श्रीवचन भूषण – सूत्रं १२२

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श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी एक आदरणीय पुरुष के शब्दों के माध्यम से उपायान्तरों (अन्य साधनों) की सबसे निषिद्ध प्रकृति को समझाते हैं जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप के लिए विनाशकारी हैं।

सूत्रं१२२

तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान् पणिक्कुम्बडि – मदिराबिन्दु मिश्रमान शातकुम्बमय कुम्बगत तीर्थ सलिलम् पोले अहङ्कार मिश्रमान उपायान्तरम्।

सरल अनुवाद

तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान् के शब्द – अन्य साधन (भक्ति योग, आदि), जो अहंकार (स्वयं प्रयास) से मिश्रित हैं, स्वर्ण पात्र में रखे उस पवित्र जल के समान हैं जिसमें मदिरा की एक बूंद मिश्रित है।

व्याख्या

तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान्

तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान्


जिसने सर्वज्ञ भाष्यकार (श्रीरामानुज स्वामीजी) के दिव्य चरणों में आज्ञाकारी रूप से अध्ययन किया है, जो ऐसे श्रीरामानुज स्वामीजी को अत्यंत प्रिय हैं, जो सभी शास्त्रों के सिद्धांतों में पारंगत हैं। इन कारणों से वह सबसे अधिक विश्वसनीय हैं।

पणिक्कुम्बडि 

जिस प्रकार से वह दयापूर्वक समझाते हैं।

मदिरा

मदिरा एक सर्वथा निषिद्ध वस्तु है और यदि इसकी एक बूँद भी उन वस्तुओं के संपर्क में आ जाए तो अन्य वस्तुएँ भी निषिद्ध हो जाती हैं; क्योंकि इसे अहंकार के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया गया है अतः ऐसे अहंकार की सर्वथा निषिद्ध प्रकृति तथा इसके संपर्क में आने वाली वस्तुएँ भी निषिद्ध हो जाती हैं यह बात उजागर होती है।

शातकुम्ब

स्वर्ण 

तन्मय कुंभम

उस बर्तन के विपरीत जो अंदर से किसी अन्य धातु से बना होता है लेकिन बाहर से सोने से मढ़ा होता है यह बर्तन पूरी तरह से सोने से बना होता है; इससे बर्तन (इस संदर्भ में आत्मा) की शुद्धता की व्याख्या की जाती है।

तद्गत तीर्थ सलिलम्

उस बर्तन में शुद्ध जल। इससे उस बर्तन के जल की शुद्धता (इस संदर्भ में भक्ति योग) उजागर होती है।

अदुपोले अहङ्कार मिश्रमान उपायान्तरम् 

क्योंकि श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी उदाहरण और बताए गए सिद्धांत के मध्य समानता को पहचानते हैं यहाँ भी हमें पात्र की शुद्धता और पात्र में उपस्थित पहलू की व्याख्या करने की आवश्यकता है। अर्थात्, आत्मा जो भक्ति का पात्र है अपनी स्वाभाविक शुद्धता के कारण शुद्ध है जैसा कि श्रीविष्णु पुराण ६.७.२२ में कहा गया है “आत्मा ज्ञानमयोमलः”  (आत्मा ज्ञान से पूर्ण है; शुद्ध है) और इसकी शुद्धता भगवान के पूर्णतः अधीन होने से प्राप्त होती है; ऐसी भक्ति भी भगवान पर पूर्णतः केंद्रित होने के कारण शुद्ध है; जब अहंकार नहीं होता तो कोई दोष नहीं होता। इसके साथ ही यह समझाया गया है कि जिस प्रकार स्वर्ण पात्र में रखा हुआ शुद्ध जल मदिरा की एक बूँद के संपर्क में आने से निषिद्ध हो जाता है उसी प्रकार शुद्ध भक्ति जो भगवान पर केन्द्रित है जो भगवान के अधीन शुद्ध आत्मा में स्थित है वह अहंकार के संपर्क में आने के कारण जो कि स्वयं प्रयास है ज्ञानियों द्वारा निषिद्ध हो जाती है, उनके द्वारा अस्वीकार कर दी जाती है।

पणिक्कुम्बडि से मिलान करने के लिए वाक्य के अंत में “ऎन्ऱु” (ऐसा कहा जाता है) जोड़ना चाहिए।

अडियेन् केशव रामानुज दास

आधार: https://granthams.koyil.org/2021/06/06/srivachana-bhushanam-suthram-122-english/

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