह्म विद्याम् // (जो व्यक्ति हृदय में पवित्रता रखता है, बाह्य इन्द्रियों को वश में रखता है, उसके निकट स्थित होने पर आचार्य को उसे वह ब्रह्म विद्या सिखानी चाहिए, जिससे अविनाशी भगवान को समझा जा सके) कहा गया है कि जो व्यक्ति बाह्य और आंतरिक इन्द्रियों को वश में रखता है तथा निकट रहता है, वही ब्रह्म विद्या सीखने का अधिकारी है। श्रुतप्रकाशिक भट्टर जिन्होंने इस श्रुति के लिए भाष्य लिखा था, उन्होंने आचार्य तक पहुँचने के लिए आवश्यक आंतरिक और बाह्य इंद्रियों के नियंत्रण को श्रुत प्रकाशिका के रूप में समझाया “एतेन श्रवणोपयुक्तम् अवधानं विवक्षितम् / नतूपासनोप युक्तात् यन्तेन्दिरिय जयादिः //  (इसके साथ ही आचार्य से सुनने के लिए आवश्यक सतर्कता की व्याख्या की गई है। यहाँ उपासना (भक्ति योग) के लिए आवश्यक इंद्रियों आदि पर नियंत्रण की बात नहीं की गई है।)

आचार्यन् कैपुगुन्दवाऱे तिरुमन्त्रम् कैपुगुरुम्

जैसा कि “तन्मन्त्रं ब्राह्मणाधीनम्” (वह तिरुमन्त्र जो आचार्य के अधीन है) में कहा गया है, चूँकि तिरुमन्त्र आचार्य के अधीन है, इसलिए जब कोई आचार्य को प्राप्त करता है जो निर्देश देता है तो ऐसे आचार्य द्वारा निर्देशित तिरुमन्त्र शिष्य के हृदय में दृढ़ता से स्थापित हो जाएगा। जैसा कि “ब्रह्मवित् ब्राह्मणो विदुः” (जो ब्रह्म को जानता है उसे ब्राह्मण कहते हैं) में कहा गया है, यहाँ ब्राह्मण शब्द आचार्य को संबोधित करता है।

तिरुमन्त्रम् कैपुगुन्दवाऱे ईश्वरन् कैपुगुरुम्

जैसा कि “मन्त्राधीनञ्च दैवतम्”  (भगवान मन्त्र के अधीन हैं) में कहा गया है, चूँकि भगवान् तिरुमन्त्र के अधीन रहते हैं, अतः जब कोई व्यक्ति इसे अर्थ सहित प्राप्त कर लेता है, तो भगवान् जो उस मन्त्र से जाने जाते हैं, वे सर्वप्रथम प्रतिकूल गुणों को नष्ट करने और अनुकूल गुणों को प्रदान करने वाले प्रापक (साधन) बन जाते हैं।

ईश्वरन् कैपुगुन्दवाऱेवैगुन्द मानगर् मट्रदु कैयदुवेऎन्गिऱपडिये प्राप्य भूमि कैपुगुरुम्

जैसा कि दैवाधीनं जगत् सर्वम् (सारा जगत भगवान के अधीन है) में कहा गया है, चूँकि नित्य विभूति और लीला विभूति दोनों ही भगवान के अधीन हैं, अतः भगवान को साधन के रूप में प्राप्त करने पर ऐसे व्यक्ति के लिए परमपद की अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करना सरल हो जाता है।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/05/12/srivachana-bhushanam-suthram-97-english/

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