श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
अवतारिका
श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी उस विरोधाभास को दर्शा रहे हैं जो तब उत्पन्न होगा जब पूर्व में बताए गए सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया जाएगा।
सूत्रं – १२१
इप्पडिक् कॊळ्ळादप्पोदु एतत् प्रवृत्तियिल् प्रायश्चित्त विधि कूडादु।
सरल अनुवाद
जब इस प्रकार विचार नहीं किया जाता (अन्य उपायों में संलग्न होने से आत्मा के वास्तविक स्वरूप का नाश हो जाएगा) तो अन्य उपायों में संलग्न होने पर प्रायश्चित नहीं होगा।
व्याख्या
इप्पडिक् कॊळ्ळादप्पोदु …
इप्पडिक् कॊळ्ळादप्पोदु
जब इन अन्य उपायों को आत्मा के वास्तविक स्वरूप के लिए विनाशकारी नहीं माना जाता है…
एतत् प्रवृत्तियिल् प्रायश्चित्त विधि कूडादुजैसा कि लक्ष्मी तन्त्रं में कहा गया है “सकृदेवहि शास्त्रार्थः कृतोयं धारयेन्नरम् | उपायापाय सम्योगे निष्ठाय हीयतेनया l अपाय सम्प्लवे सद्यः प्रायश्चित्तम् समाचरेत् || प्रायश्चित्तिरियं सात्र यत् पुनः शरणं व्रजेश | उपायानाम् उपेयत्व स्वीकारेप्येतदेवहि ||” (एक चेतना जिसने केवल एक बार शरणागति कर ली है उसकी रक्षा होती है। जब वह अन्य खतरनाक उपायों का अनुसरण करता है तो वह अपनी शरणागति से भटक गया माना जाता है। जब ऐसे निषिद्ध कर्म अनजाने में हो जाते हैं तो उसे उसके लिए प्रायश्चित करना चाहिए। प्रायश्चित और कुछ नहीं बल्कि पुनः शरणागति करना ही है। अन्य उपायों को भी उचित उपाय मानने का यही प्रायश्चित है) – जब कोई प्रपन्न अनजाने में अन्य उपायों में प्रवृत्त होता है तो निषिद्ध कर्मों की तरह पुनः शरणागति का विधान नहीं किया जाना चाहिए। पुनः शरणागति कोई नई शरणागति नहीं है बल्कि केवल पूर्व शरणागति का स्मरण मात्र है।
अडियेन् केशव रामानुज दास
आधार: https://granthams.koyil.org/2021/06/05/srivachana-bhushanam-suthram-121-english/
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