श्री रामायण तनि श्लोकम् – ३ – बाल काण्ड १९.१४ – अहं वेद्मि – भाग २

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री रंगदेशिकाय नम:

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<< भाग १

अहं वेद्मि महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ।
वसिष्ठोऽपि महातेजा ये चेमे तपसि स्थिताः ।। १.१९.१४ ।।

वन में राक्षस ऋषियों को हिंसा करते हैं; वे रक्त, मांस आदि दूषित वस्तुओं को यज्ञों में डालकर यज्ञ करने में विघ्न डालते हैं। राक्षसों द्वारा यज्ञों में डाले जा रहे विघ्नों के बारे में बताया एवं विश्वामित्र मुनि ने राजा दशरथ के पास जाकर राक्षसों को समाप्त कर यज्ञ-रक्षा हेतु राम एवं लक्ष्मण को माँगा| यह श्लोक विश्वामित्र मुनि द्वारा राजा दशरथ से संवाद में बोला गया है|

पूर्व लेख में हम ने पेरियवाच्चान पिळ्ळै आचार्य के व्याख्यान से ‘अहं वेद्मि’ के गूढार्थों का अध्ययन किया था| विश्वामित्र राजा दशरथ को बताते हैं कि भगवान (ब्रह्म) स्वयं ही राम रूप में आये हैं| वे श्री राम के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते क्योंकि एक राजा होने के कारण वे विषयों के भोग में डूबे हैं और इस कारण परब्रह्म तत्त्व को नहीं जानते|  वे कहते हैं कि वे श्री राम के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं, और इसके कारणों को भी प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं वे अपने तपस, मुमुक्षा, आचार्यों की सुश्रुषा से उत्पन्न ज्ञान के कारण परब्रह्म स्वरूप को जानते हैं| 

अब इस श्लोक में ‘महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम्’ इस वाक्यांश से श्री राम के विषय में अपनी समझ/बोध के बारे में दशरथ को बताते हैं| आचार्य श्री पेरियवाच्चान पिळ्ळै अपने व्याख्यान में उपनिषद्, श्री रामायण, रघुवंशम् एवं आऴ्वार् दिव्य प्रबन्धों को उद्धृत कर इस वाक्यांश के प्रत्येक शब्दों को समझाते हैं|

महात्मानं सत्यपराक्रमं रामम्: महात्मा और सत्यपराक्रम राम को|

महात्मानम् – महात्मा होते हुए 

विश्वामित्र कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि राम कौन हैं: महात्मा – अर्थात् सर्वोच्च, सभी जीवों से बड़ा|

ऋषि विश्वामित्र कहते हैं, “हे दशरथ! तुम राम को एक किशोर राजकुमार के रूप में देखते हो, इस कारण तुम राम के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते|”

महाकवि कालिदास अपने रघुवंशम् महाकाव्य में लिखते हैं: “तेजषां हि न वयः समीक्ष्यते” (तेजस्वियों की महानता को उनके आयु के आधार पर उपेक्षित नहीं की जानी चाहिए) | इसलिए विश्वामित्र ऋषि राजा दशरथ से कहते हैं कि श्री राम भले ही किशोरावस्था में हों किन्तु वे सर्वेश्वर हैं यह उनके लिए प्रमाणित है|

वैजयन्ती दिव्य अक्षर कोष में ‘आत्मा’ शब्द के ये अर्थ बताये गए हैं: 

आत्मा जीवे धृतौ देहे स्वभावे परमात्मनि
यत्नेऽर्केऽग्नौ मतौ वातेऽप्याखू सूकरमूषिकौ ।

(जीवात्मा, धृति, देह, स्वभाव, परमात्मा, उत्साही, सूर्य, अग्नि, मन और वायु)

इन सभी अर्थों का ‘महात्मा’ शब्द के सन्दर्भ में सप्रमाण व्याख्या आचार्य करते हैं:

आत्मा का अर्थ जीव ग्रहण करने पर: 

बृहदारण्यक उपनिषद् ५.७.२६

“यस्यात्मा शरीरं” (आत्मा जिसका शरीर है); य आत्मानि तिष्ठन् आत्मनोन्तरो यमयति” (  जो आत्मा में स्थित होकर, जो आत्मा के अन्दर रहकर उसका नियमन करता  है ) 

विश्वामित्र कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि श्री राम वे हैं, जिनके समस्त जीव शरीर हैं एवं जो सभी जीवात्माओं के अन्तर्यामी आत्मा हैं|

आत्मा का अर्थ धृति ग्रहण करने पर:  

आपद्यपि स्वकार्येषु कर्तव्यत्व स्थिर: धृति| 

जो हर समय निर्धारित लक्ष्य के प्रति दृढ़ है और सभी कार्यों को पूरा करने और उन्हें समाप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय है।

विश्वामित्र कहते हैं कि मैं श्री राम को उस रूप में जानता हूँ जिन्हें अपने कार्यों की पूर्ति के लिए इच्छाशक्ति एवं दृढसंकल्प हैं|

आत्मा का अर्थ देह ग्रहण करने पर:

वराह पुराण में व्यास भगवान कहते हैं, “नित्यं नित्याकृतिधरम्” (वह नित्य हैं, उनका देह नित्य है, प्राकृत परिवर्तन को प्राप्त नहीं है)| 

न तस्य प्राकृता मूर्ति: । (पाँचरात्र)

भगवान का देह प्राकृत पदार्थों (पञ्च-भूत आदि) से निर्मित नहीं है (अस्थि, मज्जा आदि से सम्मिलित नहीं है)| 

शठकोप आऴ्वार् भी कहते हैं: 

तिरुवाय्मोऴि ३.१.८

मासूणाच् चुडर् उडम्बाय् मलरादु कुवियादु

(संस्कृत छन्दानुवाद:

निर्मल तेजोविग्रहो विकासरहितः संकोचरहित, 
निर्मलज्ञानः सर्वात्मा सर्वं व्याप्तवानसि । 
निर्मलापरिमितभूषणवदमरस्वामी मार्ग प्राप्तश्चेत्, 
निर्मलत्वत्पादकुसुमज्योतिर्मालिन्यं न प्राप्नुयात् किम्।)

अर्थ: भगवन् ! आप, समस्त दोषरहित प्रकाशमय दिव्यविग्रहशाली, वृद्धि ह्रास रहित, असंकुचित ज्ञान वाले सर्वान्तरात्मा और सब पदार्थों के निर्वाहक हैं। निर्दोष ज्ञानादि गुणों से विभूषित देवश्रेष्ठ कोई ब्रह्मा, यदि आपकी खुद स्तुति करे, तो भी, आपके निर्मल चरण-कमल की ज्योति, क्या मलिन न होगी? अर्थात् अवश्य होगी ॥ ८ ॥

विश्वामित्र कहते हैं कि मैं श्री राम को उस रूप में जानता हूँ जिनका देह शत्रुओं द्वारा अजेय, शाश्वत, दोषरहित एवं स्वयं-प्रकाश है|

आत्मा का अर्थ स्वभाव ग्रहण करने पर:

वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड १८.३३ में श्री राम कहते हैं: “अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम” (श्री राम प्रतिज्ञा करते हैं कि जो भी एक बार मेरी शरण ग्रहण करेगा, मैं उसकी रक्षा करूँगा; यह मेरा व्रत है)| ऐसा स्वभाव है भगवान का|

तैत्तिरीय उपनिषद् ३.९

 यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्‌।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्‌॥

उससे उच्चतर अथवा उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। उससे महानतर अथवा सूक्ष्मतर कुछ भी नहीं है। अपनी महिमा में मूलबद्ध वह एकमेवाद्वितीय और अटल होकर एक वृक्ष के समान खड़ा है। उस पुरुष के द्वारा समस्त ब्रह्माण्ड परिपूरित है।

तिरुवाय्मोऴि २.३.२ में शठकोप आऴ्वार् कहते हैं:

ऒत्तार्मिक्कारै इलैयायमामाय,
ऒत्तायॆप्पॊरुट्कुम् उयिराय्, ऎन्नैप्पॆट्र
अत्तायाय्त्तन्दैयाय् अऱियादनवऱिवित्त,
अत्ता, नीचॆय्दन अडियेनऱियेने। २।३।२

(संस्कृत छन्दानुवाद

सदृशाधिकशून्यो महामायो, सदृशस्सर्वपदार्थानामात्मा मम जननी । 
सा माता पिता भूत्वाऽज्ञातज्ञापकगुरो !, त्वत्कृतानि दासोऽहं न जानामि ॥ २ ॥)

अर्थ: अपने समान और अधिक रहित, आश्चर्यमय, सब पदार्थों के सजातीय होकर अवतार लेने वाले, सबके धारक, मुझे जन्म देने वाली माता एवं हितकारी पिता होकर, ज्ञान को करने वाले आचार्य होने के कारण महान् उपकारी हे गुरु ! आपके द्वारा किये गये उप यह दास नहीं जान सकता है ।। २ ।।

विश्वामित्र राजा दशरथ से कहते हैं, “मैं जानता हूँ कि श्री राम से बड़ा कोई भी नहीं| वे देवों के भी नाथ हैं| ब्रह्मा, रुद्र आदि सभी के अन्तर्यामी हैं|”

आत्मा का अर्थ ‘उत्साही’ ग्रहण करने पर:

श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कहते हैं:

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।

अर्थात्: साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये,  मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।

विश्वामित्र कहते हैं, “मैं जानता हूँ कि श्री राम दुष्टों के विनाश एवं भक्तों की रक्षा में अत्यन्त उत्साह से युक्त हैं।”

आत्मा का अर्थ ‘सूर्य’ ग्रहण करने पर:

वाल्मीकि भगवान सुन्दर काण्ड में श्रीराम को ‘रामदिवाकरः’ कहते हैं| 

शरजालांशुमान्शूरः कपे रामदिवाकरः
शत्रुरक्षोमयं तोयमुपशोषं नयिष्यति।।5.37.16।।

राम सूर्य की भांति हैं और उनके कोदण्ड से निकले बाण समूह किरणों के सामान हैं, जो शत्रुभूत राक्षस रूपी समुद्र को अविलम्ब सोख लेते हैं।

महर्षि विश्वामित्र कहते हैं कि मैं श्रीराम को इस रूप में समझता हूँ कि उन्हें असुरों को नष्ट करने के लिए आयुधों की भी आवश्यकता नहीं है; केवल अपनी महानता से वह पूरी तरह से असुरों की धारा को उसके स्रोत से सूख सकते हैं।

आत्मा का अर्थ ‘अग्नि’ ग्रहण करने पर:

श्री रामायण अयोध्या काण्ड में वाल्मीकि भगवान कहते हैं:

तं तु कृष्णाजिनधरं चीरवल्कलवाससम् ।
ददर्श राममासीनमभित: पावकोपमम् ।। २.९९.२६ ।।

भरत को दर्शन हुआ कि श्री राम पास ही बैठे हैं एवं प्रज्ज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान हैं।

सुन्दर काण्ड में:

सीतासन्देशरहितं मामितस्त्वरयाऽगतम्।
निर्दहेदपि काकुत्स्य क्रुद्धस्तीव्रेण चक्षुषा।।5.30.14।

हनुमान सोचते हैं कि यदि सीता का सन्देश लिए बिना मैं यहाँ से तुरन्त लौट गया तो श्री राम दु:सह क्रोधभरी दृष्टि से मुझे जलाकर राख कर देंगे|

तिरुमङ्गै (परकाल) आऴ्वार् तिरुनेडुन्दाण्डकम् में कहते हैं, “अनलुरुविल् तिगऴुम् सोदी” (जो अग्नि की भांति अप्राप्य हैं और शत्रुओं को राख के कण में बदल देते हैं|)

विश्वामित्र कहते हैं, “मैं जानता हूँ कि श्री राम वे महान अग्नि हैं जो राक्षसों को जलाकर राख में बदल देंगे|”

आत्मा का अर्थ ‘मन’ ग्रहण करने पर:

वाल्मीकि भगवान बाल काण्ड १.१.१४ में कहते हैं: “सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान् प्रतिभानवान्” (वे अखिल शास्त्रों को तत्त्वत: जानने वाले, स्मरण शक्ति से युक्त एवं प्रतिभासंपन्न हैं)। “बुद्धया ह्याष्टांगया युक्त:” (श्री राम बुद्धि के आठों अंगों से युक्त हैं।)

विश्वामित्र कहते हैं, “मैं राम को जानता हूँ कि एक स्थान पर स्थित होकर रणनीतियों के माध्यम से ही शत्रुओं का नाश कर सकते हैं”।

आत्मा का अर्थ ‘वायु (पवन)’ ग्रहण करने पर:

पराशर भगवान विष्णु पुराण  १-१४-३१ में लिखते हैं, “तस्मै वातात्मने नम:” । (उन भगवान को प्रणाम है, जिनका एक रूप वायु है।)

नम्माऴ्वार् (शठकोप आऴ्वार्) सह्स्रगीति ६.९.१ में कहते हैं:

नीराय् निलऩाय् तीयाय्क् कालाय् नॆडुवानाय्,
सीरार् सुडर्क्कळ् इरण्डाय् सिवनाय् अयन् आनाय्,
कूरार् आऴि वॆण् चङ्गेन्दिक् कॊडियेन्पाल्
वाराय्! ऒरु नाळ् मण्णुम् विण्णुम् मगिऴवे। ६।९।१

(संस्कृत छन्दानुवाद:

नीरं भूत्वा भूमिभूत्वाऽग्निभूत्वा वायुभूत्वा दीर्घाकाशो भूत्वा, 
श्रीपूर्णतेजसी उभे भूत्वा शिवे भूत्वाऽजो जातोऽसि । 
तैक्ष्ण्यपूर्णचक्रधवलशंखौ धत्वा पापिष्ठस्य मम पुरतः, 
अयाह्य कस्मिन् दिने भूमि-राकाशश्च यथा वर्धेताम्‌ ॥ १ ॥)

अर्थ: भगवन् ! आप, जल, भूमि, अग्नि, वायु और महाकाश होकर, कान्तिमान् सूर्य और चन्द्र तथा शिव एवं ब्रह्मारूप बने हैं; अर्थात् आप, इन सब पदार्थों के अन्तर्यामी रूप से विद्यमान हैं। तीक्ष्ण चक्र और उज्ज्वल शंख को धारण कर, मुझ पापी के सामने, आप एकबार ही पधारिये, जिस से भूमि और आकाश (उभयविभूति) आनन्दित हो जायें।

विश्वामित्र कहते हैं, “मैं राम को जानता हूँ, जो महावायु की तरह कपास समान राक्षस राशि को बहाकर नष्ट करने में सक्षम हैं।”

आत्मा का अर्थ ‘वायु (प्राण)’ ग्रहण करने पर:

सहस्रनाम भाष्य में पराशर भट्टर लिखते हैं, “मृतसंजीवनं ही रामवृत्तान्तम्।” (श्री राम का वृत्तान्त मृत हो चुके को भी पुनर्जीवित करने वाला है।)

विश्वामित्र कहते हैं, “मैं श्री राम को जानता हूँ, जो सकल जगत के प्राण वायु हैं| जिस प्रकार प्राण वायु समस्त जीवों को जीने की शक्ति देता है, उसी प्रकार श्री राम समस्त अनुकूल जीवों को धार्मिक कृत्य करने की शक्ति देते हैं”।

वेदाहमेदं पुरुषं महान्तम्

पुरुष सूक्त कहता है: वेदाहमेदं पुरुषं महान्तम्।  (वेद कहते हैं कि मैं उस महान्त्त पुरुष को जानता हूँ।)

वेद किस प्रकार जानते हैं? शठकोप आऴ्वार् सहस्रगीति (तिरुवाय्मोऴि) ९.३.३ में कहते हैं: 

अऱिन्दन वेद अरुळ् पॊरुळ् नूल्गळ्,
अऱिन्दन कॊळ्क अरुम्पॊरुळ् आदल्,
अऱिन्दनर् ऎल्लाम् अरियै वणङ्गि,
अऱिन्दनर् नोय्गळ् अऱुक्कुम् मरुन्दे। ९।३।३

(संस्कृत छन्दानुवाद:

ज्ञातृत्रयी दुर्बोधार्थस्य शास्त्राणि, जानन्तीति स्वीकुर्वन्तु दुज्ञेयपदार्थ तस्मात् ।
जानन्तस्सर्वे हरि नत्वा, ज्ञातवन्तो दुःखानां क्षेत्रौषधम् ।। )

अर्थ: सर्वज्ञ वेद तथा उनके दुरूह (सूक्ष्म) अर्थ के निर्णायक (ब्रह्मसूत्र, इतिहास-पुराणादि) शास्त्र इतना जानते व जनाते हैं कि ‘परमात्मा दुज्ञेय तत्व हैं’ इतना स्वीकार कर लेना पर्याप्त है। उससे आगे सर्वज्ञ रूप में प्रसिद्ध (पराशर-व्यास वाल्मीकि प्रभृति) महर्षिगण भी हरि का आश्रय लेकर इतना जान गये हैं कि वे संसार-दुःखों के निवर्तक महौषधि हैं। 

केनोपनिषद ‘महानतम्’ के बारे में बताते हैं:

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्‌ ॥

अर्थ: जिसका ब्रह्म के बारे में कोई निश्चित मत नहीं है, वही उसे जानता है। जो ब्रह्म को “जानने” का अनुरोध नहीं करता, वही वास्तव में उसे जानता है, और जो “जानने” का अनुरोध करता है, वह वास्तव में उसे नहीं जानता।

रामायण वेद का उपबृंहमण् है (इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्), इस कारण यह श्लोक “अहं वेद्मि महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम्”  पुरुष सूक्त के “वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्” मन्त्र का ही अर्थ बता रहे हैं|

वेदाम् अहम् एतं पुरुषं महान्तम्। 

  • इस श्लोक में ‘वेदां’ को ‘वेद्मि’ शब्द से कहा गया है एवं 
  • ‘अहम्’ शब्द का ‘अहम्’ ही है| 
  • ‘एतं’ शब्द से भगवान का सौलभ्य सूचित है, इस कारण इस श्लोक में ‘रामं’ शब्द है|
  • ‘पुरुषं’ शब्द को ‘सत्यपराक्रमम्’ शब्द से कहा गया है। 
  • ‘महान्तं’ शब्द को ‘महात्मानं’ शब्द से कहा गया‌ है।

सर्वेश्वर जिन्हें ‘महात्मानं’ कहा गया है, वे श्री राम, दशरथ-नन्दन ही हैं| वाल्मीकि भगवान बाल-काण्ड १६.८ में कहते हैं: “पितरं रोचयामास”

अर्थात्: देवताओं के वचन सुनने के पश्चात् भगवान विष्णु ने दशरथ को अपने पिता के रूप में स्वीकार किया|

विश्वामित्र महर्षि दशरथ महाराज से कहते हैं, “न तो वे हमें अपने पास आने में भयभीत (क्योंकि वे परवस्तु हैं) होने देते हैं, न ही स्वयं अपने को हमसे दूर करते हैं (यह सोचते हुए कि हम उनके दास हैं)| अपितु, उन्होंने अवतार लेकर अपने आप को हमारे लिए इतना सुलभ बना लिया है कि मैं उन्हें यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति हेतु उन्हें बुला सकूँ| आप श्री राम को नहीं जान पाते क्योंकि उन्होंने स्वयं को सुलभ एवं सुगम बना लिया है|”

महर्षि विश्वामित्र वेद वाक्य उद्धृत करते हैं: स उ श्रेयान् भवति जायमानः (यजुर्वेद)| अर्थात् सर्वेश्वर प्रभु अवतार लेने पर अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त होते हैं। श्री राम की महानता सर्वविदित उनके अवतार ग्रहण करने के कारण ही हुयी है|

श्लोक व्याख्यान के बाकि अंश आगे के लेखों में जारी रहेंगे|

श्री उ वे सारथी तोताद्री स्वामी द्वारा तमिल कालक्षेप, जो कि इस लेख का आधार है –
https://www.youtube.com/live/xJpAWpn1Tvc?si=28b3XAAO3gM9XyM_

अडियेन माधव श्रीनिवास रामानुज दास

(सहस्रागीति के संस्कृत अनुवाद का श्रेय: श्री रङ्गलक्ष्मी विद्यालय वृन्दावन)

आधार: https://granthams.koyil.org/2025/06/20/sri-ramayana-thani-slokam-2-english/

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