श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
भगवान नारायण ही परम नियंत्रक हैं
भगवद रामानुजाचार्य ने यह पहचाना और स्पष्ट किया की श्रीरंगम के श्रीरंगनाथ भगवान ही सभी चेतन और अचेतन जीवों के परम नियंत्रक हैं।
श्रीरड्ग गद्य कि शुरुवात ही
“स्वाधीन त्रिविध चेतनाचेतन स्वरूपस्थिति प्रवृत्तिभेदमं”
से होती हैं। भगवान नारायण ही सभी चेतन और अचेतन जीवों के परम नियंत्रक हैं।
यह तो केवल भगवान श्रीमन्नारायण कि उपस्थिति ही है कि जीव जीव है और संसार संसार है। उनका अस्तित्व और स्वरूप भगवान श्रीमन्नारायण के अधीन हैं। भगवान श्रीमन्नारायण के ही शरण होने के कारण यह संसार और जीव इस स्थिति में प्रचलित है। भगवान श्रीमन्नारायण के पवित्र इच्छा के कारण सभी के कार्य (प्रवृत्ति और निवृत्ति) उनके आधीन हैं। स्वभाव, अस्तित्व और संसार और जीवों का कार्य भगवान श्रीमन्नारायण का ही अधिकार है।
यह सोच वेदों में, खासकर उपनिषद में और साधुओं कि प्रामाणिक ग्रन्थों में स्पष्ट किया गया है। हालाकी दूसरे अंशों से स्वामीजी के शब्दों को जोड़ना यह बहोत सरल है और जो उनके प्रदर्शन से भी जुड़ सके उन अंशो को ढुढ़ना बहोत कठिन है।
सभी चेतन और अचेतन के उस स्वरूप, स्थिति और प्रवृत्ति के अस्तित्व के विषय को तिरूवायमोजी में उसी क्रम में जैसे स्वामीजी ने प्रस्तुत किया हैं वैसे ही प्रस्तुत किय गया है
तिरूवायमोजी का भाग जो इधर उचित हैं वह प्रतम शतक का प्रतम दशक हैं।
स्वरूप
चोथी गाथा है,
नाम् अवन् इवन् उवन् अवल् इवल् उवल् एवल्
ताम् अवर् इवर् उवर् अदुविदुवुदुवेदु
वीम् अवै इवै उवै अवै नलम् तीड्गवै
आम् अवै आयवै आय् निन्र अवरे
इस संसार के सभी व्यक्ति और पदार्थ जो हमें इस तरह मालूम हैं जैसे मैं, वह, उन्होंने, ये, वे, आदि सभी अपनी अस्तित्व और स्वभाव भगवान पर ही रख देते हैं।
श्री तिरुक्कुरुगैप्पिराण स्वामीजी यह समझाते है,
“विविध-निर्देशांगलले निर्दिस्यमना समस्त-वस्तुक्कलिनुदैया स्वरूपम भगवद-अधिनाम एंड्रू सोल्लुगिरधु”।
ऐसे कहते हैं कि अस्तित्व और सभी सच्चे अस्तित्व का स्वभाव जो हमें विविध सम्बन्धों से मालुम है वह भगवान कि ईच्छा से नीचा v।
स्थिति
पाँचवीं गाथा है,
अवरवर् तमदमदु अरिवरि वगैवगै
अवरवर् इरैयवर् एन अडि अडैवर्गल्
अवरवर् इरैयवर् कुरैविलर् इरैयवर्
अवरवर् विदिवलि अडैय निन्रनरे
सच्चाई अलग-अलग परिस्थिति में समझ आती है, जीव विविध देवी देवताओं कि पूजा से विविध फल प्राप्त करते हैं। उनके कार्य के अनुसार वें निश्चय रूप से फल प्राप्त करते हैं। क्योकीं नारायण उन देवी देवताओं के अन्दर निवास करते हैं और उनकी कार्यो से अपने आप पूजे जाते हैं। वे उन देवी देवताओं कि तरफ से फल देने कि कृपा करते हैं जो उनके द्वारा पूजे गये हैं।
स्वामी पिल्लान समझाते है,
“सर्वकर्म–समराध्यनय सकल–फल–प्रदानाईरूक्कैयाले जगदरक्षनमुम तद–अधीनम एंगीरधु”।
वें हर तरह से पूजे जाते हैं और सभी फलों को प्रदान करते हैं, गाथा में कहा हैं कि पूरे संसार का पोषण / सुरक्षा उन्हीं कि ईच्छा शक्ति से पुरा होते हैं।
प्रवृत्ति
छठी गाथा है,
निन्रनर इरुन्दनर किडन्दनर् तिरिन्दनर्
निन्रिलर इरुन्दिलर किडन्दिलर् तिरिन्दिलर्
एन्रुमोर् इयल्विनर् एन निनैवरियवर्
एन्रुमोर् इयल्वाडु निन्रवन्दिडरे
लेख में अधिकारिक चित्त और इंद्रियों का प्रयोजन उत्कृष्ट होता है जो श्रेष्ठ व्यक्ति को प्रगट करता है और वह सभी कार्यों को और संसार में दिखनेवाली शिथीलता को नियंत्रीत करता है।
श्रीपिल्लन स्वामीजी इस गाथा से समझते हैं,
“चेतनाचेतनात्मक समस्त वस्तुक्कलीनुदइया समस्त प्रवत्ति निव्र्त्तिगलम परमपुरूष –संकल्पाधिनाम एंड्रू सोल्लुगिरधु”।
श्रेष्ठ व्यक्ति कि ईश्वरीय इच्छा सभी कार्यो को और सभी वस्तुओ का जड़त्व चेतन और अचेतन का अस्तित्व को सम्मिलित कर संभालते हैं।
सारांश यह हैं कि तीनों गाथाओं से सिद्ध होता हैं कि सही में सभी का अस्तित्व स्वरूप, स्थिति और प्रवृत्ति श्रीनारायण कि ईश्वरीय इच्छा से शासीत होते हैं। यह देखा जाता हैं कि श्रीरामानुज स्वामीजी इन गाथाओ को सिर्फ फल स्वरूप सूचित नहीं करते परन्तु उसे इस प्रकार मानने को कहते हैं
स्वाधीन त्रिविध चेतनाचेतन स्वरूपस्थिति प्रवृत्तिभेदमं”।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/08/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-10-english/
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