श्रीवचन भूषण – सूत्रं ११२

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

पूरी श्रृंखला

<< पूर्व

अवतारिका

तत्पश्चात् श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी इस सिद्धांत के प्रमाण के रूप में हमें माता सीता के शब्दों का स्मरण कराते हैं।

सूत्रं – ११२

अनसूयैक्कु पिराट्टि अरुळिच्चॆय्द वार्त्तैयै स्मरिप्पदु।

सरल अनुवाद 

उन शब्दों को स्मरण करो जो माता सीता ने माता अनसुया से कृपापूर्वक कहे थे।

व्याख्या

अनसूयैक्कु …

भगवान (श्रीराम) कृपापूर्वक ऋषि अत्री के आश्रम में पहुँचकर महर्षि से आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात सीता माँ महर्षि की पत्नी अनसूया से आशीर्वाद लेने ग‌ईँ। उस समय, अनसूया ने माता सीता से कहा, “सम्बन्धियों को त्यागकर भगवान के पीछे जंगल में जाने से, ईश्वरीय व्यवस्था से तुम्हें अभिमान और धन प्राप्त हुआ है; पति चाहे नगरवासी हो या वनवासी, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, पत्नी के लिए उसका पति ही भगवान है। तुम्हें भगवान के प्रति इसी प्रकार सदैव अनुकूल रहना चाहिए”।

यह सुनकर, श्रीजी ने लज्जित होकर (प्रशंसा सुनने के कारण) अपना सिर नीचे कर लिया और कहा, “यद्यपि भगवान के प्रति मेरी स्वाभाविक, गहरी आसक्ति है, क्योंकि उनमें प्रचुर, उत्तम गुण हैं, इस संसार के लोग सोचेंगे कि उनके प्रति मेरी भावनाएँ उनके उत्तम गुणों के कारण हैं। चूँकि मैं भगवान को उनके गुणों से अलग नहीं कर सकती, इसलिए मैं उन पर अपनी निर्भरता [उनके गुणों को ध्यान दिए बिना] को सिद्ध नहीं कर सकती। भले ही उनमें अच्छे गुणों की कमी हो और भले ही वे कुरूप हो जाएँ, मैं उनके प्रति इसी प्रकार रहूँगी”।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/05/27/srivachana-bhushanam-suthram-112-english/

संगृहीत- https://granthams.koyil.org/

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

Leave a Comment